वन्य जीव एवं जैव विविधता

नए युग में धरती: क्या सतत विकास लक्ष्य आएंगे काम

Richard Mahapatra, Anil Ashwani Sharma, Bhagirath, Raju Sajwan

डाउन टू अर्थ, हिंदी मासिक पत्रिका के चार साल पूरे होने पर एक विशेषांक प्रकाशित किया गया है, जिसमें मौजूदा युग जिसे एंथ्रोपोसीन यानी मानव युग कहा जा रहा है पर विस्तृत जानकारियां दी गई है। इस विशेष लेख के कुछ भाग वेबसाइट पर प्रकाशित किए जा रहे हैं। पहली कड़ी में आपने पढ़ा- नए युग में धरती : कहानी हमारे अत्याचारों की । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा- नए युग में धरती: वर्तमान और भूतकाल  तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा - नए युग में धरती: नष्ट हो चुका है प्रकृति का मूल चरित्र । चौथी कड़ी में आपने पढ़ा- छठे महाविनाश की लिखी जा रही है पटकथा । अगली कड़ी में आपने पढ़ा, कुछ दशकों में खत्म हो जाएंगे अफ्रीकी हाथी । अगली कड़ी में था, सॉफ्ट शैल कछुआ प्रजाति की अंतिम मादा खत्म ।  इसके बाद आपने पढ़ा, नए युग में धरती: हिंद महासागर का समुद्री घोंघा हो सकता है पहला शिकार । पढ़ें , अगली कड़ी- 

1500 ईसवीं तक धरती पर मौजूद कशेरुकी यानी हड्डी वाली 1.2 प्रजातियां हर साल विलुप्त हो गईं। जब भी विलुप्ति का कोई चरण आता है, तब उसके दो संकेत दिखाई देते हैं। पहला आबादी का कम होना और दूसरा जिस क्षेत्र में यह फैली होती है, वहां आबादी सिकुड़ती जाती है। वर्तमान में ये दोनों संकेत सभी प्रजातियों में स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। अगर आप 16वीं शताब्दी में हुई विलुप्तियों को देखें तो पाएंगे कि तब हड्डी वाली 680 प्रजातियां विलुप्त हो गईं थीं। तब से लेकर 2016 तक घरेलू स्तनधारियों की 9 प्रतिशत नस्लें खत्म हो चुकी हैं। इन नस्लों को कृषि और भोजन के लिए पाला जाता है। ऐसी 1,000 ये अधिक अन्य नस्लों पर भी विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। आईपीबीईएस की आकलन रिपोर्ट कहती है कि 33 प्रतिशत प्रवाल भित्तियां और एक तिहाई से अधिक समुद्री स्तनधारियों पर विलुप्ति की तलवार लटक रही है। आकलन रिपोर्ट के सह संयोजक जोसेफ सेटेल (जर्मनी) कहते हैं, “पारिस्थितिक तंत्र, प्रजातियां, जंगली आबादी, स्थानीय विविधता और घरेलू पौधों और पशुओं की नस्लें सिकुड़ रही हैं, नष्ट हो रही हैं या गायब हो रही हैं। धरती पर जीवन को आपस में जोड़ने वाली जरूरी डोर छोटी हो रही है और लगातार घिस रही है।” वह आगे कहते हैं कि यह नुकसान इंसानी गतिविधियों का प्रत्यक्ष परिणाम है। यह दुनियाभर के सभी हिस्सों में फैले मनुष्यों की सेहत के लिए प्रत्यक्ष चुनौती भी है।

पारिस्थितिक तंत्र को मनुष्यों के कारण कितना नुकसान पहुंचा है, आकलन रिपोर्ट इस पर रोशनी डालती है। रिपोर्ट के अनुसार, धरती की 75 प्रतिशत भूमि से जुड़ा पर्यावरण और दो तिहाई समुद्री पर्यावरण इंसानी गतिविधियों से बड़े पैमाने पर बदल गया है। करीब 75 प्रतिशत मीठे पानी के संसाधनों का उपयोग खेती और पशुओं को पालने से जुड़ी गतिविधियों के लिए होता है। इसका प्रभाव काफी डरावना है। उदाहरण के लिए दुनियाभर में 23 प्रतिशत भूमि की उत्पादकता भूमि डिग्रेडेशन के कारण कम हो गई है। रिपोर्ट आगे बताती है, “दुनियाभर में 577 बिलियन डॉलर तक की फसल परागण के अभाव में हर साल खतरे में रहती है। वहीं 10 से 30 करोड़ लोगों पर बाढ़ और चक्रवातों का खतरा मंडराता रहता है। ये खतरा तटवर्ती इलाकों के रिहायशी आवासों को नुकसान पहुंचने और सुरक्षा के उपाय न होने के कारण होता है।” डराने वाली बात यह भी है कि यह स्थिति जारी रह सकती है।

