वन्य जीव एवं जैव विविधता

पर्यावरण की पाठशाला बन सकता है सिनेमा

DTE Staff

दिनेश श्रीनेत

अमित मसुरकर की फिल्म ‘शेरनी’ के क्लाइमेक्स में हम नायिका विद्या बालन को एक म्यूजियम में देखते हैं, जहां संरक्षित किए तमाम जीव-जंतुओं के बीच उनकी मौजूदगी उतनी ही बेतुकी लगती है, जितने संरक्षित किए गए जंगली जानवर। ‘शेरनी’ हाल के दिनों में आई एक महत्वपूर्ण फिल्म इसलिए है कि यह बिना किसी घिसे आदर्शवाद का सहारा लिए मनुष्य और वन्य जीवन तथा हमारी सरकारी मशीनरी के अंतर्संबंधों को परत-दर-परत खोलती है।

फिल्म एक नए अर्थों में जेंडर विमर्श को भी सामने लाती है। नायिका विद्या जो एक वन्य अधिकारी है बतौर स्त्री वन्य जीवन के संरक्षण, मनुष्य और जंगल के बीच हो रहे संघर्ष के प्रति चिंतित है। वह साहसी है, तेज है और उसे हालात को काबू में करना आता है मगर धीरे-धीरे पूरा सिस्टम उसे हाशिये पर धकेलता जाता है और अंत में वह खुद को एक नेचुरल हिस्ट्री के म्यूजिम में देखती हैं। यह फिल्म बहुत गहरे तक उद्वेलित करती है और सोचने पर विवश करती है।

‘शेरनी’ को देखते हुए स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि क्यों भारत की बहुत गिनी-चुनी फिल्मों में पर्यावरण एक केंद्रीय विषय या चिंता के रूप में दिखता है? शायद एक बड़ी वजह यह है कि ऐसे कथानकों का नाटकीय निर्वाह नहीं हो पाता। दूसरा, ऐसे विषय ज्यादा रिसर्च तथा लोकेशन की विश्वसनीयता की मांग करते हैं।

थोड़ा पीछे जाएं तो विभाजन पर केंद्रित फिल्म ‘गर्म हवा’ के चर्चित निर्देशक एमएस सथ्यु ही सबसे पहले सिनेमा में पारिस्थितिकी की पड़ताल करते पाए जाते हैं। उनकी फिल्म ‘सूखा’ (1983) में एक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में सूखाग्रस्त इलाकों की कहानी सामने लाती है। कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति की कहानी पर आधारित इस फिल्म में ट्यूबवेल लगाकर सूखाग्रस्त इलाकों में पानी पहुंचाने के हर प्रयास को राजनेता और नौकरशाह नाकाम करने में जुटे हैं।

आरंभ में ही एक वाइड एंगल शॉट के जरिए हम तपती बंजर भूमि में मृत जानवर देखते हैं और फिल्म सीधे अपने विषय पर केंद्रित हो जाती है। इससे पहले यह फिल्म कन्नड़ में ‘बारा’ के नाम से बनी थी और इसे उस वर्ष कन्नड़ की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। फिल्म की अनुशंसा में कहा गया था कि यह अपनी पटकथा और सशक्त निर्देशन के माध्यम से सूखा प्रभावित जिले में सामाजिक-राजनीतिक स्थिति का गहन विश्लेषण करती है।

कुछ साल बाद पूना फिल्म इंस्टीट्यूट से निकले निर्देशक अशोक आहूजा अपनी दूसरी फिल्म ‘वसुंधरा’ (1988) के जरिए पर्यावरण के मुद्दे को गंभीरता से उठाते हैं। नसीरुद्दीन शाह, नीना गुप्ता, बेंजामिन गिलानी और टॉम ऑल्टर इस फिल्म में मुख्य भूमिकाओं में थे। फिल्म समीक्षक मनमोहन चड्ढा लिखते हैं, “वसुन्धरा’ को पर्यावरण के विषय को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने वाली फिल्म भी कहा जा सकता है। ‘वसुन्धरा’ अत्यंत जटिल और मूलभूत प्रश्नों से जूझती है। आहूजा विस्तार से तथा एक कथा के माध्यम से बताते हैं कि पृथ्वी की ऊपरी सहत नष्ट हो जाने का क्या अर्थ है। एक पेड़ काटे जाने या पहाड़ों से पत्थर निकालने के लिए एक विस्फोट करने की इस समाज तथा प्रकृति को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। यह पृथ्वी एक इंच जमीन की उपजाऊ परत बनाने में सैकड़ों बरस लगाती है। उसी उपजाऊ परत को हम लगातार नष्ट कर रहे हैं।“

फिल्म सुदूर हिमालयी शहर के चूना पत्थर से समृद्ध इलाकों की कहानी बयान करती है, जहां भारतीय मूल की और स्विट्जरलैंड में पली-बढ़ी एक युवा महिला पारिस्थितिकीविद शोध परियोजना के लिए आती है। सन् 1980 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई की थी और अंधाधुंध खनन से होने वाले पर्यावरणीय क्षरण को देखते हुए खदानों को बंद करने का आदेश दिया था। यह पूरी फिल्म वास्तविक लोकेशन पर फिल्माई गई थी। ‘वसुन्धरा’ एक भूली-बिसरी फिल्म है जो पारिस्थितिक संतुलन को संरक्षित करने के लिए हमें अपने अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में बताती है।

गिरीश कर्नाड ने कन्नड़ फिल्म ‘चेलुवी’ (1992) में मनुष्य और प्रकृति के संबंधों को एक दार्शनिक स्तर पर समझने का प्रयास किया था। उन्होंने अपने मिथकीय और लोकगाथाओं पर आधारित नाट्य रचनाओं की तरह चिरपरिचित शैली में एक लोककथा के माध्यम से प्रकृति के मानवीकरण को प्रस्तुत किया था। फिल्म की नायिका चेलुवी खुद को एक पेड़ में बदल सकती है। निर्देशक गिरीश कर्नाड ने भौतिक सुखों की खोज में प्रकृति के विनाश की प्रवृति पर सवाल खड़े किए हैं।

इन आरंभिक फिल्मों के जरिए पर्यावरण की चिंताओं ने धीरे-धीरे अपनी जगह बनाई और छोटे स्तर पर ही सही मीडिया और बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित किया। बाद के सालों में पर्यावरण की चिंता अकादमिक गोष्ठियों और अखबारों के पन्नों से सीधे जमीन पर उतर आई। पारिस्थितिकीय असंतुलन उन लोगों की चिंताओं में शामिल हो गया जो सीधे उससे प्रभावित हो रहे थे। वहीं मुख्यधारा का मीडिया जैसे सोची-समझी रणनीति के तहत ऐसे बहुत सारे विषयों पर चुप दिखने लगा।

मेधा पाटेकर और सुंदरलाल बहुगुणा ने जन-आंदोलनों के माध्यम से आम जनता को पर्यावरण के मुद्दे से जोड़ा। विकास के नाम पर विस्थापन एक बड़ी चिंता बनकर उभरा। यही वह वक्त था जब दुनियाभर के कई पर्यावरणविदों ने विकास के नाम पर मानव विस्थापन और पारिस्थितिकी के विनाश को मुद्दा बनाया। भारत में बड़ी बांध परियोजनाओं के निर्माण का असर स्थानीय समुदायों पर पड़ने लगा और इसने एक जनआंदोलन का रूप ले लिया। इस मुद्दे को एक और कन्नड़ फिल्म ‘भूमि गीता’ (1997) में उठाया गया था। इस फिल्म में दिखाया गया था कि कैसे बांध बनने पर लोग अपनी ही जमीन से उजड़ जाते हैं। केसरी हरवू के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने पर्यावरण संरक्षण श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म में राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता।

जहां ‘सूखा’ पानी के मुद्दे को एक राजनीतिक पृष्ठभूमि में देखने का प्रयास करते हैं, गिरीश मलिक अपनी पहली फिल्म ‘जल’ (2014) में कच्छ के रण का परिवेश लेकर आते हैं और पानी की समस्या को सामुदायिकता के स्तर पर समझने का प्रयास करते हैं। कहानी शुरू होती है कच्छ के दो गांवों से जहां पर दूर-दूर तक पानी नहीं है। पानी को लेकर आपसी झगड़े हो रहे हैं। पानी खोजने वाले नवयुवक बक्का को लोग पानी का देवता कहते हैं। गांव में एक खारे पाने का तालाब होता है जहां हर साल फ्लेमिंगो पक्षी आते हैं लेकिन खारा पानी को पीने से मर जाते हैं।

रूस से एक पक्षी वैज्ञानिक लड़की गांव में अपनी टीम के साथ आती है और इन पक्षियों को मरने से बचाने के लिए कच्छ में कुएं और तालाब बनाने का फैसला करती है। ‘जल’ फिल्म पानी के संकट को परिहास से भरी स्थितियों के जरिए प्रस्तुत करती है। पानी के संकट की गंभीरता व पारिस्थितिकी असंतुलन तथा लोगों के जीवन और उनकी सामाजिक अंतर्संबंधों की बारीकी से पड़ताल करती है। ‘जल’ का बुसान इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल और भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के इंडियन पैनोरमा सेक्शन में विशेष उल्लेख हुआ।

एक और उल्लेखनीय फिल्म फिल्म ‘पाणी’ (2019) जो मराठी भाषा में बनी है, महाराष्ट्र के एक सूखा प्रभावित गांव नागदरवाड़ी की पृष्ठभूमि पर आधारित एक प्रेम कहानी है। यह उन चुनौतियों को सामने लाती है जो एक गांव में पानी की खेती के आधुनिकीकरण की जद्दोजहद से जुड़ी हैं। फिल्म का नायक हनुमंत प्रयास करता है कि उसके इलाके को पर्याप्त पानी मिल सके। इस फिल्म ने भी न केवल पर्यावरण संरक्षण श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म में राष्ट्रीय पुरस्कार जीता, बल्कि न्यूयॉर्क फिल्म महोत्सव में इसकी स्क्रीनिंग हुई और फिल्म को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली। फिल्म का निर्देशक आदित्य कोठारे ने किया था और यह उनकी पहली फिल्म थी। इस फिल्म की निर्माता प्रियंका चोपड़ा थीं।

भारत में जिस तेजी से औद्योगीकरण हुआ उतनी ही तेजी से प्रदूषण का संकट भी बढ़ता गया। कारखानों से निकलने वाले हानिकारक रसायन, प्रदूषित जल, विषैली गैसें, धूल, राख, धुआं ने व्यापक स्तर पर मानव जीवन को प्रभावित किया। इस विषय पर फिल्में कम बनी हैं मगर दो फिल्मों का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए। ‘भोपाल एक्सप्रेस’ (1999) भोपाल त्रासदी को करीब से देखने का प्रयास करती है। यूनियन कार्बाइड कारखाने से कई वर्ग किलोमीटर में फैलने जहरीले गैस के रिसाव और उससे हजारों लोगों की मौत को यह फिल्म देखने का प्रयास करती है। कहानी एक नवविवाहित जोड़े और उनके दोस्तों के नजरिए से आगे बढ़ती है। निर्देशक महेश मथाई की इस फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे मानवीय मूल्यों की उपेक्षा करने वाला औद्योगीकरण आम लोगों के जीवन पर कभी न भरने वाला एक घाव छोड़ जाता है।

औद्योगिक प्रदूषण पर दूसरी फिल्म है अपर्णा सिंह की ‘इरादा’ (2017), जो बठिंडा के ताप विद्युत संयंत्रों और कारखानों की पृष्ठभूमि पर है। इस फिल्म को एक थ्रिलर की शैली में बनाया गया है। एक पूर्व सेना अधिकारी की बेटी को जानलेवा बीमारी का पता चलता है। धीरे-धीरे यह रहस्योद्घाटन होता है कि यह धरती में मौजूद पानी में रिस रहे रासायनिक तत्वों के कारण है। केमिकल की रिवर्स बोरिंग के कारण पंजाब के उस इलाके का पानी संक्रमित हो चुका है। जमीन जहरीली हो गई है और उस इलाके में कैंसर तेजी से फैला है।

औद्योगिक माफिया और राजनीतिक पार्टियों का यह गठजोड़ आम नागरिकों को एक धीमी मौत की तरफ ले जा रहा है। इस बीच, एक पत्रकार को मामले की जानकारी मिलती है और उसका अपहरण कर लिया जाता है। पूर्व-सेना अधिकारी, पत्रकार की प्रेमिका और एक एनआईए अधिकारी मामले को सुलझाने और पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने का प्रयास करते हैं। यह फिल्म यूरेनियम तथा फर्टिलाइजर के जहरीले प्रभावों तथा इस वजह से पैदा होने वाले पारिस्थितिकीय असंतुलन को सामने लाती है। फिल्म के कथानक में मालवा क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवन पर सीधे होने वाले असर को दिखाया गया है।

नील माधव पांडा की फिल्म ‘कड़वी हवा’ (2017) भी वास्तविक तथ्यों पर आधारित एक अद्भुत फिल्म है। निर्देशक नील माधव पांडा की इस फिल्म में गांव चौंकाता नहीं है वह अपने पूरे धीमेपन और ठहराव के साथ है। यह एक तकलीफदेह ठहराव है, जहां कुछ न बदल पाने की छटपटाहट भी है। वहां की जमीन बंजर होती जा रही है। साल दर साल बारिश कम हो रही है। खेत में उपज नही हैं। किसान बदहाल हैं। उनके ऊपर बैंक का कर्ज है। कर्ज चुकता न करने के दवाब और भुखमरी की हालत में पहुंचे किसान आत्महत्या कर रहे हैं। गांव के एक अंधे वृद्ध (संजय मिश्रा) को रात दिन यही डर सताता है कि कहीं उसका कर्ज में डूबा बेटा भी कोई गलत कदम न उठा ले।

ऐसे में एक वसूली अफसर उस इलाके में आता है। उसकी चिंताएं अलग हैं। उड़ीसा का समुद्री तूफान उसकी जमीन लील चुका है। उसका बस एक ही लक्ष्य है कि इस इलाके से कैसे ज्यादा से ज्यादा वसूली हो और उससे मिलने वाले कमीशन की मदद से वह अपने परिवार को यहां ला सके। दोनों किरदारों की चिंताएं एक-दूसरे से जोड़ देती हैं। रामानुज दत्ता का कैमरा बंजर जमीन के विस्तार को इस तरह समेटता है कि धीरे-धीरे परिवेश आप पर हावी होने लगता है।

अच्छी बात यह है कि इस किस्म के सिनेमा में वास्तविकता और फिक्शन के बीच दूरी अब खत्म हो रही है। जिस ‘शेरनी’ फिल्म का इस लेख के आरंभ में जिक्र हुआ था, उसकी कहानी का आधार भी नवंबर 2018 की एक वास्तविक घटना है, जब एक शूटर ने अवनी नाम की शेरनी को मार डाला था। यह कार्रवाई वन विभाग के अधिकारियों के कहने पर हुई थी। विभाग का कहना था कि अवनी ने महाराष्ट्र में 13 लोगों को मार दिया था इसलिए अधिकारियों ने उसको मारने का फैसला किया। सामाजिक और वन कार्यकर्ताओं ने अवनी को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी।

अवनी को बचाने के लिए जिस तरह से लोग आगे आए वह एक अभूतपूर्व घटना थी। सोशल मीडिया पर हैशटैग लेट अवनी लिव के नाम से अभियान चलाया जा रहा था। ट्विटर पर इस हैशटैग से प्रतिदिन सैकड़ों ट्वीट किए जा रहे थे। स्टैंडअप कॉमेडियन वरुण ग्रोवर ने भी एक वीडियो के जरिए लोगों से अवनी को बचाने की अपील की थी। लेकिन कोर्ट ने नागपुर और बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए, बाघिन को मारने का आदेश दिया। बाद में एक्टिविस्ट संगीता डोगरा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा कि अवनी आदमखोर नहीं थी और उसे मारने का फैसला गलत था।

जल, जंगल और जमीन के संरक्षण के लिए होने वाले आंदोलन फिर से तेज हुए हैं। आने वाले दिनों मे शायद नर्मदा-टिहरी बचाओ आंदोलन, चिल्का बचाओ, गंगा मुक्ति, पानी पंचायत, विष्णोई आंदोलन, आप्पिको और मौन घाटी आंदोलन पर भी फिल्में देखने को मिलें।

(लेखक फिल्म समीक्षक हैं)