वन्य जीव एवं जैव विविधता

आवरण कथा: कैसे बच सकते हैं जंगल, क्या हो एजेंडा

हमें पांचवीं पीढ़ी के वन सुधारों की आवश्यकता है जो वनों के विकास और आजीविका को सुरक्षित करेंगे

Sunita Narain

आवरण कथा की पहली कड़ी में आपने पढ़ा - क्या गायब हो गए हैं 2.59 करोड़ हेक्टेयर में फैले जंगल । जबकि दूसरी कड़ी में पढ़ा कि क्या कागजों में उग रहे हैं जंगल? पढ़ें अगली कड़ी -  

“इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021” (आईएसएफआर 2021) से बड़ी तस्वीर यह है कि 2019 में पिछले और 2021 में नवीनतम मूल्यांकन के बीच भारत के वन आवरण में मामूली 1.6 लाख हेक्टेयर यानी मात्र 0.2 प्रतिशत की वृद्धि है। यह न तो गर्व करने योग्य है और न ही उल्लेखनीय। वन आवरण में यह वृद्धि राज्य सरकार के वन विभाग के नियंत्रण में रिकॉर्डेड फॉरेस्ट क्षेत्र या वन भूमि के बाहर हुई है। यह वृद्धि मुख्य रूप से उन वनों के चलते हुई है जिन्हें “खुले” के रूप में वर्गीकृत किया गया है यानी 10 से 40 प्रतिशत के बीच कैनोपी (वितान) घनत्व वाले वनों की बदौलत। इससे पता चलता है कि वन बढ़ रहे हैं क्योंकि लोग अपनी व्यक्तिगत भूमि पर पेड़ लगा रहे हैं। लोग गैर-वन प्रजातियां लगा रहे हैं, क्योंकि भारतीय वन अधिनियम 1927 में सूचीबद्ध पेड़ों को लगाने और काटने पर भारी प्रतिबंध है।

अत: इस वन भूमि में रबड़, नारियल, यूकेलिप्टस और यहां तक कि चाय और कॉफी का पौधारोपण भी शामिल होगा जिनका किसी भी एक हेक्टेयर भूमि में वन आवरण 10 प्रतिशत या अधिक है। अभी रिकॉर्डेड फॉरेस्ट क्षेत्र से “बाहर” देश के हरित आवरण का बड़ा हिस्सा है। रिकॉर्डेड फॉरेस्ट क्षेत्र से बाहर कुल वन आवरण का 1.972 करोड़ हेक्टेयर अथवा करीब 28 प्रतिशत हरित आवरण है। अगर इसमें 96 लाख (0.96 करोड़) हेक्टेयर के वृक्षावरण को जोड़ दिया जाए तो यह कुल 2.932 करोड़ हेक्टेयर होगा, जो देश के हरित आवरण का 36 प्रतिशत है। भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुसार, रिकॉर्डेड फॉरेस्ट के बाहर यह भूमि भी देश में 38 प्रतिशत वन सिंक में योगदान देती है।

वृक्षावरण (रिकॉर्डेड फॉरेस्ट क्षेत्र के बाहर के पेड़) करीब 1 करोड़ हेक्टेयर के निजी भूखंडों में फैले हुए हैं, जो देश में अति सघन वनों के क्षेत्र के बराबर हैं। इनमें आम, नीम, महुआ और इमली प्रमुखता से शामिल हैं। ये प्रजातियां अपने उत्पादकों को आजीविका लाभ प्रदान करती हैं। 70 प्रतिशत से अधिक वितान घनत्व वाले अति सघन वन कुल वनावरण का केवल 14 प्रतिशत (देश के भूमि क्षेत्र का 3 प्रतिशत) हैं। इसमें से 70 प्रतिशत या इससे अधिक आदिवासी के रूप में वर्गीकृत जिलों में मौजूद हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि रिपोर्ट में देश के रिकॉर्डेड फॉरेस्ट के बड़े हिस्से का कोई जिक्र नहीं है। यह क्षेत्र 2.587 करोड़ हेक्टेयर है जो राज्य सरकारों के वन विभाग के अधीन एक तिहाई भूमि के बराबर है। इसलिए, सबसे बड़ी समस्या यह है कि वन विभाग वाले वन नहीं बढ़ रहे हैं और उनकी एक तिहाई जमीन आकलन लायक भी नहीं है। वनावरण बढ़ रहा है, लेकिन इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं है।

