वन्य जीव एवं जैव विविधता

छत्तीसगढ़ में सामुदायिक वन संसाधन प्रबंधन बना सकता है ग्राम सभाओं को आत्मनिर्भर

छत्तीसगढ़ में महाराष्ट्र की तर्ज पर सामुदायिक वन संसाधन प्रबंधन योजना को संचालित करने के लिए कंवर्जंस की जरूरत है

Anubhav Shori

वन अधिकार कानून की धारा 5 के अनुसार स्थानीय संस्थाओ या ग्राम सभाओं पर सतत उपयोग, जैव विविधता के सरंक्षण और पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने की जिम्मेदारी है। जिससे कि जंगल की संरक्षण प्रणाली मजबूत हो और वन में निवासरत समुदायों की खाद्य सुरक्षा बनी रहे। वहीं, नियम 4(1) (च) में प्रावधान है कि वन प्रबंधन की न्यायसंगत कार्य योजना तैयार करने के लिए सामुदायिक वन संसाधन प्रबंधन समिति का गठन करना होगा। 

छत्तीसगढ़ राज्य सरकार को इसी पैटर्न पर सामुदायिक वनाधिकार (सीएफआर) प्राप्त ग्राम सभाओं के लिए रास्ता बनाने की जरूरत है। जिससे सीएफआर ग्राम सभाएं स्व- शासन की दिशा में आगे बढ़ते हुए, लोकतांत्रिक प्रक्रिया से वन प्रबंधन योजना बनाकर आजीविका को सुरक्षित कर सके।

छत्तीसगढ़ राज्य में लगभग 78 लाख आदिवासी जंगल के अंदर या आस पास निवास करते हैं, जो राज्य के पूरे भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 45 प्रतिशत हिस्सा है। आदिवासी और अन्य परंपरागत वन निवासी ज्यादातर जंगलों पर ही निर्भर है, वनों से मिलने वाली वनोपज हो या दिन प्रतिदिन उपयोग के साधन, चराई, सांस्कृतिक पहचान सभी वनों पर आधारित है।

छत्तीसगढ़ राज्य में लगभग 61 प्रतिशत हिस्सा पांचवी अनुसूचित क्षेत्र के अंतर्गत आता है, जहां सबसे घने वन हैं और वहां आदिवासियों की एक बड़ी आबादी रहती है, और ये जंगल इन आदिवासियों की आजीविका का प्रमुख साधन हैं।

हम सभी जानते हैं, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून-2006 आजाद भारत का एक ऐतिहासिक कानून है, जो कि जंगलों में रह रहे आदिवासियों और अन्य वनवासियों के अधिकार सुनिश्चित करता है। यह विशेष कानून इसलिए भी है, क्योंकि यह कानून उपनिवैशिक काल मे हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करता है। वन क्षेत्र और वन संसाधनों को संभालने के लिए वन समुदायों को दायित्व देता है, ताकि समुदाय ही जंगल का बेहतर देखरेख और प्रबंधन के लिए आधिकारिक रूप से फैसला ले सकें।

छत्तीसगढ़ के बारे में बात करें तो यहां ग्राम सभाओं को 4,000 से ज्यादा सीएफआर प्राप्त हो चुके हैं। इनमें बहुत से वन्यजीव सरंक्षण क्षेत्र भी शामिल हैं। छत्तीसगढ़ उड़ीसा के बाद देश का दूसरा ऐसा राज्य बन गया है, जिसने सबसे ज्यादा ग्राम सभाओ को वन प्रबंधन के अधिकार दिए हैं।

बावजूद इसके राज्य के सीएफआर आकड़ों को देखने की आवश्यकता है। अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) संस्था के अध्ययन के अनुसार राज्य के अंदर 53,842 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र है, जहां सीएफआर अधिकारों को सुनिश्चित किया जा सकता है। इसमें से राज्य सरकार 14,637 वर्ग किलोमीटर एरिया को सीएफआर अधिकार दे चुकी है, जो कि संभावित  क्षेत्र में से सिर्फ 27 प्रतिशत हिस्सा ही है। शेष 73 प्रतिशत क्षेत्र में सीएफआर के अधिकार दिए जाने चाहिए।

