वन्य जीव एवं जैव विविधता

क्या घड़ियाल संरक्षण की दिशा में सही काम कर रहे हैं हम?

Shashi Shekhar

सतकोसिया घड़ियाल परियोजना की सफलता को ले कर ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने ट्वीट तक किए, क्योंकि इस इलाके में  46 साल बाद, जून 2021 में 28 बेबी घड़ियाल देखने को मिले थे, लेकिन यह खुशी ज्यादा देर तक टिकी नहीं। कुछ हफ्ते बाद ही सारे बेबी घड़ियाल सतकोसिया इलाके से गायब हो गए। स्थानीय लोगों के आरोप और एक्सपर्ट्स राय के मुताबिक, वन विभाग के अधिकारियों द्वारा पावर बोट और ड्रोन कैमरा जैसी मशीनरी के उपयोग के कारण यह समस्या पैदा हुई।

भारत में घड़ियाल संरक्षण के वेटरन एक्सपर्ट्स माने जाने वाले डॉक्टर लाला ए.के. सिंह भी मानते हैं कि आज के वन अधिकारी और वनकर्मी पुरानी बोट की जगह पावर बोट का इस्तेमाल करना चाहते हैं, जो निश्चित तौर पर उन सभी 28 बेबी घड़ियाल के गायब होने की वजह बना होगा। इसके बजाय वनकर्मी देशी नावों और दूरबीन का उपयोग कर सकते थे।

कब होंगे रेड से ग्रीन?

सालों से ओडिशा एकमात्र ऐसा राज्य रहा है, जहां भारतीय मगरमच्छों की सभी तीन प्रजातियां, घड़ियाल, मगर और खारे पानी के मगरमच्छ पाए जाते हैं। यही वजह रही कि 1975 से राष्ट्रीय मगरमच्छ संरक्षण परियोजना ओडिशा में ही शुरू की गई। ओडिशा ने मगरमच्छों के संरक्षण के लिए पहले तीन वन्यजीव अभ्यारण्य घोषित किए।

1990 तक, महानदी में लगभग 600 घड़ियाल छोड़े गए थे, लेकिन बांस राफ्टिंग, नरसिंहपुर और बौध के बीच चलने वाली बड़ी नावें, मछली पकड़ने के काम आदि की वजह से नुकसान हुआ। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर (आईयूसीएन) ने 1971 में भारतीय घड़ियाल को रेड लिस्ट में डाल दिया था, लेकिन भारत में घड़ियाल संरक्षण की दिशा में काफ़ी काम हुए बहुत सारे रिसर्च हुए।

इसके लिए हैदराबाद में एक विशिष्ट संस्था बनाई गई। 46 वर्षों के अथक प्रयास और सतकोसिया के साथ आशा की एक नई किरण जगी है कि शायद अब घड़ियाल को रेड से ग्रीन लिस्ट में डाल दिया जाए। फिर भी, अभी तक ऐसा नहीं हो सका है। जाहिर है, इसके लिए सतत निगरानी और लांग टर्म स्ट्रेटजी बनाने की आवश्यकता होगी।

डॉ. लाला ए.के. सिंह एक प्रख्यात वन्यजीव शोधकर्ता हैं. वे भारत में मगरमच्छ अनुसंधान परियोजनाओं के संस्थापकों में से एक माने जाते हैं और राष्ट्रीय चंबल घड़ियाल परियोजना के संस्थापक सदस्य हैं। डाउन टू अर्थ ने उनसे भारत में घड़ियाल परियोजना से संबंधित मुद्दों पर विस्तार से बात की।

उनके मुताबिक, 1970 के दशक में, भारतीयों के लिए क्रोकोडाइल विदेशी मुद्रा अर्जित (चमड़े का व्यापार) करने का एक जरिया भर था। धीरे-धीर हमने इनके पर्यावरणीय महत्व को समझा और फ़िर इसे वन्यजीव अधिनियम, 1972 की अनुसूची- I में डाल दिया, ताकि उनका कानूनी संरक्षण हो सके।

1975 से अब तक

डॉ. लाला ए.के. सिंह कहते हैं,“हमें खुशी है कि 1975 में जब प्रोजेक्ट शुरू हुआ, तब उसके पांच से छह वर्षों के बाद ही मगरमच्छ संरक्षण परियोजना, अनुसंधान, प्रशिक्षण, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, समुद्री कछुओं और मैंग्रोव संरक्षण की दिशा में ये प्रोजेक्ट एक बड़ी सफलता बन गई।”