भविष्य के लिए वन

आईएसएफआर 2021 को यह स्पष्ट करना चाहिए था कि हमें अपनी वन रणनीति पर तत्काल काम करने की जरूरत है। हमें पांचवी पीढ़ी के वन सुधारों की आवश्यकता है। इससे वनों का विकास और आजीविका सुरक्षित करने में मदद मिलेगी।

भारत में वन प्रबंधन साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार के दौरान शुरू हुआ था। अंग्रेजों ने सामुदायिक भूमि सरकार के अधीन करके उसका राष्ट्रीयकरण कर दिया था। वन उनके लिए आर्थिक शोषण को पोषित करने का जरिया भर थे। स्वतंत्रता के बाद पहले चरण तक भारत ने इस दोहनकारी व्यवस्था को जारी रखा। दूसरा चरण 1980 के दशक में शुरू हुआ जब वन संरक्षण अधिनियम बना और इसमें संशोधन हुए। इसमें वनों के डायवर्जन को केंद्रीकृत कर दिया गया। इसको बढ़ावा देने के लिए 1980 के दशक के मध्य में वनों की कटाई रोकने के लिए जागरुकता पर जोर दिया गया।

तीसरे चरण में वनीकरण मिशन की शुरुआत हुई। इसमें देशभर में वनों के बाहर अनुपयोगी बंजर भूमि (वेस्टलैंड) पर पेड़ लगाने पर जोर दिया गया। बहुत जल्द यह स्पष्ट हो गया कि वास्तविक बंजर भूमि वन विभाग के नियंत्रण में आती है। यह भी स्पष्ट हो गया कि वनों का अस्तित्व बचाने के लिए जरूरी है कि लोग अपने मवेशियों को बंजर भूमि पर लगाए गए पेड़ों से दूर रखें। लोगों से अपेक्षा की गई कि वे भूमि की रक्षा करें और वनीकरण में सहयोग दें।

इसी के मद्देनजर संयुक्त वन प्रबंधन (जेएफएम) की शुरुआत की गई और लोगों को घास जैसे वन उत्पादों पर अधिकार दिया गया। इसके बदले में लोगों को वन भूमि की रक्षा करनी थी ताकि वन बढ़ते रहें। जेएफएम सफल नहीं हो पाया क्योंकि राज्य के वन विभाग की इस योजना में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं हो पाई। वन विभाग भी तभी तत्पर दिखाई दिया, जब वर्षों से संरक्षित पेड़ कटाई के लिए तैयार थे। समझौते के तहत इसका पैसा ग्राम समुदाय को हस्तांतरित किया जाना था। लेकिन देशभर में यह देखा गया कि वन उत्पादों के लिए मिला धन बहुत कम था। यह ग्रामीण समुदाय के साथ मजाक जैसा था। इससे लोगों को भरोसा उठ गया और पेड़ों को फिर से उगाने के आंदोलन को नष्ट हो गया।

वर्तमान में चौथा चरण जारी है जिसमें वन संघर्ष के स्थायी युद्धक्षेत्र बन गए हैं। अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी (वनाधिकारों को मान्यता) अधिनियम (एफआरए) 2006 से ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने का प्रयास किया गया और भूमि पर समुदायिक अधिकार दिया गया। जनजातीय कार्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, फरवरी 2022 तक करीब 17.1 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर व्यक्तिगत अधिकारों का स्वीकृत किया गया है। लेकिन इस भूमि व अन्य क्षेत्रों में वनीकरण की आवश्यकता पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। इस तथ्य के बावजूद कि हमारे पास हरित भारत मिशन की कई लुभावनी घोषणाएं हैं और क्षतिपूर्ति वनारोपण के लिए भुगतान के माध्यम से एकत्रित धन है।