चूंकि ग्राम सभाओं को सीएफआर अधिकार मिलने से जमीनी स्तर पर स्वराज को स्थापित किया जा सकता है, जो कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सपना था। ग्राम सभाएं अपने वनों और संसाधनों के बेहतर प्रबंधन और सरंक्षण से आजीविका को मजबूत कर सकती है। जैसे कि हम महाराष्ट्र राज्य के कुछ गांवों मे देखते आ रहे हैं, महाराष्ट्र सरकार ने कन्वर्जन्स के माध्यम से सीएफआर ग्राम सभाओं को उनके प्रबंधन योजना को संचालित करने के लिए क्रियान्वयन इकाई बनाई हैं।

छत्तीसगढ़ में समस्या यह भी है कि ग्रामीण इलाकों में जंगल होने के बावजूद एक बड़ी आबादी विभिन्न राज्यों में पलायन के लिए मजबूर है, सरकारी आकड़ों के अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य से अन्य राज्यों में पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या 10 लाख के भी ऊपर है, जो कि ज्यादा आदिवासी क्षेत्रों से आते हैं।

खेती के अलावा रोजगार न होने के कारण लोग पलायन करते हैं। ऐसे में सामुदायिक वन प्रबंधन एक व्यवस्थित और टिकाऊ रास्ता बन सकता है, जिसमें ग्राम सभा और लोग अपने जंगलों का प्रबंधन के साथ-साथ इसी के इर्द-गिर्द अपना रोजगार भी पा सकते हैं। राज्य सरकार वैसे एफआरए ग्रामों मे आदर्श ग्राम विकसित किए जाने हेतु पहल कर रही है, जिसमें विभिन्न योजनाओं को वन प्रबंधन व्यक्तिगत/ सामुदायिक दोनों से एकीकृत करने की योजना है।

लेकिन उचित दिशानिर्देश होने के कारण तेंदू पत्तों की ग्राम सभा के बदले छत्तीसगढ़ लघु वनोपज संघ द्वारा नीलामी की जा रही है, जबकि वन विभाग द्वारा ग्राम सभाओं के बिना परामर्श के सीएफआर क्षेत्रों में कूप की कटाई की जा रही है। जो आदिवासियों के लिए एक बड़ी समस्या बन गई है। 

तात्कालिक समस्याएं: 

  • केंद्र और राज्य सरकार के द्वारा सामुदायिक वन संसाधन प्रबंधन योजना के लिए उचित दिशानिर्देश जारी नहीं किए गए है। जिसके आधार पर ग्राम सभाएं स्वतंत्र रूप से वन प्रबंधन समिति का गठन कर सके। अपनी प्रबंधन या कार्य योजना तैयार कर सके। प्रबंधन योजना का क्रियान्वयन कर सके। या कार्य योजना के अनुरूप कार्य करने के लिए धनराशि  की व्यवस्था कर सके।
  • केंद्र और राज्य सरकारों ने कन्वर्जन्स संबंधित कोई स्पष्ट दिशानिर्देश भी नहीं दिए हैं, जिससे सीएफआर ग्राम सभाएं मनरेगा, जेएफएमसी, केम्पा, टीएसपी इत्यादि योजनाओं को एकीकृत कर लाभ ले सके।
  • सीएफआर ग्रामों में वनोपज के विक्रय के लिए दिशानिर्देश की कमी है। बांस और अन्य वनोपज के एकमुश्त बिक्री के लिए अब तक कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं हैं।
  • संकटपूर्व वन्यजीव आवास स्थल, राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य क्षेत्रों में सीएफआर के संबंध में ग्राम सभाओं के पास कोई दिशानिर्देश नहीं हैं, जिससे इन क्षेत्रों में आजीविका के साथ-साथ विकास व सरंक्षण संबंधित कदम उठाने में परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
  • वनोपज आधारित आजीविका विकास सबंधित कार्ययोजना की कमी है। पोस्ट सीएफआर के बाद भी वनोपज के नीलाम और उचित दाम लेने में समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
  • व्यक्तिगत वनभूमियों के जंगलों में विस्तार में रोकथाम के लिए योजना की कमी है, जिससे जंगल का कटना बंद हो जाए।

