वन्य जीव एवं जैव विविधता

बूढ़े और कमजोर पेड़ों को काटना जरूरी : शोध

Varsha Singh

जिस तरह हम अपने घर का प्रबंधन करते हैं, उसी तरह जंगल का प्रबंधन भी जरूरी है। जंगल हमारे पारिस्थितकीय तंत्र को स्वस्थ्य बनाए रखने में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। इसलिए स्वस्थ्य और उत्पादक जंगल जरूरी हैं। ओवर मेच्योर यानी अधिक उम्र के पेड़ जंगल की सेहत के लिहाज से बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते। ठीक वैसे ही, जैसे एक देश में बुजुर्गों की संख्या अधिक हो और नौजवानों की कम। ऐसे ही प्रबंधन की वकालत भारतीय वन अनुसंधान संस्थान के शोध में की गई है। शोध के मुताबिक, समुद्र तल से एक हजार मीटर से अधिक ऊंचाई पर स्थित जंगल में बूढ़े पेड़ों की संख्या अधिक हो रही है। जो कई दृष्टिकोण से पर्यावरण के लिहाज से घातक है। संस्थान ने हाल ही में अपनी यह रिपोर्ट उत्तराखंड वन विभाग को सौंपी है। 

ओवर मेच्योर पेड़ों को काटना जरूरी

इस अध्ययन से जुड़े और पिछले वर्ष रिटायर हुए भारतीय वन्य जीव संस्थान के शोधकर्ता वीके धवन कहते हैं कि जंगल की सफाई की सख्त जरूरत है। जंगल का प्रबंधन नहीं होने के कारण कई सारी मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। जंगल का प्रबंधन न होने के कारण पेड़ों में काफी सघनता आ रही है। पहले एक हेक्टेयर में चीड़ के दो सौ से तीन सौ तक पेड़ लगते थे, लेकिन मौजूदा समय में एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में चीड़ के एक हजार से अधिक पेड़ लगे हैं।

धवन के मुताबिक, बूढ़े और कमज़ोर हो चुके पेड़ों को काटना जरूरी है। ऐसा नहीं करने पर पेड़ों की ग्रोथ का समान वितरण नहीं होगा जिससे पेड़ की गुणवत्ता भी कमजोर होगी। उनके मुताबिक, कमजोर पेड़ों की कटाई की जानी चाहिए, ताकि अच्छे पेड़ों की अच्छी ग्रोथ हो सके और उन्हें फलने-फूलने के लिए भरपूर जगह मिल सके। शोध के दौरान धवन ने यह भी पाया कि अधिक उम्र के पेड़, कमजोर होने की वजह से तेज हवा या तूफान के समय जल्दी गिर जाते हैं। चीड़ के पेड़ों के साथ ऐसा अधिक होता है जिससे जानमाल के नुकसान की आशंका बनी रहती है। 

कार्बन अवशोषण की क्षमता प्रभावित

इस शोध रिपोर्ट की तीसरी अहम बात है कि जंगल में मौजूद अधिक उम्र के पेड़ों में कार्बन जमा हो जाता है। ऐसे पेड़ कार्बन को अवशोषित करने में सक्षम नहीं रह जाते। चीड़ के वे पेड़, जिनका डायामीटर 60 या 70 सेंटीमीटर से अधिक होता है, उनमें कार्बन अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है। मेच्योर होने के बाद से ये पेड़ डेटोरियेशन (क्षय) की स्टेज में आ जाते हैं। जब ऐसे पेड़ टूटकर मिट्टी में गिरते हैं तो उनका कार्बन कंटेंट मिट्टी में चला जाता है। धवन के मुताबिक, एक मेच्योर पेड़ की कार्बन अवशोषण की क्षमता 90 फीसदी तक होती है, लेकिन ओवर मेच्योर पेड़ों में ये घटकर 10 फीसदी रह जाती है। चीड़ के पेड़ का व्यास यदि 60 सेंटीमीटर से अधिक होता है तो इसका अर्थ है कि वो ओवर मेच्योर हो गया है।