अगर इंसानों ने अपनी गतिविधियों पर लगाम नहीं लगाई और प्राकृतिक व्यवस्था को बचाने के लिए कदम नहीं उठाए तो दुनिया सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) से बड़े फासले से पिछड़ सकती है। इस स्थिति में संयुक्त राष्ट्र के 44 में से 35 यानी करीब 80 प्रतिशत लक्ष्य पूरे नहीं हो पाएंगे। मौजूदा स्थिति में आईची बायोडायवर्सिटी के लक्ष्य और एजेंडा फॉर सेस्टेनेबल डेवलपमेंट 2030 भी पूरा नहीं होगा। जैव विविधता के लक्ष्यों से पिछड़ने का मतलब है, गरीबी, भुखमरी, स्वास्थ्य, पानी, शहरों, जलवायु, महासागर और भूमि (सतत विकास लक्ष्य 1,2,3,6,11,13 और 15) से संबंधित लक्ष्यों में पूरा करने में बाधा। अगर हम जैव विविधता के लक्ष्यों को हासिल करने में पिछड़ते हैं तो इसका सीधा प्रभाव सतत विकास के अन्य लक्ष्यों पड़ेगा। हालांकि प्रकृति के संरक्षण के लिए नीतियां बन रही हैं और विभिन्न योजनाएं लागू की जा रही हैं, लेकिन ये तमाम उपाय पर्याप्त नहीं हैं। प्रकृति को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर नुकसान पहुंचाने वाले कारकों पर इनका कोई असर नहीं हो रहा है।

अगर मौजूदा हालात में नए दौर का आपातकाल यानी खत्म होती जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण की संरचना में परिवर्तन और आक्रामक विदेशी प्रजातियों की समस्या को जोड़ दिया जाए तो स्थिति भयावह हो जाती है। दुनियाभर के 21 देशों में 1970 के बाद से आक्रामक विदेशी प्रजातियां औसतन 70 प्रतिशत बढ़ गई हैं। यानी एक तरफ तो स्थानीय देसी प्रजातियां खत्म हो रही हैं और दूसरी तरफ पहले से बड़ी संख्या में मौजूद प्रजातियां तेजी से बढ़ रही हैं। जाने-अनजाने में इंसान ऐसी प्रजातियों को दुनियाभर में फैला रहा है जिससे जैविक एकरूपता यानी विभिन्न क्षेत्रों के जैविक समुदाय एक साथ आ रहे हैं। इसके चलते जैव विविधता क्षीण हो रही है। कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (सीबीडी) के अनुसार, आक्रामक विदेशी प्रजातियां उन्हें कहा जाता है जो अपने प्राकृतिक आवास से बाहर फैल जाती हैं और जिनसे जैव विविधता को खतरा उत्पन्न हो जाता है। ये प्रजातियां जानवरों, पौधों, कवक और सूक्ष्मजीवों पर नकारात्मक असर डालती हैं। ये सभी प्रकार के पारिस्थितिक तंत्र को भी प्रभावित कर सकती हैं।