सीएफआर प्रबंधन के लिए संभावित सुझाव: 

चरण 1 : ग्राम सभा में वन अधिकार कानून की धारा 4(1)ई के तहत सामुदायिक वन संसाधन प्रबंधन समिति का गठन किया जाए और प्रस्ताव की छायाप्रति और समिति की सूचना जिला स्तरीय समिति और वन विभाग को प्रेषित की जाए।  

चरण 2 : सीएफआर प्रबंध समिति के साथ गांव के अन्य लोगों को जोड़कर कोर ग्रुप का चयन और दोनों के क्षमतावर्धन कार्यशाला का आयोजन किया जाए।

चरण 3 : गांव के जंगल की परिस्थितियों की पहचान करना और जरूरतों के बारे में जानकारी एकत्रित करना।

चरण 4 : सीएफआर के आंतरिक वन की सीमा को निर्धारित करना। (जीपीएस मैपिंग द्वारा)

चरण 5:  जंगल के बेहतर समझ के लिए पेड़ों और पौधों की गणना की जा सकती है। हालांकि यह अनिवार्य नहीं होगा।

चरण 6 : प्राप्त जानकारी को नक्शे में अंकित करना, इसके लिए गांव के नक्शों को बड़े रूप मे प्रिन्ट करा के रखा जा सकता है। जिसको कोई भी सार्वजनिक या बैठक वाली जगह पर चस्पा किया जा सकता है। इसी नक्शे का उपयोग ग्राम सभा आगे भी कर सकती है।  

चरण 7: जंगल की परिस्थितियों के आंकलन या गणना को ग्राम सभा के समक्ष प्रस्तुत करना, और इस विषय पर ग्राम सभा में चर्चा करनी चाहिए।

चरण 8:  जंगल और गाँव के आकलन से निकले परिणाम के अनुसार सामुदायिक वन प्रबंधन योजना का मसौदा तैयार करना।

चरण 9:  तैयार मसौदा को ग्राम सभा के समक्ष प्रस्तुत कर के उसपर विचार- विमर्श करने के बाद उचित संशोधन के साथ अंतिम अनुमोदन करवाना चाहिए और इस मसौदे को संबंधित विभागों को भेजना चाहिए। जैसे कि मनरेगा कार्य के लिए जिला पंचायत को, जल संरक्षण के लिए वाटर शेड , पौधारोपण के लिए वन विभाग को, इत्यादि 

दो प्रकार की कार्य योजनाएं

संभावित कार्ययोजना संभवतः दो तरीके से हो सकती है। पहली श्रेणी की प्रबंधन या कार्य योजना इस प्रकार के गांव के लिए होगी। जहां जंगल कम है और जंगल विकास के बारे में सोच रहे है।

दूसरी श्रेणी की कार्य योजना ऐसे गांव के लिए उपयुक्त है जिनका जंगल समृद्ध है, जो कि वनोपजों से आजीविका बढ़ाने के बारे में सोच सकते हैं। अपने अलग-अलग उद्देश्यों के अनुसार कार्य योजना तैयार करने की प्रक्रिया अलग-अलग हो सकती है।

इसके अंतर्गत निम्नलिखित संभावित गतिविधियां हो सकती हैं। जैसे कि लेंटाना हटाना, पौधारोपण, वन सरंक्षण के लिए पेट्रोलिंग, चराई के लिए नियमन और जंगल दोहन संबंधित नियम बनाना इत्यादि। इन समस्त क्रियाकलापों को संचालित करने के लिए वन विभाग के कार्यक्रम जैसे कि केम्पा मद, ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट कमेटी (जेएफएमसी) धन राशि के उपयोग के साथ-साथ मनरेगा का भी उपयोग कर सकते हैं।