2020 में संसद में उठे एक प्रश्न के जवाब में केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने बताया कि मंत्रालय के अधीन कार्यरत क्षतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैंपा) से पेड़ लगाने के लिए करीब 50 हजार करोड़ रुपए राज्यों को हस्तांतरित किए गए हैं। इस फंड से राज्यों में कितने पेड़ लगाए गए हैं और कितने जीवित बचे हैं, इसका कोई आंकड़ा नहीं है। आईएफएसआर 2021 को यह स्पष्ट करना चाहिए कि सरकारी जमीन पर कितने लघु “वन” उगे हैं।

अतीत से सबक लेते हुए पांचवी पीढ़ी के वन सुधारों की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। कौन से पेड़ काटने हैं, इस पर सोच समझकर फैसला करना होगा। यह तथ्य है कि पहले चरण में देश का वन प्रबंधन शोषणकारी रहा है। चौथे चरण के संरक्षण में निजी भूमि पर उगे पेड़ को काटना अपराध की श्रेणी में है। आज भारत अधिकांश लकड़ी उत्पादों का आयात करता है। जापान स्थित अंतर सरकारी संगठन इंटरनेशनल ट्रॉपिकल टिंबर ऑर्गनाइजेशन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, इस प्रकार के लकड़ी उत्पादों का स्रोत आमतौर पर अफ्रीका व अन्य देशों में जंगलों की अवैध कटाई है। यह स्पष्ट रूप से उस देश के लिए अच्छा नहीं है जिसने कुल भोगौलिक क्षेत्रफल के 23 प्रतिशत पर वनों को दरकिनार कर दिया है। ऐसे में भविष्य में वनों के निम्न एजेंडे होने चाहिए :

एजेंडा 1

बचे हुए अति सघन वनों की रक्षा और वनों का पारिस्थितिकीय महत्व जरूरी

उच्च गुणवत्ता और जैव विविधता से परिपूर्ण अति सघन वन का एक हेक्टेयर हिस्सा खोना भी हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसलिए इन वनों की बेहद सख्ती से रक्षा की जानी चाहिए और इनका आंकड़ा भी उपलब्ध होना चाहिए ताकि ऐसे क्षेत्रों में किसी परियोजना को मंजूरी न दी जाए। इसके साथ ही यह मान्यता भी दी जाए कि ये बेहद संपन्न वन देश के सबसे गरीब आबादी की रिहाइश हैं। इसका मतलब है कि इन वन भूमि पर सह-अस्तित्व वाले समुदायों को पारिस्थितिक भुगतान के लिए कारगर रणनीतियां बनाना। उन्हें दंडित करने के बजाय वनों की सुरक्षा का पारिश्रमिक देना चाहिए क्योंकि ऐसी भूमि का संरक्षण महत्वपूर्ण है। भारत के उस नक्शे को बदलना चाहिए जहां बाघ विचरण करते हैं, जहां घने जंगल मौजूद हैं, जहां खनिज पाए जाते हैं, जहां नदियों की उत्पत्ति होती है, जहां सबसे गरीब और हाशिए पर खड़े लोग रहते हैं। यह तभी हो सकता है जब हम लोगों को संरक्षण में भागीदार बनाएं और उन्हें “बायोटिक प्रेशर” मानकर खारिज न करें।

12वें वित्त आयोग ने 2002 में वनों को संरक्षित करने वाले राज्यों को पुरस्कृत करने के लिए राज्य में वनों के क्षेत्र के अनुसार प्रोत्साहन-आधारित अनुदान की स्थापना की थी। 14वें वित्त आयोग ने इस अनुदान के लिए शर्तें हटा दीं जिसका अर्थ है कि राज्य इसका उपयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन कोई नहीं जानता इसका इस्तेमाल कहां होता है। ऐसा लगता है कि पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण के लिए भुगतान का विचार खो गया है। यह भुगतान उन समुदायों को किया जाना चाहिए जो संरक्षित और मूल्यवान वनों के पास रहते हैं। यह भुगतान पारिस्थितिक सेवाओं के लिए है क्योंकि संरक्षण उनके बैकयार्ड और उनकी कीमत पर हो रहा है। इसका अर्थ यह भी है कि हमें इन वनों के वास्तविक मूल्य को आंकने की जरूरत है क्योंकि ये आज जैव विविधता संरक्षण के साथ-साथ कार्बन पृथक्करण के लिए महत्वपूर्ण हैं।

