रितिका बोहरा 
वन्य जीव एवं जैव विविधता

पुस्तक समीक्षा: पत्थलगड़ी, अनसुनी को स्वर

अनुज लुगुन हर उस आवाज को शब्द देते हैं, जिनकी आवाज ताकत के बूते दबाई जा रही है

Raju Sajwan

ऐसे समय में, जब जनपक्षधर पत्रकारिता का निरंतर ह्रास हो रहा है, मुख्यधारा की पत्रकारिता सत्ता की गोद में बैठी हुई प्रतीत होती है, तब कविता की जिम्मेवारी बहुत बढ़ जाती है। खासकर ऐसी कवियों की जो कल्पनाओं को गढ़ने में अपनी कलम को व्यस्त नहीं रखते, बल्कि अपने काल में हो रही घटनाओं के मर्म को शब्द देते हैं। ऐसे ही कवि हैं अनुज लुगुन। अनुज के नाम कई काव्य संग्रह नहीं हैं, लेकिन केवल दो काव्य संग्रह में ही वे कविता के क्षेत्र में अपनी पहचान स्थापित कर चुके हैं। वे प्रतिरोध के कवि हैं। वे वंचितों के कवि हैं।

वे आदिवासियों के कवि हैं। वे उनके कवि हैं, जिनकी नागरिकता पर सवाल उठ रहे हैं। वे उस हर आवाज को शब्द देकर कविता की शक्ल दे देते हैं, जिनकी आवाज को सत्ता या ताकत के बल पर दबाया जा रहा है। अनुज की यह दूसरी किताब है। पहली थी- बाघ और सुगना मुण्डा की बेटी। 2019 में उनकी इस लंबी कविता को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। अब उनकी नई किताब आई है। शीर्षक है, पत्थलगढ़ी। बहुत से लोग पत्थलगढ़ी शब्द से वाकिफ नहीं होंगे, लेकिन जो लोग वाकिफ हैं, वो साफ तौर पर अंदाजा लगा सकते हैं कि अनुज आदिवासियों की एक ऐसी परंपरा की बात कर रहे हैं, जो सत्ता को तो बिल्कुल नहीं सुहाती।

किताब के मुख्य पृष्ठ को पलटते ही अनुज की लिखी पहले पेज की शुरुआती पंक्तियों को ध्यान से पढ़िए। औपनिवेशिक समय में जब शासन ने आदिवासियों से उनकी जमीन का मालिकाना सबूत मांगा तो कचहरी में आदिवासियों के साथ पत्थर भी खड़े हुए। अंग्रेजों की अदालत ने आदिवासियों के पक्ष में खड़े पत्थरों की गवाही को स्वीकार नहीं किया। उनकी जमीन पर सेंध लगाने के लिए अंग्रेजों ने उनके पत्थरों के प्रयोग पर निषेध लगाया। उसके बाद जब-जब आदिवासियों ने अपनी जमीन का दावा किया, तब-तब शासन ने उनकी पत्थलगढ़ी पर निषेध लगाया। सहजीविता और स्वायत्तता को कुचलने की शासन की साजिश बहुत पुरानी है। दुखद है कि आज भी कई आदिवासी गांव पत्थलगढ़ी के आरोप में देशद्रोही माने गए हैं। आज जब फिर से आदिवासियों से उनकी जमीन का पट्टा मांगा जा रहा है तो पत्थर फिर से उनके पक्ष में गवाही के लिए खड़े हुए हैं। इस बार आदिवासियों के साथ केवल पत्थर ही नहीं खड़े हैं, बल्कि उनके साथ कविता भी खड़ी हो गई है।

अनुज के लिखे ये शब्द उनकी प्रतिबद्धता को स्पष्ट करते हैं। वे केवल कवि नहीं हैं, बल्कि अपनी कविता और अपने जज्बे के माध्यम से आदिवासियों के हकोहुकूक के साथ खड़े भी हैं। वह कहते हैं कि कविता केवल वस्तुओं की नक्काशी या देव मूर्तियों को शिल्प उकेरने के लिए नहीं है, बल्कि यह सत्य के पक्ष में गवाही देने वाले की अनगढ़ता को स्वीकारने वाली कविता होगी।

