वन्य जीव एवं जैव विविधता

देशी प्रजातियों पर विदेशी हमला: लीवर, एलर्जी और सांस की बीमारी का शिकार हो रहे हैं जंगली जानवर

आक्रामक पौधे किसी भी शाकाहारी जीव के भोजन की मुख्य जरूरत नहीं है। फिर भी शाकाहार विदेशी पौधों को खाने को मजबूर हैं

DTE Staff

लेखक: निनाद मुंगी

भू-उपयोग के बड़े परिवर्तनों के कारण पारिस्थितिक तंत्र का विघटन, विखंडन और क्षरण हुआ है। भारत में दो-तिहाई प्राकृतिक क्षेत्रों को पौधों की आक्रामक प्रजातियों से खतरा होने के कारण जैव विविधता पर उनका प्रभाव स्पष्ट है।

आक्रामक पौधे किसी भी शाकाहारी जीव के भोजन की मुख्य जरूरत नहीं है। फिर भी बड़े आकार के शाकाहारी जीवों को आंशिक रूप से विदेशी पौधों को खाते हुए देखा जाता है, खासकर शुष्क मौसम में। मसलन, गैंडे मिकानिया माइक्रान्था, गौर क्रोमोलाएना ओडोरेटा और सांभर लैंटाना कैमारा खाते हैं।

अपने बड़े आकार, ज्यादा आहार और उच्च घनत्व से मेगाहर्बिवोर्स आक्रामक पौधों सहित बड़ी मात्रा में वनस्पति को हटा देते हैं और नए पौधों के विकास के लिए जगह बनाते हैं। इस खाली जगह का उपयोग देसी और आक्रामक दोनों पौधों द्वारा किया जाता है।

बाढ़ की मैदानी घास भूमि और आर्द्र सवाना (जैसे काजीरंगा, मानस, वाल्मिकी, दुधवा) जैसी जगह में मेगाहर्बिवोर्स ने आक्रामक पौधों के आवरण को कम कर दिया है। इसके विपरीत शुष्क सवाना और वनों (जैसे बांदीपुर, मुदुमलाई, सत्यमंगलम) में जहां लैंटाना कैमारा और प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा जैसे आक्रामक पौधों का प्रभुत्व है (40 प्रतिशत से अधिक), वहां मेगाहर्बिवोर्स आक्रामक फैलाव से जुड़े हैं।

इन क्षेत्रों में मेगाहर्बिवोर्स को स्पष्ट रूप से देसी पौधों को खाते देखा जाता है, जिससे देसी पौधों पर दबाव बढ़ जाता है जो आक्रामक पौधों से प्रतिस्पर्धा के कारण पहले से ही कम हो चुके हैं। हाथी जैसे कुछ शाकाहारी जानवर प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा जैसे आक्रामक पौधों के फलों को चुनकर खाते हैं और इसके बीजों को फैलाते हैं, जिससे उनके विस्तार में मदद मिलती है।

इन क्षेत्रों में आक्रामक पौधों के प्रबंधन और प्राकृतिक तंत्र की बहाली की तत्काल आवश्यकता है। इससे जहां समय-समय पर आक्रामक पौधों को हटाया जा सकता है, वहीं मेगाहर्बिवोर्स से सकारात्मक प्रभाव को भी भुनाया जा सकता है। छोटे और मध्यम आकार के हर्बिवोर्स सर्वाधिक प्रभावितों में शामिल हैं क्योंकि ये मुख्य रूप से छोटे पौधे, घास और झाड़ियों पर आश्रित रहते हैं। भारत के लगभग सभी वन क्षेत्रों में इनमें भारी कमी आई है।

आक्रामक प्रजातियों के अत्यधिक सेवन से जंगली व पालतू जानवरों में लीवर को नुकसान, गंभीर एलर्जी और कई बार सांस के विकार देखे गए हैं। बहुत से संरक्षित क्षेत्रों में निर्दिष्ट घास के मैदानों को आक्रमण वाले क्षेत्रों के बीच चारा हॉटस्पॉट के रूप में प्रबंधित किया जाता है। ऐसे डिजाइनर आवास अस्थायी रूप से उपयोगी होते हैं लेकिन टिकाऊ पारिस्थितिकी तंत्र के लिए रामबाण नहीं हैं। वैज्ञानिक सोच और भागीदारी वाले दृष्टिकोण का उपयोग करके देसी पारिस्थितिकी तंत्र की दीर्घकालिक और व्यापक बहाली आक्रमक प्रजातियों के प्रभावों को कम करने में वैश्विक स्तर पर प्रभावी असरदार हुई है। पारिस्थितिकी की बहाली के लिए भारत को अपने सामाजिक-पारिस्थितिक परिदृश्य के अनुरूप इसी दृष्टिकोण को अपनाने की आवश्यकता है।

(लेखक डेनमार्क स्थित आरहस विश्वविद्यालय में पोस्टडॉक्टरल फेलो हैं)