भारत के जंगल तेजी से आक्रामक विदेशी प्रजातियों से भरते जा रहे हैं, जिससे न केवल जंगल की जैव विविधता खतरे में पड़ गई है बल्कि जानवरों के मौलिक आवास स्थल शाकाहारी और मांसाहारी जीवों को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने में नाकाम साबित हो रहे हैं। आक्रामक प्रजातियां देसी और मौलिक वनस्पतियों को तेजी से बेदखल कर जीवों को भोजन की तलाश में जंगल से बाहर निकलने को विवश कर रही हैं। इससे जीवों की खानपान की आदतें बदल रही हैं, साथ ही मानव बस्तियों में उनके पहुंचने से मानव-पशु संघर्ष भी तेज हो रहा है। नई दिल्ली से हिमांशु एन के साथ तमिलनाडु से शिवानी चतुर्वेदी, असम से अनुपम चक्रवर्ती, केरल से केए शाजी, कर्नाटक से एम रघुराम और उत्तराखंड से वर्षा सिंह ने जंगली जानवरों पर मंडरा रहे अस्तित्व के इस संकट का विस्तृत आकलन किया। इसे चार कड़ी में प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में आपने पढ़ा: जंगली जानवरों को नहीं मिल रहा उनका प्रिय भोजन । आज पढ़ें दूसरी कड़ी -
नवंबर 2023 में प्रकाशित एक अध्ययन “डिस्ट्रीब्यूशन, ड्राइवर्स एंड रेस्टोरेशन प्रायोरिटीज ऑफ प्लांट इनवेशंस इन इंडिया” इस चिंताजनक तथ्य को उजागर करता है कि बेहद चिंतित करने वाली आक्रामक प्रजातियां भारत के 66 प्रतिशत प्राकृतिक तंत्र में गहरी पैठ बना चुकी हैं। पश्चिमी घाट, दक्षिण पूर्वी घाट और मध्य उच्च भूमि (सेंट्रल हाइलैंड्स) में इनका फैलाव व्यापक है। अध्ययन के सह-लेखक निनाद मुंगी का कहना है कि हालांकि अध्ययन कम हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि लगभग 66 प्रतिशत या दो तिहाई जीवों का भोजन इनसे प्रभावित हो रहा है।
फॉरेस्ट इकोलॉजी एंड मैनेजमेंट जर्नल में मार्च 2023 में प्रकाशित “मल्टीपल इनवेशंस एसर्ट कंबाइंड मैग्नीफाइड इफेक्ट्स ऑन नैटिव प्लांट्स, सॉयल न्यूट्रिएंट्स एंड आल्टर्स द प्लांट हर्बिवोर इंट्रेक्शन इन ड्राई ट्रॉपिकल फॉरेस्ट” अध्ययन में कहा गया है कि विदेशी पौधों की आक्रामक प्रजातियां शुष्क उष्णकटिबंधीय वनों में देसी पौधों, मिट्टी के पोषक तत्वों पर संयुक्त रूप से व्यापक प्रभाव डालती हैं और पौधे व शाकाहारी जीवों के अंतरर्संबंधों को बदल देती हैं।
उदाहरण के लिए पोगोस्टेमॉन बेंघालेंसिस को मिट्टी की गुणों में बदलाव के लिए जाना जाता है, जिससे देसी पौधों की प्रचुरता कम हो जाती है और चीतल, गौर और सांभर हिरण जैसे घास आश्रित कई शाकाहारी जानवरों के लिए चारे की उपलब्धता घट जाती है। अध्ययन के अनुसार, बाघ के आवास में कई प्रजातियां मिट्टी के पोषक तत्वों को प्रभावित करती हैं जिससे विविध पौधों की प्रचुरता में भारी कमी आ सकती है।
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अध्ययन कहता है, “पारिस्थितिक तंत्रों के महत्वपूर्ण घटक घास और जड़ी-बूटियों की प्रचुरता सबसे अधिक प्रभावित हुई है। आंवला या जंगल के सामान्य पेड़ साल तक का विकास बमुश्किल हुआ।” पर्यावरण को अभूतपूर्व नुकसान पहुंचाने के अलावा इनका भारी आर्थिक नुकसान भी है।