पत्थलगढ़ी शीर्षक वाली यह कविता किताब के 55वें पृष्ठ पर है जिसमें वे फिलिस्तीनी बच्चे का जिक्र करते हैं, जो टैंक के सामने खड़े होकर पत्थर फेंकता है और वह कहते हैं कि दमन तेज हो तो प्रतिरोध स्वभाविक है। वह स्पष्ट करते हैं कि आदिवासी पत्थरबाज नहीं हैं। आदिवासियों के लिए पत्थर उनकी पहचान है। वह लिखते हैं-

“लेकिन हिंदी आदिवासियों की मातृभाषा नहीं है और न ही वे पत्थरबाज हैं उन्होंने तो सिर्फ इतना ही कहा कि पत्थर उनकी पहचान का प्रतीक है यह उन्हें उनके पूर्वजों से विरासत में मिला है उनके लिए पत्थर ही पट्टा है जो न धूप में पिघलता है और न बरसात में गलता है वे पत्थर गाड़ेंगे और अपने होने का दावा करते रहेंगे वे कहते हैं कि पत्थरों पर निषेध लगाकर ही सरकारें उनकी जमीन पर सेंध लगाती हैं”

आदिवासियों की जमीन छीनी जा रही है। जंगल छीने जा रहे हैं। और प्रतिरोध करने वाले आदिवासियों को नक्सली कहकर उनके जीने का अधिकार भी छीना जा रहा है। अनुज की कविताओं में कई जगह सत्ता की इस ‘चाल’ के खिलाफ आक्रोश दिखता है। वह “मेरे गांव में सीआरपीएफ कैम्प लग गया हैं” कविता में लिखते हैं-

“गांव में सीआरपीएफ कैम्प लग गया है यह सामान्य कथन नहीं है यह हमारे गणतंत्र का विशिष्ट कथन है अक्सर यह समाधान-वाचक की तरह इस्तेमाल होता है जब भी शासकों को डर लगता है वे गणतन्त्र के ऊपर मंडरा रहे खतरों की बात करते हैं और भी किसी गांव में सीआरपीएफ कैम्प लगवा देते हैं”

अनुज ऐसे कवि हैं, जो अपने समय पर गहराई से नजर रखते हैं और उस समय हो रही घटनाओं को शब्द देते हैं। शब्द भी ऐसे, जो उद्वेलित करते हैं। इस सदी में साल 2020 को बड़ी शिद्दत के साथ याद किया जाएगा। एक वायरस को दुनिया के एक कौने से चल कर हवाई यात्री के जरिए देश में पहुंचता है और उस वायरस को काबू पाने के लिए पूरे देश को एक साथ बंद कर दिया जाता है। तब लाखों मजदूर भूख से मरने की बजाय कोसों पैदल चलना शुरू कर देते हैं। अनुज तब लिखते हैं -

“पचपन बरस की मजदूरी पेट में नहीं सीने में दुखती है जब गरिमा जंगलों से पलायन कर जाती है तब सड़क पर भीड़ बीमारी बन कर टहलने लगती है”

पैदल चलते मजदूरों के लिए समर्पित इस कविता का शीर्षक “पचपन बरस की मजदूरी” में वह गांवों से हो रहे पलायन और दर्द को यूं बयां करते हैं-

“गांव खाली हो चुका है, किसान नहीं हैं गांव में वे मजदूर हो गए हैं शहर में और जो नहीं गए वे या तो बीमार हैं या समझदार हैं कुछ ने दलाल बनना पसंद किया तो कुछ हथियारबंद हो गए हैं जंगलों में लोगों ने कहा यह सरकार का दोष है सरकार ने कहा यह सरकार का ही दोष है, लेकिन उनका नहीं इस तरह बेबुनियाद बहसों ने उनकी उम्र को धकेला है पचपनवें बरस में”

अनुज भीमा कोरोगांव प्रकरण पर भी कविता लिखते हैं, बरबर राव पर भी। चाहे, नागरिकता को लेकर पूछे जा रहे सवाल हों, जल सत्याग्रह कर रही महिलाएं हों, चाय बागान का मुद्दा हो या स्त्रियों के पर्दे पर उठ रही अंगुलियां हों। अनुज सबकी खबर अपनी कविता से लेते हैं, क्योंकि अब ये खबरें, खबरें नहीं बनतीं।