नीला आकाश, उसमें रात भर चमकते अनगिनत तारे और सुबह चिड़ियों की चिरपरिचित चहचहाहट इस वक्त अक्सर मुझे मेरे बचपन की ओर खींच ले जाती हैं। दिल व दिमाग से मैं खुद को 35 साल पीछे गंगा-गंडक के संगम पर बसे छोटे से शहर खगड़िया में, बहुत सारी यादों के बीच खड़ा पाता हूं। यह वही शहर है, जहां मैंने होश संभाला था। और मैं ही क्यूं, गांवों में पले-बढ़े लेकिन इस वक्त महानगरों का हिस्सा बने हजारों-हजार लोग भी शायद ऐसी ही मन:स्थिति से गुजर रहे होंगे।
मैं बात कर रहा हूं 22 मार्च के जनता कर्फ्यू और उसके बाद 21 दिन की लॉक डाउन का, जो कोरोना वायरस से पैदा हुई वैश्विक महामारी से बचने के लिए एहतियातन उठाया गया कदम है। फिलवक्त हम इंसानों के पदचाप ठहर गए हैं। सड़कों से गाड़ियों का चलना तकरीबन बंद है। दिल्ली सरीखे महानगरों में आवाजाही पर रोक ने ऐसा माहौल बना दिया है, जो पूरी कायनात के दूसरे जीवों के अधिकारों को सशक्त करने में सफल रहा है। इसका सुंदर उदाहरण है कि दर्जन चिड़िया, हार्नबिल, तोते, शिकारा आदि पक्षी, शहरी परिवेश में जिनका दर्शन दुर्लभ था, लेकिन आज यह हर तरफ दिख रहे हैं।
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट से जुड़े वैज्ञानिकों का मानना है कि वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में पांच फीसदी या इससे भी ज्यादा की आश्चर्यजनक गिरावट आएगी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह अपनी तरह की पहली घटना होगी। इसके सही आंकड़े तो संकट खत्म होने के बाद के अध्ययनों से ही मिल सकेंगे, लेकिन इसका असर अभी भी महसूस किया जा सकता है। मसलन, दिल्ली एवं इसके आस-पास इस वक्त दिखने वाला नीला आसमान, जो बमुश्किल बीस दिन पहले धूलकण और धुएं से मिश्रित काला और भयानक नजर आता था। हवाई जहाजों के जमीन पर बने रहने, कारखानों के बंद होने और वाहनों के सड़कों से नदारद रहने से शायद ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में अभूतपूर्व गिरावट आई है।
हाल में ही चंडीगढ़ की शहरी इलाके में तेंदुओं का बार-बार नजर आना, चीतल (हिरण) का शहरी पार्कों में स्वच्छंद विचरण करना दर्शाता है कि यह सभी जीव अपने एतिहासिक भौगोलिक पर्यावास पर अपना आधिपत्य जमा रहे हैं। विज्ञान की ओर रूख करें तो यह स्पष्ट है कि टैक्सोनोमी, जो जीवों को पहचानने का विज्ञान है, इसने कोरोना वायरस की पहचान करने में बड़ी भूमिका अदा की है। इसने बुखार और खांसी के लक्षण को देख मॉल्युकुलर जीव विज्ञान की सहायता से कोरोना वायरस की पहचान कराई।
स्पष्ट यह भी है कि विज्ञान ने वैश्वीकरण के फैलाव में मदद की और इसी ने कोरोना वायरस जैसे सूक्ष्म जीव को वैश्विक महामारी में भी तब्दील किया है। आज मानव जाति को अपने घरो में इसने ऐसा महदूद कर दिया है, मानो हम वैश्वीकरण के विपरीत फिर से आदिम काल में चले गए हों।
इसमें दो राय नहीं कि वैश्वीकरण ने प्राकृतिक न्याय के विपरीत हमें संसाधनों का अत्यधिक शोषण करना सिखाया है। साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र संतुलन सिद्धांत के विपरीत मानव जाति ने नदियों एवं जंगली पर्यावासों का दोहन किया। जबकि समय-समय पर प्रकृति ने हमें चेताया भी है-कभी इबोला वायरस तो आज कोरोना वायरस के रूप में।