अब तक जैव विविधता पर कहर बरपाने वाली आक्रामक प्रजातियों ने नए-नए ठिकाने खोज लिए हैं। अब ये महासागरों में भी पहुंच गई हैं और एशिया-प्रशांत के द्वीपों को नुकसान पहुंचा रही हैं। विशेषज्ञों को डर इस बात का है कि वे इनके बारे में अधिक नहीं जानते और इनसे निपटने के लिए पर्याप्त रणनीति बनाने में असमर्थ हैं। ये आक्रामक प्रजातियां बहुत तेजी से फैलती हैं और देखते ही देखते अपनी संख्या को कई गुणा बढ़ा लेती हैं। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में इन्हें जैव विविधता के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में देखा जा रहा है। गहन कृषि वाले क्षेत्र और शहरी क्लस्टर इनसे आमतौर पर पीड़ित रहते ही हैं लेकिन अब इनके हमले मुख्य रूप से द्वीपों और तटवर्ती क्षेत्रों में हो रहे हैं। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में होने वाले ये हमले स्थानीय लोगों के जीवनयापन के सामने गंभीर चुनौती खड़ी कर रहे हैं। मीठे पानी का पारिस्थितिक तंत्र इस क्षेत्र में करीब 28 प्रतिशत जलीय अर्द्ध जलीय प्रजातियों के लिए मददगार है। इनमें से 37 प्रतिशत प्रजातियां ओवरफिशिंग (अत्यधिक मछली पकड़ना), प्रदूषण, निर्माण कार्यों और आक्रामक विदेशी प्रजातियों के कारण संकट में हैं। रिपोर्ट में जोर देकर कहा गया है कि समुद्री आक्रामक प्रजातियों के फैलाव का अध्ययन करने की जरूरत है। रिपोर्ट के अनुसार, “लगातार प्रमाण सामने आ रहे हैं कि समुद्री आक्रामक प्रजातियां मछलियों, प्रवाल भित्तियों, पूरे समुद्र के पारिस्थितिक तंत्र और एशिया प्रशांत क्षेत्र में खाद्य श्रृंखला के लिए गंभीर चुनौती है। लेकिन इनके बारे में अधिक जानकारी नहीं है।”

हाल ही में न्यू साइंटिस्ट जर्नल में बताया गया है कि गैलापागोस द्वीप पर बहुत-सी आक्रामक विदेशी प्रजातियों ने हमला बोल दिया। इतने बड़े हमले के बारे में किसी ने सोचा नहीं था। इसके अलावा ऐसी बहुत सी रिपोर्ट्स हैं जो बताती हैं कि समुद्री द्वीपों पर ऐसे हमले बढ़ रहे हैं।

हालांकि यह डरावनी स्थिति कुछ भौगोलिक क्षेत्रों में अधिक नहीं है। आईपीबीईएस की ग्लोबल असेसमेंट रिपोर्ट ऑन बायोडायवर्सिटी एंड ईकोसिस्टम सर्विसेस के मुताबिक, ऐसा उन क्षेत्रों में है जहां भूमि पर स्वामित्व मूल निवासियों का है। रिपोर्ट के अनुसार, “मूल निवासियों और स्थानीय समुदायों द्वारा प्रबंधित क्षेत्रों पर दबाव बढ़ रहा है। प्रकृति का क्षरण उस भूमि क्षेत्र में कम होता है जहां मूल निवासी पाए जाते हैं। जहां ये समुदाय नहीं होते वहां प्रकृति को अधिक नुकसान पहुंचता है।” अब मूल निवासी से संबंध रखने वाले क्षेत्रों में संसाधनों को हासिल करने की होड़ बढ़ रही है। खनन, यातायात और ऊर्जा के संसाधनों के दोहन से स्थानीय समुदायों का स्वास्थ्य और आजीविका प्रभावित हो रही है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि जलवायु परिवर्तन को कम करने के कार्यक्रम मूल निवासियों और स्थानीय समुदायों पर नकारात्मक असर डाल रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार, जिन स्थानों पर बड़ी संख्या में मूल निवासी और दुनिया के सबसे गरीब समुदाय रहते हैं, वहां जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र के नकारात्मक प्रभाव बेहद गंभीर होंगे। रिपोर्ट में बताया गया है कि मूल निवासी और स्थानीय समुदाय आपस में मिलकर ऐसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। स्थानीय प्रबंधन तंत्र और उनका पारंपरिक ज्ञान इसमें उनकी मदद कर रहा है। हालांकि संरक्षण के वैश्विक ज्ञान और जानकारियों से ये मूल निवासी अनभिज्ञ हैं। रिपोर्ट के अनुसार, मूल निवासियों के ज्ञान, उनके उपायों को मान्यता देकर और पर्यावरण के संरक्षण में उनकी भागीदारी से हम उनके जीवन को बेहतर कर सकते हैं। साथ ही साथ प्रकृति के संरक्षण और उसे बचाने के लिए टिकाऊ रास्ते खोज सकते हैं। यह आज के समाज के लिए उपयुक्त भी रहेगा।