एजेंडा 2

समुदाय के साथ पेड़ काटने व फिर लगाने की योजना

वन विभाग के अधीन आने वाला विशाल क्षेत्र अवक्रमित (डिग्रेडेड) रहता है और ये क्षेत्र लोगों और उनके पशुओं के आवास भी हैं, इसलिए पेड़ लगाने के लिए समुदायों की भागीदारी जरूरी है। एफआरए में सामुदायिक वन प्रबंधन का प्रावधान है और अब समय आ गया है कि राज्य इस दिशा में काम करें। लेकिन ऐसा करने के लिए पेड़ों को काटना पड़ेगा और दोबारा पेड़ लगाने की जरूरत होगी। इसका मतलब है कि लघु एवं बड़े वन उत्पादों का व्यापार हो। पेड़ों को काटना समस्या नहीं है, समस्या उन्हें फिर से न लगाने और उगाने की है। इस समस्या को दूर किया जाना चाहिए। यह समय आराघर (सॉमिल) लगाने का है ताकि घरों व फर्नीचर में सीमेंट, एल्युमिनियम अथवा स्टील के स्थान पर लकड़ी का उपयोग किया जा सके। हमें लकड़ी आधारित भविष्य की जरूरत है। अगर हम यह काम सामुदाय के लाभ के लिए करें तो यह जलवायु परिवर्तन के लिए भी अच्छा है। यह उनके जीवनयापन और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण के लिए भी अच्छा है।

एजेंडा 3

वनों के बाहर पेड़ों से लाइसेंस राज का खत्म करना

आईएफएसआर 2021 के अनुसार, लोग अपनी भूमि पर पेड़ लगा रहे हैं लेकिन इस बारे में बात नहीं होती कि यह वृक्षारोपण तमाम मुश्किलों के बाद हो रहा है। आज भारत में पेड़ काटना अपराधिक कृत्य है, भले ही वह निजी भूमि पर उगाया गया हो। लोगों को नहीं पता कि उन्हें इसकी कटाई, परिवहन और बेचने की अनुमति मिलेगी या नहीं। भारतीय वन अधिनियम 1927 के तहत वनों के बाहर के पेड़ों से प्राप्त लकड़ी या अन्य उपज को वन उत्पाद के रूप में माना जाता है। बात यहीं खत्म नहीं होती। राज्य सरकारों ने इसे अपने कई कानूनों से भी जोड़ दिया है। ये कानून पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों की कटाई और इसके परिवहन को नियंत्रित करते हैं। वर्तमान में पेड़ों को काटना मुश्किल और उत्पीड़न भरा काम है। यह सच्चाई है कि पेड़ बैंक खातों की तरह होते हैं। एक पीढ़ी जरूरत पड़ने पर इसे लगाती है और दूसरी पीढ़ी काटती है। आज बैंक खाते का भी विमुद्रीकरण अथवा राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है।

आईएफएसआर 2021 में देश में बांसों की स्थिति का शानदार मूल्यांकन है। अनुमान है कि देश में 5,333.6 करोड़ बांसों के झुरमुट हैं जो 2019 में 1,388.2 करोड़ से अधिक हैं। देश में बांस का अनुमानित क्षेत्र 1.5 करोड़ हेक्टेयर है जो 2021 में कुल वन आवरण का करीब 20 प्रतिशत है। लेकिन इस बड़े संसाधन का सदुपयोग नहीं हो पा रहा है क्योंकि पेड़ों को काटने व परिवहन पर प्रतिबंध है। व्यापक चर्चाओं के बाद 2017 में भारतीय वन अधिनियम, 1927 में संशोधन किया गया ताकि बांस को पेड़ों की परिभाषा व प्रतिबंधों के दायरे से बाहर किया जा सके और गैर वन भूमि में इसकी कटाई और परिवहन हो सके। लेकिन इस मामले में धीमी प्रगति हुई। वनवासियों का तर्क है कि इस सुरक्षा की आवश्यकता है क्योंकि जंगल के अंदर या बाहर उगे पेड़ों के बीच अंतर करना संभव नहीं है। आईएसएफआर 2021 भी स्पष्ट करता है कि जंगल के बाहर के पेड़ आज देश को हरियाली दे रहे हैं। इसे बड़े पैमाने पर करने के लिए कानून में सुधार की जरूरत है।

