वन्य जीव एवं जैव विविधता

नीतिगत फैसलों में देरी से बढ़ रही है जंगलों में आग की घटनाएं

अनेक प्रयासों के बाद भी जंगलों की आग पर, प्रभावी समय प्रबंधन की कमी साफ झलकती है

DTE Staff

जय प्रकाश पांडेय

आंध्र प्रदेश,उड़ीसा, तेलंगाना के जंगलों में आग यानी वनाग्नि पिछले एक माह में अपने उच्चतम स्तर में देखी जा रही है। भारत के दो हिमालयी राज्य, उत्तराखंड और हिमाचल, उन राज्यों में पहले और दूसरे स्थान पर हैं, जहां 2023-2024 में सबसे अधिक आग की चेतावनी दी गई थी। उत्तराखंड में जंगलों का जलना शुरू हो चुका है।

पिछले वर्ष कनाडा के नोवा स्कोटिया प्रांत के सबसे बड़े शहर हैलिफैक्स, अमेरिका के वेस्टवुड हिल्स आदि क्षेत्रों में वनाग्नि की घटनाओं ने हजारों परिवारों को विस्थापित कर दिया है। हिमाचल प्रदेश की बात करें तो भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) के आंकड़ों के अनुसार, अक्टूबर, 2023 और जनवरी, 2024 के बीच जंगल में आग लगने की 2,050 घटनाएं हुई हैं।

पिछले साल इसी अवधि में जंगल में आग लगने की सिर्फ 296 घटनाएं हुई थीं। वनाग्नी की घटनाओं में यह बारंबारता तेजी से बढ़ रही है। डाउन टू अर्थ के एक आलेख के अनुसार तो वर्ष 2023 के दौरान दुनिया में 37 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैले प्राथमिक उष्णकटिबंधीय जंगल नष्ट हो गए, जो आकार में करीब-करीब भूटान के बराबर हैं।

जन,जंगल,जमीन,जानवर, की कीमत पर वन संसाधनों और आवश्यकीय कार्बन को खोने का यह सिलसिला पूरे विश्व में जारी है। कुछ ही वर्ष पूर्व अमेजन के जंगलों में लगी आग के दृश्य हो, वर्ष 2016 में उत्तराखंड की आग के भयावह मंजर, या वर्ष 2021 में हिमाचल प्रदेश, नागालैंड-मणिपुर सीमा,ओडिशा, में जंगलों की आग, वनाग्नि की श्रृंखलाओ को बढ़ते हमने देखा है।

पर्यावरण वन एवं जलवायु मंत्रालय के अनुसार महाराष्ट्र, दक्षिणी छत्तीसगढ़ और तेलंगाना और आंध्र प्रदेश , मध्य ओडिशा के क्षेत्र वनाग्नि की दृष्टि से अत्यंत प्रवण हॉटस्पॉट में तेजी से बदल रहे हैं। विगत वर्ष हिमाचल के कुल्लू की उझी घाटी के दुआड़ा गांव से सटे चील के जंगल में आग की खबरों को भी हम सबने देखा है।

वनों की उपयोगिता और वनाग्नि का प्रसार

मनुष्य के जीवन का अधिकांश भाग प्रकृति से संबंधित है। वन इन्हीं संबंधों की प्राथमिक ईकाई है। सनातन पद्धति की ऐसी जीवनशैली ने ही वनों को देवता या पवित्र स्थलों के रूप में भी स्थापित किया।

हमारी प्राण वायु वनों की कर्जदार है लेकिन मनुष्य ने अपने स्वभावगत विशेषताओं का परिचय देते हुए प्रकृति का जो दोहन किया है उसका ही खामियाजा वर्तमान शताब्दी में हम भोग रहे हैं।। आज भूतापन, भू-क्षरण, भू-स्खलन और त्वरित बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। जलवायु परिवर्तन के वीभत्स रूपों से विगत वर्षों में हम सबका सामना हुआ है।