प्रकृति ने यह जताया कि हे मानव! अपने विकास के व्यावसायीकरण की गति को धीमा कर। जबकि चेतावनी को अनसुना कर मानव जाति ने विकास की दिशाहीन दौड़ मे पीने के पानी एवं सांस की शुद्ध वायु तक को भी नजरअंदाज किया। आज हमने प्रकृति की अनमोल धरोहर-जल एवं वायु का बाजारीकरण कर दिया है। इसका खामियाजा समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्तियों को उठाना पड़ रहा है। हाल में हुए लॉकडाउन में हजारों की संख्या में सड़कों पर निकले मजदूर इसका जीवंत उदाहरण है।
वैज्ञानिक तथ्यों को देखें तो वैश्विक स्तर की समस्याओं की जड़ में कहीं न कहीं वैज्ञानिक विकास है। इन समस्याओं का समाधान भी विज्ञान ने समय-समय पर खोज निकाला है। आज इंसानों की क्षणिक अनुपस्थिति ने एक ऐसा सन्नाटा पैदा किया है, जिसे चिड़ियों की कलरव भर रही है।
केरल के कोझीकोड में मालाबार सिवेट का सड़क पर निकल आना, दिल्ली-एनसीआर की सड़कों पर नीलगायों व सियारों का विचरण करना, देहरादून शहर में हाथी का बेरोकटोक घूमना दिखाता है कि पक्षियों व जंगली जानवरों ने अपने पर्यावास की सीमाएं बढ़ा ली हैं।
आज यमुना नदी का साफ पानी दिल्लीवालों के लिए आकर्षण का केंद्र होने के साथ कौतूहल का विषय भी बना हुआ है। नदी आज यह बताने की कोशिश कर रही है कि संयम व धीमी गति से चलने वाले मानव जीवन से दूसरे जीवों एवं प्राकृतिक संसाधनों को थोड़ी जगह और थोड़ा समय मिल जाता है, जिससे अंतत: मानव जीवन ही फायदे में रहता है।
कोरोना वायरस का प्रकोप एवं इससे बचने के लिए लगाया गया लॉकडाउन हम मनुष्यों को गहरा संदेश भी दे रहा है और शिक्षा भी। जीवन शैली में बदलाव, प्राकृतिक संसाधनों का सतत प्रयोग एवं वैज्ञानिक तरीकों से प्रकृति को पुर्नस्थापित करना ही मानव जीवन को लंबे समय तक इस धरती पर जीवित रख सकती है। दिल्ली में दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) का बॉयोडावर्सिटी पार्क इसी पारिस्थितिकी तंत्र को पुर्नजीवित किए जाने का एक जीता जागता उदाहरण है, जो मानव जाति को कोरोना वायरस जैसे सूक्ष्म जीवाणुओ से बचने की राह दिखाता है एवं प्रेरणा देता है।
अधिकतर सूक्ष्म जीवाणु जंगली जीवों को ही अपनी पोषिता (होस्ट) बनाते हैं। लेकिन प्राकृतिक पर्यावासों में लगातार आ रही गिरावट से नाना प्रकार के जंगली जीव विलुप्त होने के कगार पर है। नतीजन वातावरण में मौजूद वायरस एवं बैक्टीरिया भी अन्य पोषिता की तलाश करते हैं और मूल पोषिता के अभाव में मुनष्य अपनी संख्यानुसार इन सूक्ष्म जीवाणुओं का पोषिता बन जाता है।
शहरी परिवेश में बॉयोडावर्सिटी पार्कों में नैसर्गिक पारिस्थितिकी तंत्रों को पुर्नस्थापित किया गया है, जो न सिर्फ वायु प्रदूषण एवं जल प्रदूषण से लड़ने में सक्षम है, बल्कि नाना प्रकार के जंगली जीवों की अकामतशाह भी है। मैं खुद वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हूं, लेकिन मैं नहीं चाहता कि हमारा पर्यावरण कभी वृद्ध हो। इसके लिए पर्यावरण को निरंतर बायोडायवर्सिटी पार्क के रूप में संजीवनी देनी होगी। यही मनुष्यों को धरती पर अजर-अमर रखने में सक्षम होगी। बस हम सचेत भर हो जाएं तो अभी भी हमारे पास वक्त है।
लेखक फैयाज खुदसर वैज्ञानिक हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इनवायरमेंट मैनेजमेंट ऑफ डिग्रेडेड इकोसिस्टम्स के बायोडायवर्सिटी पार्क्स प्रोग्राम से जुड़े हैं