भारत का वनों के साथ जुड़ने का प्रयास चिपको आंदोलन से शुरू हुआ जब ऊपरी हिमालय में रहने वाली महिलाओं ने पेड़ों को लकड़हारा द्वारा कटने से बचाने के लिए उन्हें गले लगा लिया। लेकिन हमने आंदोलन की गलत व्याख्या की। महिलाओं ने पेड़ों की कटाई इसलिए नहीं रोकी कि वे पेड़ों का काटना नहीं चाहती थीं बल्कि इसलिए रोकी कि वे पेड़ों को कब काटा जाए, इसका अधिकार चाहती थीं। उन्हें पता था कि उनका अस्तित्व जंगलों से जुड़ा है। उन्हें चारे और जल संरक्षण के लिए इसकी जरूरत थी (1980 के दशक में यात्रा के दौरान उन्होंने मुझे बताया था कि शौच की गोपनीयता के लिए भी उन्हें इसकी जरूरत थी)। लेकिन हमने आधा अधूरा संदेश सुना और जब तक यह मैदानी इलाकों में सत्ता के गलियारों में पहुंचाया गया, तब तक और छोटा हो गया। हमने सुना है कि पेड़ों को हर कीमत पर संरक्षित करना जरूरी है। यह नहीं सुना कि हमें एक स्थायी भविष्य बनाने की जरूरत है जो स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं के लिए लकड़ी के उपयोग पर आधारित हो।

अत: अब समय आ गया है कि हम समझें कि यह सब तभी संभव है जब पेड़ों की रक्षा करना और उन्हें उगाना एक ऐसा व्यवसाय बन जाए जो वन भूमि पर रहने वाले लोगों को लाभान्वित करे। अन्यथा, “लापता” वन भूमि कागजी जंगल भर बनकर रह जाएगी।

अपना स्टॉक जानें

कार्बन स्टॉक वृद्धि भी जंगल के बाहर पेड़ों में है

कार्बन स्टॉक। यह बढ़ते स्टॉक से अलग है क्योंकि यह बायोमास-लकड़ी के बढ़ते स्टॉक, वनस्पतियों, पत्तियों और मिट्टी में संग्रहित कार्बन की मात्रा की गणना करता है। आईएसएफआर 2021 के अनुसार, शुरुआत में फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) ने केवल लकड़ी के बढ़ते स्टॉक की गणना की थी और वन कार्बन का अनुमान लगाने के लिए वनस्पति का अनुमान लगाया था। फिर जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के लिए अपने दूसरे संवाद में भारत ने 1954 से 2004 की अवधि तक ग्रीनहाउस गैस इन्वेंट्री तैयार की।

इसने ग्रीनहाउस गैस प्रवाह का अनुमान लगाया और समय के साथ कार्बन स्टॉक में शुद्ध परिवर्तन पता किया। 2003 में नेशनल फॉरेस्ट इन्वेंट्री के शुभारंभ के बाद से एफएसआई विभिन्न कार्बन पूलों में बढ़ते स्टॉक और कार्बन स्टॉक का अनुमान लगा रहा है। वनस्पति के लिए कार्बन स्टॉक की गणना में रिकॉर्डेड फॉरेस्ट और बाहर के वनों में मिट्टी सहित और वन तल शामिल हैं।

आईएफएसआर 2021 के अनुसार, 2019 और 2021 के बीच कार्बन स्टॉक में 7.94 करोड़ टन की शुद्ध वृद्धि हुई है। दिलचस्प बात यह है कि कार्बन स्टॉक में सबसे बड़ी कमी पत्ती कूड़े से आई है और वृद्धि जमीन के ऊपर बायोमास में हुई। रिपोर्ट फिर बताती है कि जंगलों के बाहर पेड़ों में कार्बन स्टॉक में वृद्धि हुई है। इस आकलन के अनुसार, यह भी महत्वपूर्ण है कि कार्बन स्टॉक का बड़ा हिस्सा (56 प्रतिशत) मिट्टी में है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि देश के कुल भोगौलिक क्षेत्र के 8.94 प्रतिशत क्षेत्र टीओएफ है और यहां 38 प्रतिशत कार्बन स्टॉक है।