अगर जंगल पहले से अच्छा है और ग्राम सभा वनों से आजीविका बढ़ाने के बारे में सोचती है तो वनोपज आधारित आजीविका से जुड़े समस्त विषय जैसे, नए सामग्री बनाना, आसपास वनोपज संग्रहण केंद्र खोजना, बांस और तेंदूपत्ता की नीलामी और अन्य वनोपज के विक्रय के बारे में योजना बना सकते है।

हालांकि इन समस्त योजनाओ को चलाने के लिए वर्किंग कैपिटल की जरूरत पड़ेगी, जिसे आदिवासी उपयोजना, केम्पा, जिला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट (डीएमएफटी) इत्यादि राशियों से आबंटित किया जा सकता है। 

महाराष्ट्र की तर्ज पर छत्तीसगढ़ में सभी योजनाओं को एक साथ जोड़ने की जरूरत

महाराष्ट्र सरकार ने सामुदायिक वन संसाधन अधिकार प्राप्त ग्राम सभाओं को, सामुदायिक वन संसाधन प्रबंधन समितियों द्वारा, वन्य जीव, वन और जैव विविधता सरंक्षण के लिए प्रमुख कदम उठाए हैं। इस संदर्भ में जून 2015 और 2016 मे कई दिशानिर्देश भी जारी किए गए। जैसे कि वन प्रबंधन समिति के गठन और उनके कार्य निर्वहन एवं इन कार्यों को सफल बनाने के साथ-साथ ग्रामीणों की आजीविका को भी सुनिश्चित किया गया है।

महाराष्ट्र में सरकारी योजनाओं व वन प्रबंधन योजनाओं को एक दूसरे के साथ जोड़ा (कंवर्जंस) गया है, जिससे वनों के संवर्धन और प्रबंधन के साथ-साथ गांव के लोगों को रोजगार के अवसर प्राप्त हो सके और ग्राम सभाएं एक क्रियान्वयन इकाई बन कर राशियों का सही उपयोग करते हुए एक ग्राम स्तरीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मजबूत करते हुए, सामुदायिक वन संसाधन प्रबंधन योजना बनाने में और उसका क्रियान्वयन करने में सक्षम हो सके।

इसके लिए जिला और तालुका (तहसील) स्तर कंवर्जंस समिति का गठन किया गया है। ताकि सभी विभागों के बीच एकरूपता आ सके। अभी महाराष्ट्र राज्य में कई ग्राम सभाएं इस कंवर्जंस के माध्यम से अपने वनों का सवर्धन और प्रबंधन के लिए सीधे जिला स्तर से वर्किंग कैपिटल के रूप में और योजनाओ को संचालित करने के लिए विभिन्न विभागों से धनराशि प्राप्त कर रही है। जिसमें आदिवासी उपयोजना, वन विभाग के केम्पा मद, जेएफएमसी, मनरेगा, जल संसाधन विभाग, पशुधन विभाग जैसे विभाग है।

छत्तीसगढ़ में अभी इस प्रकार का कोई भी दिशानिर्देश नहीं है, जिससे ग्राम सभाएं अपनी योजनाओं को संचालित कर सके। हालांकि सितंबर 2020 में छत्तीसगढ़ ने सरकार ने वन प्रबंधन के कार्य होने के संभावना को अंकित किया है।

छत्तीसगढ़ राज्य सामुदायिक वन संसाधन हक के दावों के निर्माण संबंधित सबसे ज्यादा कार्य करने वाला राज्य है। सीएफआर मान्यता के लिए एक विस्तृत मार्गदर्शिका के साथ ही विभिन्न दिशानिर्देश समय समय पर निकाला गया, संचालित करने के लिए समितियां भी बनी। इसी तर्ज पर राज्य सरकार को कंवर्जंस के मध्याम से वन प्रबंधन योजना के कार्य को भी ले जाने का एक बेहतर अवसर दिखता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)