भारत के जंगल तेजी से आक्रामक विदेशी प्रजातियों से भरते जा रहे हैं, जिससे न केवल जंगल की जैव विविधता खतरे में पड़ गई है बल्कि जानवरों के मौलिक आवास स्थल शाकाहारी और मांसाहारी जीवों को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने में नाकाम साबित हो रहे हैं। आक्रामक प्रजातियां देसी और मौलिक वनस्पतियों को तेजी से बेदखल कर जीवों को भोजन की तलाश में जंगल से बाहर निकलने को विवश कर रही हैं। इससे जीवों की खानपान की आदतें बदल रही हैं, साथ ही मानव बस्तियों में उनके पहुंचने से मानव-पशु संघर्ष भी तेज हो रहा है। नई दिल्ली से हिमांशु एन के साथ तमिलनाडु से शिवानी चतुर्वेदी, असम से अनुपम चक्रवर्ती, केरल से केए शाजी, कर्नाटक से एम रघुराम और उत्तराखंड से वर्षा सिंह ने जंगली जानवरों पर मंडरा रहे अस्तित्व के इस संकट का विस्तृत आकलन किया। इसे चार कड़ी में प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में आपने पढ़ा: जंगली जानवरों को नहीं मिल रहा उनका प्रिय भोजन । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा: भूखे जानवरों और इंसानों के बीच बढ़ा टकराव । पढ़ें अगली कड़ी -
आहार में हानिकारक बदलाव
पसंदीदा या पारंपरिक भोजन की कमी एवं खाद्य और पोषण संबंधी विकल्पों की तलाश जंगली जानवरों के आहार में बदलाव ला रही है। उत्तराखंड की हर्षिल घाटी के मोहन सिंह कहते हैं कि लगभग एक दशक पहले बंदर और भालू कभी भी खेतों में फसल बर्बाद करने की हिम्मत नहीं करते थे। वह कहते हैं कि अब सुबह-सुबह जानवर सेब के बगीचों को चट करते हुए खेतों में घुस जाते हैं। पहले सेब को उनके आहार का हिस्सा नहीं माना जाता था क्योंकि वे कुट्टू को पसंद करते थे। वह बताते हैं कि मेरे पिता की पीढ़ी के किसान विशेष रूप से भालू के लिए अनाज उगाते थे, लेकिन अब वे सेब पर हमला करते हैं। मोहन सिंह का कहना है कि आहार में बदलाव भोजन की कमी के कारण जानवरों के बीच खाने के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ने का स्पष्ट संकेतक है। वह कहते हैं कि मादा भालू अक्सर अपने बच्चों के साथ आती है और बंदर कम से कम 25-30 के झुंड में खेतों में आते हैं। इससे फलों की भारी तबाही होती है और लगभग 25-30 प्रतिशत का नुकसान होता है। ग्रामीणों का कहना है कि जो जंगली शाकाहारी जीव वन क्षेत्रों तक ही सीमित थे, अब आमतौर पर भोजन के लिए बाहर निकलते देखे जाते हैं।
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मोहन सिंह के अनुसार, “नवंबर में जब वन क्षेत्र सूख जाते हैं, तब हिमालयी गोरल, भौंकने वाले हिरण और अन्य जानवर सरसों के पौधों को खाने खेतों में आते हैं। भरल, गोराल और थार भी इस क्षेत्र में नियमित रूप से आने लगे हैं।” हालांकि, लूथरा इस धारणा का खंडन करते हैं कि भोजन की कमी वन्यजीवों के घुसपैठ का एकमात्र कारण है। वह कहते हैं, “मानव बस्तियों में वन्यजीवों की घुसपैठ नई घटना नहीं है। यह हमेशा से होती आ रही है। जब पास में ही अतिरिक्त ताकत प्रदान करने वाला भोजन उपलब्ध होता है तो वन्यजीव विशेष रूप से हाथी, जंगलों के अंदर भोजन की परवाह किए बिना उस पर टूट पड़ते हैं।”
पारंपरिक भोजन की अनुपस्थिति के कारण आक्रामक प्रजातियों को खाने के लिए मजबूर होने वाले बड़े शाकाहारी जीवों की सेहत भी प्रभावित हो रही है। कश्मीर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और वनस्पतिशास्त्री मंजूर शाह कहते हैं, “हमने हंगुल के मल के नमूनों में आक्रामक प्रजातियों की उपस्थिति पाई है जो दर्शाता है कि जानवर का आहार बदल गया है। यह स्पष्ट है कि पारंपरिक वनस्पति का स्थान आक्रामक प्रजातियों ने ले लिया है।”
भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के वैज्ञानिक बिवाश पांडव का कहना है कि अध्ययन में पाया गया है कि शाकाहारी जानवर आक्रामक प्रजातियों को खाते हैं। यह उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है क्योंकि यह जहरीला है और जानवरों के यकृत को प्रभावित कर रहा है। वह कहते हैं, “स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का गहराई से आकलन और अधिक अध्ययन की जरूरत है। लेकिन एक स्पष्ट संकेत है कि शाकाहारी जीवों की पसंदीदा आहार तक पहुंच नहीं है। वे भोजन की कमी के कारण आक्रामक प्रजातियां खा रहे हैं।” पांडव कहते हैं कि शाकाहारी जीव बरमूडा घास (साइनोडोन डेक्टाइलॉन) या सुई घास (क्राइसोपोगोन एसिकुलैटिस) खाना पसंद करते हैं लेकिन इसकी जगह आक्रामक प्रजातियों ने ले ली है।
जोरहाट के असम कृषि विश्वविद्यालय के वनस्पतिशास्त्री और वरिष्ठ वैज्ञानिक ईश्वर चंद्र बरुआ का कहना है कि 2011 और 2013 के बीच उन्होंने मवेशियों पर मिमोसा प्रजाति के प्रभाव का अध्ययन किया और चौंकाने वाले परिणाम पाए। उन्होंने बताया, “गोलाघाट जिले के गन्ना उत्पादक क्षेत्र में जहां काजीरंगा की दो प्रमुख श्रृंखलाएं स्थित हैं, मिमोसा की थोर्नलेस किस्म बेतहाशा फैल गई। इससे मवेशियों को किसी प्रकार की एलर्जी हो गई, जिससे अंततः उनकी मौत हो गई।” मुंगी का कहना है कि आक्रामक प्रजातियों को खाने से छोटे शाकाहारी जीवों का शरीर विज्ञान को कमजोर हो सकता है। भारत में आक्रामक पौधों की प्रजातियों के अत्यधिक सेवन के कारण चीतल की मौत के मामले सामने आए हैं।
व्यापक घनत्व
आक्रामक प्रजातियों के प्रबंधन और प्रसार के लिए मजबूत और प्रभावी नीति के अभाव में जंगलों की स्थिति खराब हो रही है क्योंकि वन क्षेत्रों में तेजी से आक्रामक पौधों की समरूप प्रजातियां पनप रही हैं। बड़े पैमाने पर वनस्पति और जैव विविधता के विनाश के परिणामस्वरूप वन पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं प्रदान करने में विफल हो रहे हैं। 2004 में संरक्षण के मुद्दों पर काम करने वाले असम स्थित गैर-लाभकारी संगठन अरण्यक के अध्ययन के अनुसार, मवेशियों के लिए जहरीले माने जाने वाले सियाम खरपतवार का घनत्व मानस पार्क के घास के मैदानों में आक्रामक प्रजातियों में सबसे अधिक पाया गया। यहां इनका घनत्व 9.4 से 15.1 तक प्रति वर्गमीटर था। असम कृषि विश्वविद्यालय के वनस्पतिशास्त्री बरुआ ने अपने अध्ययन से संकेत दिया है कि 2013 और 2023 के बीच अकेले गोलाघाट जिले में इसमें 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसी तरह लैंटाना ने 87,224 हेक्टेयर में फैले बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान के लगभग 64,000 हेक्टेयर यानी लगभग 75 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा कर लिया है। आक्रामक पौधों की प्रजातियों का घनत्व अलग-अलग हिस्सों में 20 प्रतिशत से 80 प्रतिशत तक होता है।
