जंगल की परिभाषा बदलने से उत्तराखंड के जंगलों पर घिर आया एक खतरा फिलहाल टल गया है। पांच दिसंबर को केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने उत्तराखंड सरकार की डीम्ड फॉरेस्ट की परिभाषा ख़ारिज कर दी है। डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ऑफ फॉरेस्ट्स ब्रिजेंद्र स्वरूप ने डीम्ड फॉरेस्ट की परिभाषा को लेकर उत्तराखंड सरकार के प्रमुख सचिव (वन) समेत सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के वन अधिकारियों को इस संबंध में निर्देश जारी किए हैं।
21 नवंबर को उत्तराखंड सरकार ने अधिसूचना जारी कर डीम्ड फॉरेस्ट की नई परिभाषा तय की। जिसके मुताबिक उत्तराखंड के राजस्व रिकॉर्ड्स में दर्ज 10 हेक्टेअर क्षेत्र या उससे अधिक क्षेत्र के जंगल जिनका कैनोपी घनत्व 60 प्रतिशत से अधिक हो, वो ही जंगल माने जाएंगे। साथ ही ये भी कहा गया कि इनमें 75 प्रतिशत स्थानीय प्रजातियों के पेड़-पौधे होने चाहिए। डीम्ड फॉरेस्ट की इस नई परिभाषा ने पर्यावरणविदों को चिंता में डाल दिया। राज्य के रिजर्व और प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट में भी 60 फीसदी कैनोपी घनत्व वाले जंगल कम ही हैं। ऐसे में राजस्व रिकॉर्ड्स में दर्ज भूमि पर बसे जंगलों के अस्तित्व पर खतरा आ गया था।
उत्तराखंड सरकार की डीम्ड फॉरेस्ट की परिभाषा का परीक्षण करने के बाद केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने कहा कि यह परिभाषा सुप्रीम कोर्ट के जंगल को लेकर दिए गए वर्ष 1996 के फ़ैसले के दायरे से बाहर थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जंगल का मतलब उसके डिक्शनरी अर्थ से लिया जाएगा। यानी वो जगह जहां पेड़-पौधे हों, भले ही उस ज़मीन पर किसी का भी स्वामित्व हो। उस आदेश के अनुसार वन संरक्षण अधिनियम 1980 हर जंगल पर लागू होता है, जो जंगल के डिक्शनरी मीनिंग के तहत आती हैं। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने कहा कि किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश को इस तरह की परिभाषाएं नहीं तय करनी चाहिए, जिससे सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना होती हो।
डीम्ड फॉरेस्ट की परिभाषा को लेकर उत्तराखंड सरकार के पूर्व वन अधिकारी विनोद पांडे ने भी नैनीताल हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की थी। जिस पर सुनवाई करते हुए 4 दिसंबर को अदालत ने राज्य सरकार से जवाब मांगा था। हालांकि अब ये परिभाषा ही खारिज कर दी गई है। विनोद पांडे केंद्र सरकार के इस फैसले पर खुशी जताते हैं। उनका कहना है कि वर्ष 1996 में गोडावर्मन केस में सुप्रीम कोर्ट जंगल की परिभाषा तय कर चुका है।
नैनीताल में बटरफ्लाई रिसर्च सेंटर के संस्थापक पीटर स्मेटाचेक डीम्ड फॉरेस्ट की ये परिभाषा खारिज होने पर संतुष्टि जताते हैं।
दरअसल डीम्ड फॉरेस्ट को परिभाषित करने का ये मामला नैनीताल के पदमपुरी में जिलिंग स्टेट मामले के बाद शुरू हुआ। जिस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। जिलिंग स्टेट ऊंचाई पर बसा नैनीताल का एक राजस्व गांव है। यहां करीब 90 एकड़ जमीन एक बिल्डर को बेच दी गई। जो वहां बिना पर्यावरणीय अनुमति के विला, हैलीपैड, रिजॉर्ट कॉटेज जैसे निर्माण कार्य करना चाह रहे थे। जिस पर स्थानीय निवासी ब्रजेंद्र सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की और कहा कि हिमालय की इस ऊंचाई पर देवदार के जंगल बसे हुए हैं। वन क्षेत्र में गैर-वन गतिविधि की जा रही है जिससे पर्यावरण को खतरा है। उस समय से ये बहस शुरू हुई कि ये इलाका डीम्ड फॉरेस्ट है या नहीं। इस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय वन मंत्रालय से डीम्ड फॉरेस्ट की परिभाषा मांगी। जिसके बाद केंद्रीय वन मंत्रालय ने सभी राज्यों से डीम्ड फॉरेस्ट की परिभाषा तय करने को कहा।
पीटर स्मेटाचेक बताते हैं कि जिलिंग स्टेट डीम्ड फॉरेस्ट में आता है। उत्तराखंड सरकार की नवंबर में तय की गई डीम्ड फॉरेस्ट की परिभाषा के मुताबिक संभव है कि वहां निर्माण कार्य को हरी झंडी मिल जाती। पीटर कहते हैं कि आज हम हर गर्मी में पानी के लिए परेशान होते हैं। हमें तय करना होगा कि हमारी प्राथमिकता क्या है। हमें भविष्य में जल सुरक्षा चाहिए या खूब सारी इमारतें, सड़कें, हॉलीडे होम्स चाहिए। जल-जंगल आपस में जुड़े हुए हैं।
वर्ष 1996 के अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को जंगल की पहचान करने और उन्हें नोटिफाई करने को भी कहा था। इस आदेश के 23 वर्ष बाद भी ये काम नहीं हो सका है। डीम्ड फॉरेस्ट चिन्हित होने से उसके दायरे के बाहर निर्माण कार्यों के लिए पर्यावरणीय अनुमति नहीं लेनी होगी।
करीब 71.05 प्रतिशत वन भूभाग (37,999.60 वर्ग किलोमीटर) वाले राज्य उत्तराखंड में निर्माण कार्यों के लिए पर्यावरणीय अनुमति लेना सरकारों को परेशान करता है। फिलहाल राज्य में 4,768 वर्ग किलोमीटर से अधिक राजस्व विभाग के अधीन सिविल सोयम वन क्षेत्र है। जबकि करीब 7,351 वर्ग किलोमीटर में बसे जंगल वन पंचायत के अधीन हैं और करीब 157 वर्ग किलोमीटर निजी या अन्य एजेंसियों के वन क्षेत्र हैं।