भारत के वन क्षेत्र का लगभग 4 प्रतिशत हिस्सा आज वनाग्नि की दृष्टि से अत्यधिक सुबेध है। वनाग्नि न केवल किसी क्षेत्र की जलवायु को प्रभावित करती है बल्कि उस क्षेत्र की जलवायु भी वनाग्नि की तीव्रता, वनाग्नि के प्रकार और आकार को प्रभावित करती है। पूरे विश्व में वनाग्नि की घटनाओं की तीव्रता और आवृति में विगत वर्षों में वृद्धि हुई है।

भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) द्वारा उपग्रह आधारित रिपोर्ट के अनुसार, मार्च के प्रथम चतुर्थांस में देशभर में लगभग 42,799 वनाग्नि का पता चला है। केवल मार्च माह में ही भारत में कर्नाटक में 437 प्रमुख वनाग्नि का उल्लेख मिला है। उड़ीसा में 376,महाराष्ट्र में 249 , आंध्र प्रदेश में 180, मध्य प्रदेश में 117 वानग्नि की जानकारी हमें मिली है।

वनाग्नि के कारण

वनाग्नि सबसे अधिक मार्च और अप्रैल के दौरान दर्ज की जाती है, जब जमीन में बड़ी मात्रा में सूखी लकड़ी, मृत पत्ते, सूखी घास और खरपतवार होते हैं। मानवीय गतिविधियों के अलावा प्राकृतिक परिस्थितियों में, अत्यधिक गर्मी और सूखापन, और शाखाओं की रगड़ से बनाया गया घर्षण भी इस आग का पोषण करता है।

दरअसल वनों की बढ़ती आग का एक प्रमुख कारण पृथ्वी का भू-तापन है। हमारी लापरवाही और वैश्विक इच्छाशक्ति की कमी ने तमाम संधियों पर हस्ताक्षर करने के बाद भी भूताप को कम करने की दिशा में कोई ठोस कदम अभी नहीं उठाया है। मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार फरवरी में देश में 7.2 मिमी बारिश दर्ज की गई, जो 1901 के बाद से इस महीने में छठा सबसे निचला स्तर है।

मध्य भारत में इस महीने में 99% बारिश की कमी ; उत्तर पश्चिम भारत में 76%; दक्षिणी प्रायद्वीप में 54%; और पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में 35%,वर्षा में कमी देखी गई।

भारतीय वनाग्नि का एक अन्य प्रमुख कारण जाने- अनजाने में की गई लापरवाही है। भारत में जंगल की आग के सबसे आम प्रज्वलन स्रोत चराई, पिकनिक की गतिविधियों में की गई लापरवाही, खेती को स्थानांतरित करना, और बांज या चीड़ की पत्तियों को जलाना भी है।

वनाग्नि और हिमालयी राज्य

उत्तराखंड की हम बात करें तो उत्तराखंड वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले पांच महीनों में राज्य में करीब 99 हेक्टेयर जंगल आग से प्रभावित हुए हैं। आज जलते जंगलों की, पहाड़ों में लगने वाली आग का एक प्रमुख कारण पोपुलस, चीड़ के वृक्षों की अधिकता है। चीड़ और बांज की पत्तियों से आग की घटनाओं पर चिंतन अत्यंत आवश्यक है।

इन पत्तियों का जमीन में फैलाव भी आग लगने के लिए उपयुक्त परिस्थितियां पैदा करता है। ऐसे में कुछ स्वयंसेवी संगठनों के चीड़ से बिजली बनाने जैसे लघु प्रयासों पर गौर करने की आवश्यकता है। कश्मीर में तो चीड़ के पेड़ों से प्राप्त स्प्रूस से बायोफ्यूल तक का निर्माण किया जा रहा है।

उत्तराखंड के ही विभागीय आंकड़ों पर गौर करें तो आरक्षित वनों का लगभग 42 प्रतिशत हिस्सा वनाग्नि के लिहाज से आज संवेदनशील है। पिछले एक दशक में वनाग्नि के मामलों में तेजी से वृद्धि हुई है। हालांकि आरक्षित वनों में अग्नि के मुकाबले वन पंचायतों के अग्नि के मामलों में कमी है। मैदानी इलाकों में तो आधुनिक यंत्र काम आ जाते हैं लेकिन पहाड़ों के दूरस्थ इलाकों में तो अभी भी परंपरागत तरीकों से ही वनाग्नि की घटनाओं को नियंत्रित किया जाता है। पहाड़ों में बनाई जाने वाली झापें ऐसी वनग्नि की घटनाओं को नियंत्रित करने का प्रभावी माध्यम है।

इस संदर्भ में उत्तराखंड में, मिट्टी की नमी की कमी भी एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखी जा रही है। सूखेपन और सूखी पत्तियों पर बिजली गिरने या मानवीय गतिविधियों जैसे सूखी पत्तियों पर सिगरेट और बीड़ी के जलते हुए टुकड़े फेंकने से भी वनाग्नि शुरू होती हैं। एक और प्रासंगिक कारण बीते दिनों देखने को आया है। जली हुई पत्तियों से निकलने वाले पोषक तत्व खाद्य कवक के विकास को बढ़ावा देता है। उत्तराखंड के स्थानीय बाजारों में खाद्य कवक की मांग अधिक है,ऐसे में यह मांग भी उत्तराखंड के जंगलों में आग के उपयोग को भी प्रोत्साहित करती है।

आज वैश्विक संगठित प्रयासों से नासा और इसरो से एकत्रित उपग्रह जानकारीयों का हम जंगलों की आग रोकने के लिए प्रयोग कर रहे हैं। नवीनतम तकनीक जैसे मॉडरेट रेजोल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रो-रेडियोमीटर सेंसर का उपयोग करके 52,785 वनाग्नी का पता लगाया गया और एसएनपीपी- वीआईआईआरएस का उपयोग करके 3,45,989 वनग्नी का पता लगाया गया।

सैटेलाइट आधारित रिमोट सेंसिंग तकनीक, जीआईएस उपकरण, और कनाडा के फॉरेस्ट फायर डेंजर रेटिंग सिस्टम (सीएफएफडीआरएस) के फायर वेदर इंडेक्स (एफडब्ल्यूआई) पर आधारित फॉरेस्ट फायर डेंजर रेटिंग सिस्टम के माध्यम से प्रभावी कार्य होते दिख रहे हैं। फॉरेस्ट फायर जियोपोर्टल का निर्माण इस संदर्भ में उल्लेखनीय कार्य रहा है। वाच टावरों का निर्माण, अग्नि सूचना प्रणाली, आदि इसी विकसोन्मुख प्रक्रिया का अगला स्तर है।

जन,जंगल,जमीन और जानवर के हकों की लड़ाई में जंगलों की सुरक्षा प्राथमिक सोपान है। अनेक प्रयासों के बाद भी जंगलों की आग पर, प्रभावी समय प्रबंधन की कमी साफ झलकती है। जंगल बचाओ जैसी योजनाओं के सुचारू क्रियान्वयन के लिए यह आवश्यक है कि गर्मियों के आने से पहले ही प्रभावी तंत्र विकसित किया।

यह भी आवश्यक है कि वानग्नि प्रभावित क्षेत्रों में कम्युनिटी सैनिकों की अवधारणा को समुचित साधनों के साथ बढ़ावा दिया जाए। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के मदद से ऐसे हॉटस्पॉट्स का चिहनीकरण और मानचित्रण हमारी पहली प्राथमिकता होना चाहिए। नीतिगत फैसलों में देरी, तेजी से फैलती वनों की आग का एक और कारण है।

वन समवर्ती सूची के विषय है लेकिन वनों को बचाने के लिए जिस तरह का प्रशिक्षण और सामग्री तंत्र हमें नदारद मिलता है वह केंद्र और राज्य दोनों की ज़िम्मेदारी है। जंगलों की आग को रोकने के लिए किए गए तमाम नागरिक प्रयासों पर गंभीर चिंतन आज वक्त की मांग है। वनाग्नि के प्रबंधन के लिए बजट की कमी को दूर कर जहां नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन में सहायता मिल सकती है वहीं सामुदायिक जागरूकता से काफी हद वनाग्नि को नियंत्रित किया जा सकता है।

(लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, जिनसे डाउन टू अर्थ का सहमत होना जरूरी नहीं है)