वन्य जीव एवं जैव विविधता

डाउन टू अर्थ खास: बाघ हमले में महाराष्ट्र में 22 लोगों की मौत, क्यों बढ़ रहा है खतरा?

बाघों द्वारा इंसानों को मारने और कई मामलों में उन्हें खाने की घटनाओं में बढ़ोतरी इस ओर इशारा करती है कि पारिस्थितिक बदलावों के चलते इनके स्वभाव में बदलाव आ रहा है

Himanshu Nitnaware, Rajat Ghai

  • महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में बाघ के हमलों में 2025 की शुरुआत से अब तक 22 लोगों की मौत हो चुकी है।

  • उत्तर प्रदेश के पीलीभीत बाघ अभयारण्य क्षेत्र में हाल के हफ्तों में बाघ हमलों में पांच लोगों की मौत हुई है।

  • उत्तराखंड में जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क और राजाजी टाइगर रिजर्व स्थित हैं। यहां नौ लोगों की जान बाघों ने ली है।

  • राजस्थान के रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान में तीन हमले हो चुके हैं, जिनमें एक वन रेंजर और एक वन रक्षक की मौत हुई।

  • मध्य प्रदेश, कर्नाटक, केरल व तमिलनाडु में एक-एक व्यक्ति की मौत की पुष्टि हुई है। समूचे देश में ऐसा हो रहा

महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के लिए 27 मई, 2025 का दिन बेहद दुखद रहा। सुबह खबर आई कि मुल तहसील के चिरोली गांव की 45 वर्षीय संजीवनी माईकालवार की बाघ के हमले में मौत हो गई। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, माईकालवार अपने पति और दो रिश्तेदारों के साथ जंगल से लकड़ी लाने गई थीं और जैसे ही वे भगवानपुर गांव के पास जंगल के उस इलाके में पहुंचीं, जो ताडोबा-अंधारी बाघ अभयारण्य के बफर जोन के नजदीक है, तभी झाड़ियों में छिपे एक बाघ ने उन पर हमला कर दिया और घसीटते हुए ले गया। उनके परिवार के पहुंचने से पहले ही उनकी मौत हो गई। कुछ ही देर बाद उसी तहसील के कांतापेठ गांव के 52 वर्षीय सुरेश सोपांकर अपनी बकरियों को चराने उसी जंगल की ओर ले गए। जब वह वापस नहीं लौटे तो उनके परिवार और वन विभाग के अधिकारियों ने उनकी तलाश शुरू की। बाद में उनका शव मिला, जिसे बुरी तरह क्षत-विक्षत कर दिया गया था। मीडिया रिपोर्ट्स में कहा गया कि दोनों घटनाएं महज 500 मीटर की दूरी पर हुईं और वन अधिकारियों ने आशंका जताई कि इन दोनों हमलों के पीछे एक ही बाघ हो सकता है। इन दो हमलों के बाद साल 2025 की शुरुआत से अब तक चंद्रपुर जिले में बाघों के हमले में मरने वालों की संख्या 22 हो चुकी है। अकेले मई महीने में 17 दिनों के भीतर 11 हमले हुए हैं।

चंद्रपुर अकेला जिला नहीं है, जहां बाघ हमलों की इतनी चिंताजनक संख्या सामने आई है। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत बाघ अभयारण्य क्षेत्र में हाल के हफ्तों में बाघ हमलों में पांच लोगों की मौत हुई है। पहला हमला 13 मई को हुआ था। उत्तराखंड में जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क और राजाजी टाइगर रिजर्व स्थित हैं। यहां नौ लोगों की जान बाघों ने ली है। राजस्थान के रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान में तीन हमले हो चुके हैं, जिनमें एक वन रेंजर और एक वन रक्षक की मौत हुई। मध्य प्रदेश, कर्नाटक, केरल व तमिलनाडु में एक-एक व्यक्ति की मौत की पुष्टि हुई है। समूचे देश में ऐसा हो रहा(देखें, खतरनाक रुझान,)।

इंसानों को खाने लगे हैं बाघ?

इस साल अब तक दर्ज किए गए 43 बाघ हमलों में से कम से कम चार मामलों में यह सामने आया कि बाघों ने मृतकों के अंग खाए। इसमें सुरेश सोपांकर का मामला भी शामिल है। हालांकि बाघों द्वारा इंसानों को खाने की घटनाओं का आधिकारिक तौर पर कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता, लेकिन पिछले वर्षों की कई मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि हर साल कम से कम एक या दो ऐसे मामले जरूर सामने आते हैं। इससे यह सवाल उठता है कि क्या बाघ अब इंसानों को भोजन के तौर पर ज्यादा शिकार कर रहे हैं?

ओडिशा के क्योंझर जिले के बारबिल से कंजर्वेशन बॉयोलाजिस्ट कृष्णेंदु बसाक बताते हैं कि वन्यजीव क्षेत्रों में यह आम तौर पर देखा गया है कि बाघों द्वारा इंसानों पर हमला और उन्हें खाने की घटनाएं तब बढ़ जाती हैं जब बाघ बूढ़े या घायल हो जाते हैं और शिकार करने में असमर्थ हो जाते हैं या जब जंगल से उनका प्राकृतिक शिकार खत्म हो जाता है। हालिया मामलों में विशेषज्ञों और अधिकारियों का मानना है कि ज्यादातर हमले परिस्थितिजन्य थे। पीलीभीत टाइगर रिजर्व के डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर मनीष सिंह के मुताबिक, वहां हाल में हुए पांच हमले संभवतः इसलिए हुए क्योंकि लोग बाघों के क्षेत्र के बहुत पास आ गए थे। वह बताते हैं, “ये घटनाएं तीन-चार बाघों से जुड़ी हैं और जंगल की सीमा से केवल 100 से 300 मीटर की दूरी पर हुईं, जहां अब लोगों ने गन्ने की खेती शुरू कर दी है।” सिंह आगे कहते हैं, “दो मामलों में यह स्पष्ट संकेत मिले कि बाघों ने शव खाया। इसका मुख्य कारण यह रहा कि स्थानीय लोग पीड़ितों तक देर से पहुंचे, जिससे बाघों को लौटकर शव खाने का मौका मिला।” मुंबई स्थित गैर-लाभकारी संस्था वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन ट्रस्ट के अध्यक्ष अनीश अंधेरिया भी इस बात से सहमत हैं। उन्होंने कहा, “ऐसा बहुत ही कम होता है कि कोई बाघ आदतन इंसानों को खाने लगे। अगर ऐसा आम होता, तो भारत के बाघ क्षेत्रों में रहने वाले लाखों लोगों में से हर हफ्ते सैकड़ों की मौत होती।”

बसाक जोड़ते हैं, “अपनी भोजन जरूरतों को पूरा करने के लिए एक बाघ को हर साल औसतन लगभग 50 शिकार करने पड़ते हैं । इसका मतलब है कि उसके प्राकृतिक रूप से जीवित रहने के लिए कम से कम 500 जंगली शिकारों की आबादी जरूरी है। अब कल्पना कीजिए कि अगर हर बाघ को 50 इंसान सालाना खाने की जरूरत होती, तो हालात कितने भयावह होते।”

उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, जिसमें पीलीभीत, दुधवा नेशनल पार्क, किशनपुर और कतर्नियाघाट वन्यजीव अभयारण्यों को शामिल किया गया है, उनमें बाघों की अनुमानित संख्या लगभग 224 है। बसाक बताते हैं, “अगर मान लिया जाए कि ये सभी बाघ नरभक्षी हैं, तो उन्हें सालाना 11,200 इंसानों की जरूरत होगी, जबकि वास्तव में इस पूरे क्षेत्र में बाघों के हमलों से होने वाली औसत वार्षिक मौतें करीब 20 ही होती हैं, जो इस काल्पनिक संख्या का महज 0.17 फीसदी ही है।” बेंगलुरु के बाघ विशेषज्ञ और संरक्षण जीवविज्ञानी के उल्लास कारंत का भी कहना है कि बाघों के इन हमलों का “इंसानी मांस के स्वाद” से कोई लेना-देना नहीं है। बल्कि यह इस बात का संकेत है कि कुछ बाघ अब इंसानों से डरना बंद कर रहे हैं।