दिसंबर 2023 को कर्नाटक के वन मंत्री ईश्वर खंड्रे ने विधानसभा को सूचित किया कि राज्य के 38 प्रतिशत जंगल आक्रामक खरपतवारों से भरे हुए हैं। उन्होंने कहा कि बांदीपुर टाइगर रिजर्व सबसे अधिक प्रभावित है और इसका 50 प्रतिशत क्षेत्र खरपतवार से ढका हुआ है। 64,339 हेक्टेयर में फैले नागरहोल टाइगर रिजर्व में 30-40 प्रतिशत में खरपतवार मौजूद है जबकि 26,051 हेक्टेयर में फैले बन्नेरघट्टा नेशनल पार्क के 20-25 प्रतिशत क्षेत्रफल में इसका फैलाव है। मंत्री ने कहा कि लैंटाना कैमारा, सेन्ना स्पेक्टाबिलिस, क्रोमोलाएना ओडोरेटा और मिकानिया माइक्रान्था जैसी प्रजातियां प्रमुख रूप से मौजूद हैं। नवंबर 2021 में तमिलनाडु ने विशेषज्ञों की एक समिति गठित की, जिसने पाया कि राज्य के वन क्षेत्रों में 196 विदेशी आक्रामक पौधों की प्रजातियां मौजूद हैं। इनमें से 23 प्रजातियों की आक्रामकता सबसे अधिक थी। इन 23 प्रजातियों में से 7 को सबसे अधिक हानिकारक के रूप में वर्गीकृत किया गया है और यह राज्य की 3,18,041 हेक्टेयर वन भूमि में फैली हैं।
मुंगी का कहना है कि काजीरंगा, कॉर्बेट नेशनल पार्क, दुधवा, पीलीभीत जैसे बाघ अभयारण्य आक्रामक प्रजातियों से भरे हैं जिसने खाद्य श्रृंखला पर खतरा मंडरा रहा है। उनका कहना है, “कर्नाटक के बिलिगिरि रंगनाथ स्वामी टेंपल टाइगर रिजर्व में प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा सभी लैंडस्कैप में 60-70 प्रतिशत मौजूद है।” राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए)और डब्ल्यूआईआई के सर्वेक्षण से पता चला है कि सवाई मानसिंह जैसे बाघ अभयारण्यों के बफर क्षेत्र के 90 प्रतिशत में आक्रामक प्रजातियां का प्रसार है। इनका घनत्व 20 पौधे प्रति 30 मीटर है। लैंटाना वह आक्रामक प्रजाति है जो 1807 के आसपास भारत में लाई गई थी और तब से इसने 50 प्रतिशत से अधिक भारतीय जंगलों पर कब्जा कर लिया है। यह देसी पौधों की विविधता को व्यापक और बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाने व पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यप्रणाली को बदलने की क्षमता के कारण भारत की सबसे आक्रामक प्रजातियों में से एक बन गई है।
कर्नाटक के मैसूर में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के पारिस्थितिकीविज्ञानी और संरक्षणवादी एमडी मधुसूदन का तर्क है कि यदि भोजन की कमी इतनी गंभीर थी तो भारतीय वनों में जंगली जानवरों की आबादी में गिरावट देखी जाती। वह आगे कहते हैं, “वन क्षेत्रों में आक्रामक प्रजातियां कोई नई घटना नहीं हैं और वर्षों से अस्तित्व में हैं। सरकारी आंकड़ों व गणना से पता चलता है कि पशु आबादी समृद्ध या स्थिर है।” मुंगी का तर्क है कि इनके प्रभाव स्पष्ट होने में अक्सर दशकों लग जाते हैं। वह कहते हैं, “ये प्रजातियां समय के साथ फैलती गई हैं और अब इसका प्रभाव दिखाई देने लगा है।” एक उदाहरण का हवाला देते हुए वह कहते हैं कि अध्ययनों से पता चला है कि राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के पास स्थानीय लोगों ने लैंटाना कैमारा और प्रोपोसिस जूलीफ्लोरा के पौधे लगाए क्योंकि यह भीषण गर्मी के महीनों के दौरान हरा रहता था और मवेशियों को फल देते थे। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसने प्राकृतिक घास, औषधीय पौधों की वृद्धि और आजीविका को प्रभावित किया क्योंकि इससे भूजल स्तर कम हो गया। उनका कहना है, “स्थानीय पर्यावरण की मूलभूत पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं गंभीर रूप से प्रभावित हुईं हैं।”
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