बायलॉजिकल इनवेशंस जर्नल में अप्रैल 2022 में प्रकाशित अध्ययन “मैसिव इकॉनोमिक कॉस्ट्स ऑफ बायोलॉजिकल इनवेशंस डिस्पाइट वाइडस्प्रेड नॉलेज गैप्स: ए ड्यूल सैटबैक फॉर इंडिया” का मानना है कि 1960 से 2020 के बीच आक्रामक विदेशी प्रजातियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को 8.3 खरब रुपए से 11.9 खरब रुपए के बीच नुकसान पहुंचाया है। यह नुकसान तेलंगाना के सकल घरेलू उत्पाद (13 खरब रुपए) से थोड़ा ही कम है। यह हानि अमेरिका के बाद सबसे अधिक है।
मानव-पशु टकराव
देसी पौधों की जगह लेकर आक्रामक प्रजातियां जानवरों के आवास नष्ट करती हैं, जिससे वन क्षेत्र के भीतर जानवरों के आवागमन में बाधा उत्पन्न होती है। केरल वन विभाग के हालिया (मई 2023) अध्ययन के अनुसार, आक्रामक पौधों की प्रजातियां राज्य के वन क्षेत्रों विशेष रूप से वायनाड, पलक्कड़ और इडुक्की में तेजी से फैल रही हैं और धीरे-धीरे जंगली जानवरों के मूल आवासों और भोजन के मैदानों को नष्ट कर रही हैं। आक्रामक पौधों की वजह से भोजन की भारी कमी के कारण राज्य के अधिकांश वन क्षेत्रों में हाथियों और बाघों की आबादी में कमी आई है।
केरल वन अनुसंधान संस्थान (केएफआरआई) के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक टीवी सजीव का कहना है कि दक्षिण भारत के जंगलों में खाद्य सुरक्षा आक्रामक प्रजातियों के प्रसार के कारण खतरे में है। जुलाई 2023 में वन विभाग और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ द्वारा प्रकाशित “द एलिफेंट पॉपुलेशन एस्टीमेशन रिपोर्ट ऑफ केरल” रिपोर्ट में कहा गया है कि आक्रामक प्रजातियां मेगाहर्बिवोर आबादी को सीधे तौर पर खतरे में डाल रही हैं।
इसमें पाया गया है कि 2018 में आई बाढ़ के कारण सेन्ना, मिकानिया, लैंटाना और यूपेटोरियम जैसी आक्रामक पौधों की प्रजातियों का व्यापक प्रसार हुआ, जिससे हाथियों के आवासों में काफी गिरावट आई। आवासों के सिकुड़ने से हाथियों को जंगलों के आसपास की कृषि भूमि से भोजन तलाशना पड़ता है जिससे मानव-हाथी संघर्ष होता है। रिपोर्ट में चेताया गया है कि जैव विविधता के संरक्षण के लिए आक्रामक विदेशी प्रजातियों का प्रबंधन जरूरी है। ऐसा करके ही शाकाहारी जीवों की आबादी के आवास स्थल बहाल होंगे।
मई 2023 में केरल में पर्यावरण पर काम करने वाले गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) फर्न्स नेचर कंजर्वेशन सोसाइटी और केरल वन विभाग द्वारा किए गए एक संयुक्त अध्ययन से पता चला कि आक्रामक प्रजातियां अब पश्चिमी घाट के सबसे प्रतिष्ठित वन्यजीव आवासों में फैल गई हैं।
ये प्रजातियां स्थानीय वनस्पतियों की जगह लेकर हाथियों, हिरणों, जंगली भैंसों और टाइगरों के आवासों को नष्ट कर रही हैं। केरल के जेनु कुरुबा समुदाय के नेता नरसिम्हा अपने जीवन के अनुभव को याद करते हुए बताते हैं, “1990 के दशक में नीलगिरी बायोस्फेयर रिजर्व गौर, चीतल और चार सींग वाले मृग जैसे कई शाकाहारी जानवरों का चारागाह था। ये चराई क्षेत्र टाइगर, जंगली कुत्तों और तेंदुओं के लिए शिकार के मैदान बन जाते थे। यह दृश्य हमने आंखों से देखे हैं।”
जंगलों को करीब से देखने वाले वायनाड जिले में स्थित नूलपुझा गांव के ग्रामीण कहते हैं कि 2000 के दशक के मध्य तक पार्थेनियम घास के मैदानों पर दिखाई देने लगा, लेकिन फिर भी वन्यजीव चरने आते रहे, भले ही उनकी संख्या कम हो। भोजन और आवास के नुकसान की आशंका को देखते हुए लगभग 1,200 ग्रामीणों ने विदेशी पौधों की प्रजातियों को हटाने के लिए वन विभाग के साथ हाथ मिलाया।
नरसिम्हा कहते हैं, “2017 तक बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान (बीएनपी) में लैंटाना से मुक्त कोई जगह नहीं बची। ज्यादातर घास के मैदान खत्म हो गए हैं। वहां रहने वाले शाकाहारी जीव या तो पलायन कर गए हैं या नष्ट हो गए। अब शिकार करने वाले जानवरों को स्वतंत्र रूप से घूमते देखना संभव नहीं है। लैंटाना के फैलाव से पहले ऐसा नहीं था।”
वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) द्वारा 2002 में किए गए अध्ययन “सेलिएंट स्ट्रेंजर्स : इरेडिकेशन ऑफ मिमोसा इन कांजीरंगा नेशनल पार्क, असम” में उत्तरपूर्व के एक उदाहरण से भी इसे समझा जा सकता है। इस अध्ययन में पहली बार नदी के पास मिमोसा प्रजाति (मिमोसा इनविजा और मिमोसा इनविजा इनरमिस) के फैलाव को पहचाना गया। यह नदी पार्क की सीमाओं के साथ बहती है। चूंकि इसका फैलाव एक दशक से भी अधिक समय तक जारी रहा, इसलिए यह अपने चरम पर पहुंच गई। इसने कांजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान की बगोरी रेंज का 56 प्रतिशत हिस्सा अपनी जद में ले लिया।
काजीरंगा में सेंटर फॉर वाइल्डलाइफ रिहेबिलिटेशन एंड कंजरवेशन के प्रमुख एवं वन्यजीव जीवविज्ञानी और डब्ल्यूटीआई के संयुक्त निदेशक रथिन बर्मन कहते हैं, “हाथी घास वाले मैदान गैंडे और अन्य जानवरों के आवागमन के लिए गलियारे का काम करते थे। अब ये अभेद्य हो गए हैं।”
संरक्षणवादी गिरिधर कुलकर्णी बताते हैं कि कुछ क्षेत्रों में इनका घनत्व इतना अधिक है कि हाथियों का झुंड भी छिप जाता है और जानवरों की आवाजाही बाधित हो जाती है। फॉरेस्ट इकोलॉजी एंड मैनेजमेंट जर्नल में मार्च 2023 में प्रकाशित अध्ययन में भी कहा गया है कि विदेशी आक्रामण प्रजातियों की प्रचुरता और घनत्व जानवरों की आवाजाही को रोकती है। इसमें उदाहरण देकर समझाया गया है कि पोगोस्टोमोन बेंघालेंसिस हिमालय की तलहटी और तराई क्षेत्रों में बहुत से शाकाहारी जीवों को देखने में रुकावट पैदा करती है। जुलाई 2023 में प्रकाशित शोधकर्ताओं के अध्ययन से पता चलता है कि जिन क्षेत्रों में झाड़ियों वाले विदेशी पौधे 40 प्रतिशत से अधिक हैं, वहां मेगाहर्बिवोर्स की उपस्थिति कम थी। शोधकर्ताओं ने पाया कि विशेष रूप से पश्चिमी घाट में जैव विविधता वाले हॉटस्पॉट पर आक्रामक प्रजातियों ने इस हद तक अतिक्रमण कर लिया है कि एशियाई हाथी के लिए मुश्किलें खड़ी हो गई हैं।
नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन जर्नल में प्रकाशित अध्ययन “मेगाहर्बिवोर्स प्रोवाइड बायोटिक रेसिस्टेंस अगेंस्ट एलियन प्लांट डोमिनेंस” भी संकेत देता है कि मेगाहर्बिवोर्स के उच्च घनत्व को छोटे और अतिक्रमण वाले क्षेत्रों में सीमित रखने से स्थानीय पौधे कम हो सकते हैं। इससे आक्रामक प्रजातियों का दायरा बढ़ सकता है, जिसके फलस्वरूप स्थानीय पौधों को दोबारा पनपने के लिए समय मिलना बंद हो सकता है।
इतना ही नहीं, जब आधुनिक संरक्षित क्षेत्र मानवीय गतिविधियों से घिर जाते हैं, तब मेगाहर्बिवोर्स का रैंजिंग पैटर्न बाधित हो जाता है और अतिक्रमित संरक्षित क्षेत्रों में इसका प्रभाव दीर्घकालिक रहता है। इस प्रकार के बदलावों के कारण जानवरों को या तो नापसंद आक्रामण प्रजातियों को खाने को मजबूर होना पड़ता है, जिससे उनकी भोजन संबंधी आदतें पूरी तरह बदल जाती हैं या फिर भोजन की तलाश में जंगल से बाहर निकलना पड़ता है जिससे मानव-पशु टकराव अनिवार्य हो जाता है।
डेनमार्क स्थित आरहस विश्वविद्यालय में पोस्टडॉक्टरल फेलो निनाद मुंगी उस अध्ययन का हिस्सा रहे हैं जो कहता है कि आक्रामक प्रजातियों में कम पोषक तत्व और हानिकारक रसायन तुलनात्मक रूप से इनके स्वाद को कमतर करते हैं। वह कहते हैं कि आक्रामक विदेशी पौधों के हानिकारक प्रभावों के कारण पहले से ही खत्म हो चुके देसी पौधों को शाकाहारी जीवों के दबाव का सामना करना पड़ता है। अध्ययन में कहा गया है कि चारे की कमी से अंतत: शाकाहारी जानवरों को तितर-बितर होने और भोजन खोजने को मजबूर होना पड़ता है, जिससे अक्सर पास के कृषि क्षेत्रों में फसल बर्बाद हो जाती है। वायनाड स्थित वन पशुचिकित्सक अरुण जखारिया कहते हैं कि हाथी, चीतल और साही को छोड़कर अधिकांश जंगली शाकाहारी जानवर विदेशी पौधों की पत्तियां खाने से बचते हैं। भोजन की तलाश में जानवरों को मानव आवासों की तरफ आना पड़ता है।
कर्नाटक राज्य वन विभाग के वन अधिकारी इस बात की पुष्टि करते हैं कि लैंटाना का प्रसार जंगलों में घास के मैदानों के नुकसान का एक निश्चित कारण है, जिसके चलते शिकार करने वाले जानवर अपने निवास स्थान से दूर चले जाते हैं और ज्यादातर समय इंसानी बस्तियों में घूमते रहते हैं। सजीव बताते हैं कि हाथी, टाइगर और जंगली सूअरों का खेतों पर हमला केवल केरल में ही नहीं बढ़ा है बल्कि पड़ोसी नागरहोल और कर्नाटक के बांदीपुर एवं तमिलनाडु के मदुमलाई में भी ऐसे हमले बढ़े हैं। के गुडी फॉरेस्ट रिजर्व में ग्राम वन समिति (वीएफसी) नागरहोले सदस्य भीमप्पा कहते हैं, “2006 से 2011 के बीच समिति ने ऐसे 41 मामले रिपोर्ट किए हैं जब वन्यजीवों ने मानव बस्ती में घुसपैठ की।” वह बताते हैं कि इसके बाद से नागरहोले राष्ट्रीय उद्यान से लगे इलाकों में वन्यजीवों की घुसपैठ बढ़ी है। पिछले तीन सालों में हर साल औसतन 100-120 घटनाएं ऐसी हो रही हैं। इन सभी घटनाओं में जानवर भोजन की तलाश में मानव बस्ती में पहुंचे हैं।
भोजन की उपलब्धता में कमी केवल शाकाहारी जानवरों तक ही सीमित नहीं है। शोध से संकेत मिलता है कि वनस्पति पर दबाव बढ़ने के कारण चारे की कमी हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप शाकाहारी जानवरों की आबादी में गिरावट आती है। लंबे समय में शाकाहारी जानवरों की आबादी में इस तरह की गिरावट से बाघ और तेंदुए जैसे उनके प्रमुख शिकारी जानवरों की संख्या भी कम होगी। मैसूरु रेंज के वरिष्ठ वन्यजीव अधिकारी संजय गुब्बी कहते हैं, “तेंदुए जैसे बड़े स्तनधारी भोजन की तलाश में मानव बस्तियों में प्रवेश कर रहे हैं। उनके आवास स्थलों को नुकसान, वनस्पति में बदलाव और आबादी में वृद्धि का नतीजा मानव से उनके संघर्ष के रूप में देखने को मिलता है।” कुमार कहते हैं, “शिकारी जानवर मानव बस्तियों में शिकार जानवरों का पीछा करते हैं और मनुष्यों व पालतू जानवरों, विशेषकर कुत्तों पर हमला करते हैं।”
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