बदलता स्वभाव

विशेषज्ञों का मानना है कि बाघों के हमलों के पीछे सिर्फ भूख या गलती नहीं, बल्कि कुछ मामलों में उनके बदले हुए स्वभाव की भी भूमिका हो सकती है। राजस्थान के रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान में हुए दो बाघ हमले इस ओर इशारा करते हैं। एक हमले में एक वन रेंजर और दूसरे में एक सात साल के बच्चे की मौत हुई थी। ये दोनों हमले एरोहेड (टी-84) नाम की 14 वर्षीय बाघिन के 20 महीने पुराने शावकों से जुड़े थे।

यह बाघिन हड्डी के कैंसर और कूल्हे की विकृति से पीड़ित थी, जिससे वह न खुद शिकार कर पा रही थी, न ही अपने तीन शावकों को शिकार सिखा पा रही थी। पिछले कुछ महीनों से अभयारण्य कर्मचारियों द्वारा इन बाघों को जीवित शिकार यानी “लाइव-बैट” दिए जा रहे थे। टाइगर वॉच संस्था के कंजर्वेशन बॉयोलाजिस्ट धर्मेंद्र खंडाल के अनुसार, “इस वजह से शावकों के मन में इंसानों को भोजन से जोड़ने की भावना बनने लगी और धीरे-धीरे वे इंसानों से डरना छोड़ने लगे जो अंततः इन हमलों का कारण बन सकता है।” पिछले महीने इन शावकों को अलग-अलग अभयारण्यों में भेज दिया गया था। एरोहेड की 19 जून, 2025 को कैंसर से मौत हो गई।

अंधेरिया कहते हैं, “रणथंभौर की यह घटना बताती है कि क्या नहीं करना चाहिए। भारत के संरक्षण कानूनों में साफ तौर पर यह बात कही गई है कि वन्यजीवों के स्वाभाविक व्यवहार में इंसानी हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिए।” वह यह भी बताते हैं कि आम तौर पर ऐसे हमले युवा शावकों द्वारा किए जाते हैं जो जिज्ञासावश ऐसा कर बैठते हैं या फिर मादा बाघिन द्वारा जो अपने बच्चों की रक्षा कर रही होती है। एक और कारण यह हो सकता है कि बाघों को लगातार इंसानी इलाकों में रहने, इंसानों को देखने और उनके साथ कुछ हद तक संपर्क में आने के कारण उनके व्यवहार में बदलाव आने लगे हैं। जनवरी 2025 में साइंस जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि भारत के 20 राज्यों में जहां बाघ पाए जाते हैं, वहां की करीब 45 प्रतिशत बाघ-आबादी वाली भूमि पर लगभग 6 करोड़ लोग भी रहते हैं। अध्ययन यह भी बताता है कि बीते दो दशकों में भारत में बाघों की मौजूदगी 30 प्रतिशत बढ़ी है और अब उनकी पहुंच लगभग 1.38 लाख वर्ग किलोमीटर तक हो गई है।

किशनपुर और दुधवा के पूर्व वाइल्डलाइफ वार्डन राहुल शुक्ला कहते हैं, “जंगल किनारे गांवों की बढ़ती आबादी के कारण बाघों और इंसानों के बीच परिचय बढ़ा है।” दिल्ली के वन्यजीव विशेषज्ञ और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 को तैयार करने वाले एम के रंजीत सिंह कहते हैं कि इंसान अब बाघों की कनेक्टिविटी कॉरिडोर में भी अतिक्रमण कर रहे हैं।

बेंगलुरु के मांसाहारी जीवविज्ञानी अभिषेक हरिहर बताते हैं कि बाघों की बढ़ती संख्या ने कई अभयारण्यों को लगभग पूरी तरह भर दिया है। वह कहते हैं, “अब जब बाघों का इलाका सीमित हो गया है, तो वे संरक्षित क्षेत्रों से बाहर भी फैल रहे हैं।”

बाघ विशेषज्ञ के उल्लास कारंत बताते हैं कि कुछ इलाकों में बाघों की घनता एक वर्ग किलोमीटर में 10-15 बाघों तक पहुंच गई है, जबकि सामान्य औसत 8 बाघ प्रति वर्ग किलोमीटर होता है। वह कहते हैं, “यह अक्सर रिजर्व मैनेजरों द्वारा आक्रामक और वैज्ञानिक दृष्टि से अनुचित पर्यावास प्रबंधन का नतीजा होता है।” बाघों की संख्या और घनत्व में वृद्धि का मतलब है कि अब सीमित जगह और शिकार के लिए ज्यादा प्रतिस्पर्धा है। हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर वाइल्डलाइफ स्टडीज, इंडिया के वरिष्ठ फील्ड कंजर्वेशनिस्ट इमरान सिद्दीकी बताते हैं कि चंद्रपुर के जंगलों में 2006 में जहां 30 से 40 बाघ थे, अब उनकी संख्या 250 हो चुकी है। वह आगे कहते हैं, “भीड़भाड़, पर्यावास का नुकसान और इंसानी गतिविधियां बाघों के स्वभाव में बदलाव ला सकती हैं, जिससे हमले होते हैं। 2021 से मई 2025 तक चंद्रपुर में वन्यजीव से जुड़ी 173 मौतों में से 150 बाघों के कारण हुई हैं, जिनमें अकेले 2022 में 53 मौतें हुईं।”

बाघ हमलों की वजह चाहे जो भी हो, इस बढ़ते रुझान को रोकना अब जरूरी हो गया है। इसके लिए विशेषज्ञों का मानना है कि संरक्षण की रणनीतियों में बदलाव लाना होगा, खासकर ऐसी नीतियों की ओर बढ़ना होगा जो समुदाय आधारित हों और बाघ बहुल इलाकों में मानवीय हस्तक्षेप को हतोत्साहित करें। ऐसा संरक्षण विशेषज्ञ सिद्दीकी का मानना है कि संपूर्ण भारत में बाघों के कॉरिडोर वाले क्षेत्रों में कृत्रिम रूप से शिकार की उपलब्धता बढ़ाने और पानी के स्रोतों का निर्माण करके प्रजनन और क्षेत्र विस्तार को बढ़ावा देने जैसी प्रथाओं को अब हतोत्साहित किया जाना चाहिए। इनकी बजाय, इन क्षेत्रों में संघर्ष को कम करने और बचाव कार्यों पर संसाधन खर्च हों।

हरिहर चिंता जाहिर करते हैं कि बाघों की आबादी जब बढ़ने लगी थी तभी यह स्पष्ट था कि वे अपने इलाकों का विस्तार करेंगे। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस स्थिति को लेकर कोई पूर्व योजना नहीं बनाई गई, न ही किसी तरह की तैयारी की गई। हरिहर का मानना है कि सहभागी वन प्रबंधन और अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 यानी वन अधिकार अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन के बिना इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं निकलेगा। इस कानून के जरिए वन क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों को उनके अधिकार मिलें और उन्हें संरक्षण की प्रक्रिया में भागीदार बनाया जाए। वन संसाधनों के प्रबंधन में स्थानीय लोगों को सुरक्षित अधिकार और वास्तविक हिस्सेदारी दी जाए। यही बढ़ते संघर्षों का अधिक समावेशी और टिकाऊ समाधान हो सकता है। बसाक भी इस बात से सहमत हैं। वह कहते हैं कि संरक्षण में स्थानीय समुदायों की भागीदारी न केवल जरूरी है, बल्कि वे बाघों की आवाजाही को पहचानने, गांवों को समय रहते सतर्क करने और आपात स्थिति में वन विभाग के साथ संवाद स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।

बसाक चेताते हैं, “अगर अभी से प्रभावी कार्रवाई शुरू की जाए तभी यह संघर्ष नियंत्रण में लाया जा सकता है। लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह बढ़ता तनाव बाघ संरक्षण की पूरी प्रक्रिया के लिए एक बड़ा झटका बन सकता है। साथ ही यह ऐसा मोड़ ला सकता है जहां मनुष्य और बाघों का सहअस्तित्व ही असंभव हो जाए।” इसका स्पष्ट असर वनों के पर्यटन क्षेत्रों में दिखाई देने लगा है।

इकोटूरिज्म और हमले

इसे उत्तराखंड के उदाहरण से समझा जा सकता है। इस साल 9 जनवरी की सुबह, उत्तराखंड के क्यारी गांव के 56 वर्षीय भुवनचंद रोज की तरह अपने मवेशियों के लिए चारा लेने जंगल की ओर निकले। उनकी पत्नी निर्मला बेलवाल और उस दिन को याद करते हुए बोली, “वो आमतौर पर दोपहर 2 बजे तक लौट आते थे। लेकिन उस दिन देर शाम तक उनका कोई पता नहीं चला। इसके बाद बेलवाल और उनके बेटे पवन ने भुवनचंद की तलाश शुरू की।”