चूंकि ग्लोबल वार्मिंग की एक बड़ी वजह हवा में कार्बन में डाई ऑक्साइड की अधिक मात्रा भी है, इसलिए जंगल से हम उम्मीद करते हैं कि वे अधिक से अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड को अवशोषित करेंगे ताकि पारिस्थितकीय तंत्र का संतुलन बना रहे। लेकिन यदि जंगल में बूढ़े पेड़ों की संख्या अधिक होगी, तो जंगल इस कार्य में पूरी तरह सक्षम नहीं होंगे। धवन कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट हो या सरकार, जंगल के प्रबंधन से जुड़े इन जरूरी मुद्दों पर ध्यान दिलाना जरूरी है।

जंगल में पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध की शुरुआत 1970 के दशक में चिपको आंदोलन के साथ हुई थी। जब उत्तराखंड के चमोली में एक स्पोर्ट्स कंपनी के लिए ढाई हजार पेड़ काटे जाने का आदेश पारित हुआ था। उस समय लोगों ने पेड़ से चिपककर जंगल बचाने का आंदोलन चलाया। इस आंदोलन को पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा ने आगे बढ़ाया। तब जंगल में पेड़ों की कटाई का मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा। वर्ष 1980 में सुप्रीम कोर्ट ने एक हजार मीटर से अधिक ऊंचाई पर स्थित पेड़ों के काटने पर प्रतिबंध लगाया था। तब यह कहा गया कि चूंकि हिमालयी क्षेत्र अधिक नाजुक है, उसमें भू-स्खलन की घटनाएं अधिक होती हैं, इसलिए पारिस्थितकीय तंत्र में संतुलन बनाए रखने के लिए पेड़ों के काटने पर प्रतिबंध लगाया गया। 

धवन कहते हैं कि चिपको आंदोलन अपनी जगह अच्छा था। पेड़ों को बचाना जरूरी है, लेकिन हम सलेक्टिव फेलिंग या सिल्वी कल्चर फेलिंग यानी जिन पेड़ों को काटे जाने की जरूरत है, उन्हें काटने की बात करते हैं। सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के बाद से जंगल में पेड़ काटने और साफ-सफाई का कार्य पूरी तरह रुका हुआ है। अब इस बात को 40 बरस हो चुके हैं। हम पूरे जंगल का क्रॉप स्ट्रक्चर बनाते हैं और इसी हिसाब से उसे संतुलित करते हैं। इसमें पेड़ों की मेच्योरिटी की उम्र देखी जाती है। साथ ही ये भी देखा जाता है कि नई पौध के आने की स्थिति क्या है। उन्होंने अपनी शोध के दौरान ये देखा कि जंगल की सघनता की वजह से री-जनरेशन यानी नई पौध भी प्रभावित हो रही है। पेड़ों का जीवन चक्र ठहर गया है। जिससे जंगल की गुणवत्ता और फिर जैव विविधता पर असर आ रहा है।

भारतीय वन अनुसंधान संस्थान की रिपोर्ट पर राज्य के प्रमुख वन संरक्षक जयराज का कहना है कि हम अभी इस रिपोर्ट का अध्ययन कर रहे हैं। इस रिपोर्ट को केंद्र सरकार में ले जाएंगे और उनसे पेड़ों के काटने की अनुमति लेंगे।

हिमाचल प्रदेश में क्या हुआ

पिछले वर्ष 2018, फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश सरकार को जंगल के बेहतर प्रबंधन की खातिर एक सीमित दायरे तक (सिल्विकल्चर फेलिंग) पेड़ काटने की अनुमति दी थी। इसकी निगरानी के लिए दो सदस्यीय समिति भी बनाई गई थी। अदालत ने वर्ष 1996 के अपने आदेश को संशोधित करते हुए यह फैसला दिया था। हिमाचल प्रदेश सरकार ने जंगल में सिल्विकल्चर फेलिंग के साथ पेड़ों की कटाई-छंटाई की अनुमति मांगी थी। लेकिन 12 मार्च 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने ये कहते हुए कि राज्य में बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई हो रही है, अदालत ने हिमाचल प्रदेश में पेड़ों की कटान पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया।