एक जून को प्रकाशित लेख में हमने लिखा था कि “प्रथम दृष्ट्या ही यह आदेश न केवल गैर कानूनी है, बल्कि वन अधिकार (मान्यता) कानून की मूल आत्मा के साथ एक भद्दा मजाक है। चूंकि यह आदेश सिरे से गैर कानूनी है, अत: इसे छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार को वापिस लेना ही है। नौकरशाहों पर ज़्यादा भरोसा कई बार सरकार की बेइज्जती कैसे करता है इस आदेश की वापसी इसकी एक हालिया नज़ीर होने जा रही है”।
छत्तीसगढ़ सरकार ने 1 जून की देर शाम अपना वह आदेश वापस ले लिया है, जिसमें वन अधिकार (मान्यता) कानून 2006, के क्रियान्वयन में राज्य के ‘वन विभाग’ को ‘नोडल एजेंसी’ का दर्जा दिया गया था। संशोधित आदेश में वन विभाग की भूमिका को पुन: कानून के मूल स्वरूप और दिशा निर्देशों के अनुसार समुदायों द्वारा दावा भरने की प्रक्रिया में समन्वय करने की जिम्मेदारी दी गयी है।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला ने सरकार द्वारा अपने पिछले आदेश में त्वरित सुधार किए जाने का स्वागत करते हुए कहा कि-‘राज्य सरकार ने इस आदेश के माध्यम से वन अधिकार कानून की मूल भावना का सम्मान करते हुए इसके क्रियान्वयन में वन विभाग की भूमिका को न केवल स्पष्ट किया है बल्कि उसकी जिम्मेदारी भी अधिक स्पष्टता के साथ तय कर दी है’।
उन्होंने छतीसगढ़ बचाओ आंदोलन की ओर से राज्य सरकार द्वारा जन आंदोलनों की आपत्तियों को तुरंत संज्ञान में लेने और ‘सही दिशा’ में कदम उठाते हुए अपने आदेश में संशोधन किए जाने की इस लोकतान्त्रिक पहल की सराहना भी की।
हालांकि इस आदेश से यह स्पष्टतता नहीं मिलती कि क्योंकर केवल सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों की मान्यता के लिए वन विभाग को समन्वय करने का दायित्व दिया गया है? वन अधिकार कानून में दिये गए अन्य तमाम अधिकारों के लिए क्रियान्वयन प्रक्रिया में क्या वन विभाग का काम समन्वय करने का नहीं होगा?
अगर इस कवायद को राज्य सरकार द्वारा भूल सुधार के तौर पर भी देखा जाए तो इसे सरकार की अच्छी मंशा ही माना जाना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि देश में आज़ादी के बाद से वन विभाग ने समुदायों को उनके परंपरागत अधिकारों से वंचित रखे जाने में निर्णायक भूमिका निभाई है। एडवोकेट अनिल गर्ग इस संशोधित आदेश को लेकर सकरात्मक रुख रखते हुए बताते हैं कि “छत्तीसगढ़ राज्य में इसी वन विभाग के 39 अनुविभागों (सब-डिविजन्स) के पास भारतीय वन कानून 1927 के तहत धारा 5 से 19 तक की जांच लंबित पड़ी हैं जिन पर अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है।
राज्य शासन की ये पहल तभी कारगर होगी जब वन विभाग को इन 4000 वन खंडों में दर्ज जमीन व संसाधनों को मौजूद निस्तार पत्रक, बाजीबुल-अर्ज व संरक्षित वन सर्वे कंपलीशन रिपोर्ट, एवं संरक्षित वन ब्लॉक हिस्ट्री के अनुसार समस्त ब्यौरों को अपने पी.एफ. एरिया रजिस्टर में दर्ज़ करने कहा जाता”।
वैसे इसे पूरा किए जाने की जिम्मेदारी राज्य स्तरीय निगरानी समिति के अध्यक्ष की है। जो राज्यों में पदेन मुख्य सचिव होते हैं। ऐसे जब राज्य सरकार सभी जिम्मेदार विभागों के बीच समन्वय स्थापित करने की पहल ले रही तब राज्य के मुख्य सचिव को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए।
अगर वन विभाग को अपनी गलतियां सुधारते हुए ये ज़िम्मेदारी निभाने के लिए कड़े आदेश दिये जाते हैं और वन विभाग इन लंबित कार्यवाहियों को पूरा करता है तो वन अधिकार कानून की धारा 3(1) ख के तहत एक ज़रूरी शर्त को पूरा किया जा सकता और राज्य में सामुदायिक वन अधिकारों की दिशा में एक सकारात्मक पहल हो सकती है।
इस तथ्य को भी यहां नहीं भूलना चाहिए कि छत्तीसगढ़ (और मध्य प्रदेश में भी) अनुविभागीय अधिकारी (राजस्व) को वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन में तिहरी भूमिकाएँ दी गईं हैं। अनुविभागीय अधिकारी (सब-डिविजिनल ऑफिसर) राजस्व को छत्तीसगढ़ भू-आचार संहिता के तहत भू-बंदोबस्त अधिकारी के तौर पर विशेष अधिकार हासिल हैं। भारतीय वन कानून 1927 की धारा 5 से 19 तक की लंबित जांच एवं कार्यवाही के लिए वन-व्यवस्थापन अधिकारी के तौर पर इनकी ज़िम्मेदारी है और वन अधिकार कानून 2006 के तहत उपखंड स्तरीय वन अधिकार समिति के अध्यक्ष भी यही होते हैं। प्रशासनिक स्तर पर मौजूद इस व्यवस्था को भूमि-सुधार की उस मुहिम के तौर पर देखा जाना चाहिए जो आज़ादी के तत्काल बाद 1950 से ही देश में शुरू हुई थी।
वन अधिकार कानून, 2006 को भी देश में व्यापक भूमि-सुधार के एक महत्वपूर्ण कानून के रूप में देखा जाता है। ऐसे में राज्य सरकार को इस पर भी विचार करना चाहिए कि राजस्व विभाग के अनुविभागीय अधिकारी के विशिष्ट अधिकार क्षेत्र में इस नए घोषित हुए समन्वयक द्वारा अतिक्रमण न हो।
मध्य प्रदेश शासन ने 16 अप्रैल 2015 को एक आदेश में वन अधिकार कानून के क्रियानवयन के संबंध में एक महत्वपूर्ण आदेश जारी किया था जिसमें दोनों विभागों (राजस्व व वन) की भूमिकाओं को स्पष्ट किया गया है। छत्तीसगढ़ सरकार को भी इस आदेश का संज्ञान लेना चाहिए।
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(लेखक भारत सरकार के आदिवासी मंत्रालय के मामलों द्वारा गठित हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबन्धित समितियों में नामित विषय विशेषज्ञ के तौर पर सदस्य हैं)