जंगल के भीतर करीब तीन किलोमीटर चलने पर उन्हें घास पर खून के धब्बे मिले। उसके दो किलोमीटर आगे ही भुवनचंद का क्षत-विक्षत शव पड़ा था, जिसे एक बाघ ने नोचकर मार डाला था। क्यारी गांव में यह पिछले 50 वर्षों में पहला बाघ हमला था। यह गांव जिम कॉर्बेट टाइगर रिजर्व की सीमा पर स्थित रामनगर वन प्रभाग में आता है। उसी सप्ताह पास के गांवों छोई और ढेला में भी बाघ हमलों की रिपोर्ट आई। एक वरिष्ठ वन अधिकारी ने डाउन टू अर्थ को नाम न छापने की शर्त पर बताया कि मार्च 2024 से मार्च 2025 के बीच इस वन प्रभाग में कुल 12 बाघ हमले हुए हैं।

क्यारी की एक किसान भगवती सती कहती हैं, “हम जब जंगल से घास काटने जाते थे, तो बाघ या हाथी की मौजूदगी हमें कभी परेशान नहीं करती थी। लेकिन अब बढ़ता इकोटूरिज्म जानवरों के स्वभाव को बदल रहा है और यह हमारे लिए खतरनाक साबित हो रहा है।” जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के 15 इकोटूरिज्म जोन में से पांच अकेले रामनगर वन प्रभाग में हैं। इनमें आमतौर पर जिप्सी गाड़ियों के जरिए जंगल सफारी जैसी गतिविधियां पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। वहीं, जिम कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के कोर संरक्षित क्षेत्र के इर्द-गिर्द बना यह बफर जोन कुल आठ जोन में फैला है, जबकि रामनगर के पास स्थित तराई पश्चिमी वन प्रभाग में दो जोन हैं। यह इलाके के लोगों के लिए आजीविका और आमदनी का बड़ा जरिया हैं। अक्टूबर 2024 में तराई पश्चिमी वन प्रभाग ने चांदनी वन क्षेत्र में एक और इकोटूरिज्म जोन खोलने का प्रस्ताव रखा गया था। यह जानकारी जैसे ही रामनगर के गांवों, खासकर क्यारी तक पहुंची, चिंताएं बढ़ गई क्योंकि ये गांव प्रस्तावित जोन की सीमा पर स्थित हैं। क्यारी में रिजार्ट चलाने वाले नवीन उपाध्याय कहते हैं, “इस प्रस्ताव को लेकर हमसे कोई सलाह नहीं ली गई। हमें मीडिया रिपोर्टों से नवंबर में इस जोन के खुलने की योजना का पता चला।” वह बताते हैं कि फरवरी से ही लोग वन अधिकारियों से संपर्क कर विरोध जता रहे हैं और यह संभवतः पहली बार है जब इस तरह का विरोध सामने आया है। उपाध्याय कहते हैं, “हमने कभी पर्यटकों के स्वागत का विरोध नहीं किया। दरअसल, पिछले साल ही मोहान और भंडारपानी जैसे दो इकोटूरिज्म जोन कुछ महीनों के अंतराल पर खुले थे।” फरवरी 2025 में 26 किलोमीटर लंबी जंगल सफारी कालाढूंगी हेरिटेज जोन को भी शुरू किया गया था। नवीन उपाध्याय समेत पांच ग्रामीणों ने अप्रैल की शुरुआत में उत्तराखंड हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की। 23 अप्रैल, 2025 को सुनवाई में अदालत ने प्रस्ताव पर रोक लगाई और वन विभाग से पूछा कि इस जोन के पीछे क्या तर्क हैं और आगे इसके क्या प्रभाव पड़ सकते हैं।

डाउन टू अर्थ की तरफ से तराई पश्चिम वन प्रभाग के डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर से संपर्क करने की कोशिशें नाकाम रहीं। हालांकि एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि पर्यटक जोन तय करते समय वन क्षेत्र की वहन क्षमता को ध्यान में रखा जाता है। वे कहते हैं, “यह सुनिश्चित किया जाता है कि वन्यजीवों को कोई परेशानी न हो और निर्धारित मार्गों पर ही पर्यटन गतिविधियां चलें। मसलन, चांदनी जोन 10 वर्ग किलोमीटर में फैला है लेकिन पर्यटन सफारी के लिए केवल 25 किलोमीटर लंबा रास्ता तय किया गया है, जिसकी चौड़ाई सिर्फ 0.7 मीटर है। यानी कुल मिलाकर केवल 0.017 वर्ग किमी का उपयोग होगा।”

इसका मतलब है कि कुल क्षेत्रफल का महज एक प्रतिशत हिस्सा ही इकोटूरिज्म में उपयोग होगा। अधिकारी यह भी जोड़ते हैं कि रोजाना सिर्फ 30 सफारी गाड़ियां, वह भी 8 घंटे के भीतर ही चलेंगी।

बढ़ता संघर्ष

रामनगर में बढ़ते बाघों की संख्या इंसान-वन्यजीव टकराव का एक बड़ा कारण हो सकती है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की 2022 की जनगणना के अनुसार, रामनगर में करीब 67 बाघ हैं लेकिन वन अधिकारियों का अनुमान है कि यह संख्या 80 तक पहुंच चुकी है यानी हर 100 वर्ग किलोमीटर पर 20 बाघ जबकि भारत में अन्य क्षेत्रों में यह औसत आठ बाघ प्रति 100 वर्ग किलोमीटर है। अधिकारियों के अनुसार, संरक्षित क्षेत्रों से बाहर बाघों की यह सबसे अधिक संख्या है। एनटीसीए की रिपोर्ट “स्टेटस ऑफ टाइगर्स, कोप्रेडेटर्स एंड प्रे इन इंडिया 2022” विकास परियोजनाओं, रिजॉर्ट और निजी संपत्तियों की स्थापना ने कॉर्बेट टाइगर रिजर्व और रामनगर के बीच प्राकृतिक गलियारों की कनेक्टिविटी को नुकसान पहुंचाया है, जिससे जानवरों की आवाजाही बाधित हुई है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि उत्तर प्रदेश के अमानगढ़ टाइगर रिजर्व से बाघों की आवाजाही तराई पश्चिम के रास्ते रामनगर तक हो रही है और यह बदलाव मानव-पशु संघर्ष को बढ़ा सकता है।

बाघों के अलावा उनके शिकार भी अब जंगलों से बाहर निकलकर खेतों की ओर जा रहे हैं। क्यारी के पास स्थित गेबुआ गांव की सोनी देवी बिष्ट बताती हैं, “नीलगाय, सांभर, हाथी और बंदर हमारी लगभग 40 प्रतिशत फसल नष्ट कर देते हैं।” वह कहती हैं कि बढ़ते तेज रफ्तार वाहनों के कारण जानवर भ्रमित होकर गांवों में चले आते हैं। वन अधिकारी बताते हैं कि इंसान-वन्यजीव संघर्ष के पीछे एक कारण वन्यजीवों की बढ़ती आबादी और दूसरा कारण मानव बस्तियों का जंगलों में फैलाव है। वह बताते हैं, “केवल पर्यटन को इसका जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।” ग्रामीणों का यह भी कहना है कि जनवरी में हुए हमलों के बाद वन विभाग ने जंगल में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी। गेबुआ गांव की उमा देवी पूछती हैं, “अगर हम जंगल न जाएं, तो मवेशियों के लिए चारा और घर में जलाने के लिए लकड़ी कहां से लाएं?” वह कहती हैं कि कम आय वाले लोग सरकारी गैस सिलेंडर भरवाने का खर्च नहीं उठा सकते। उनके लिए सिर्फ जलावन लकड़ी ही एकमात्र विकल्प है।

कोटाबाग गांव के गाइड भगवत सिंह बताते हैं कि गाइड और चालक भी पर्यटन से ज्यादा जंगल के संसाधनों पर निर्भर रहते हैं। सिंह के मुताबिक, “पर्यटक तो सिर्फ गर्मियों के कुछ महीनों और थोड़े बहुत सर्दियों में आते हैं। हमें पीक सीजन में 12,000 से 25,000 रुपए की कमाई होती है। अगर जंगली जानवर फसलों को खाने लगे, तो हमें गांव छोड़ना पड़ सकता है।”