1978 में हैदराबाद में केंद्रीय मगरमच्छ प्रजनन और प्रबंधन प्रशिक्षण संस्थान (सेंट्रल क्रोकोडाइल ब्रीडिंग एंड मैनेजमेंट ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट: सीसीबीएमटीआई) की स्थापना की गई. 1971 में, भारत सरकार ने दिल्ली चिड़ियाघर में कमर्शियल क्रोकोडाइल फार्म शुरू करने की योजना बनाई और इसके लिए यूएनडीपी से वित्तीय सहायता मांगी।

1974 में, एफएओ विशेषज्ञ डॉ बस्टर्ड ने एक अखिल भारतीय सर्वेक्षण किया और बताया कि कैसे भारतीय मगरमच्छों के तीन प्रकार खतरे की जद में है। इसके बाद, एक राष्ट्रीय परियोजना ओडिशा के टिकरपाड़ा में शुरू की गई। इस परियोजना को "ग्रो एंड रिलीज टेक्नीक" के सिद्धांत पर शुरू किया गया था, ताकि अंडों को प्राकृतिक नुकसान को कम किया जा सके।

सेंट्रल क्रोकोडाइल ब्रीडिंग एंड मैनेजमेंट ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट (सीसीबीएमटीआई) जो यूएनडीपी/एफ़एओ प्रोजेक्ट के एक हिस्से के रूप में हैदराबाद में स्थापित हुआ था, वह धीरे-धीरे एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान के रूप में विकसित हुआ. यहां देश-विदेश से आने वाले वन्यजीव विभागों के लोगों को मगरमच्छ प्रबंधन पर प्रशिक्षण दिया जाता था. लेकिन, 1987-88 में केंद्र की सरकार ने इस संस्था को हैदराबाद से हटा कर भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून के साथ संबद्ध कर दिया।

जाहिर है, भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून में अन्य कई सारे वन्यजीवों पर काम होते थे. ऐसे में क्रोकोडाइल पर कितना और किस स्तर का रिसर्च हो पाता होगा, कहना मुश्किल है। इसके अलावा, शुरुआती दौर में मगरमच्छ अभयारण्यों के रूप में अधिसूचित क्षेत्रों जैसे, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और ओडिशा के कई इलाकों को टाइगर रिजर्व के रूप में विस्तारित कर दिया गया। इसका भी क्रोकोडाइल मैनेजमेंट/ट्रेनिंग/रिसर्च पर असर हुआ होगा। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि 1982 में यूएनडीपी/एफ़एओ परियोजना के समाप्त होने तक, हमारे पास कम से कम 34 मगरमच्छ  पालन केंद्र और 34 वेटलैन्ड (आद्रभूमि) थी. लेकिन, 1987-88 में सीसीबीएमटीआई को देहरादून ले जाने के बाद, केंद्र की भूमिका सिमटती चली गई।

चंबल से उम्मीदें

घड़ियाल के बेहतर कंजर्वेशन के लिए इस देश में और क्या होना चाहिए? इस सवाल के जवाब में डॉ. लाला ए.के. सिंह कहते हैं,“देश में सभी घड़ियाल आवासों की दीर्घकालिक निगरानी होनी चाहिए। घड़ियाल से संबंधित गतिविधियों के समन्वय के लिए एक संस्थागत तंत्र का पुनरुद्धार होना चाहिए। हमें अपने अकादमिक ज्ञान और रिसर्च को वनकर्मियों तक सही तरीके से पहुंचाना होगा, ताकि वे घड़ियालों का प्रबंधन ठीक से कर सके उदाहरण के लिए, घड़ियाल की देखरेख करने वालों को घड़ियाल की मां की तरह बेबी घड़ियाल की जरूरतों के बारे में सोचना चाहिए।”

बहरहाल, इस वक्त देश में सबसे अधिक सक्रिय रूप से चंबल फील्ड रिसर्च कैंप चल रहा है। इसमें अभी भी फील्ड डेटा का विश्लेषण हो रहा हैं जो पिछले साढ़े तीन दशकों में जमा हुआ है। 1982 के बाद, जब यूएनडीपी/एफएओ परियोजना समाप्त हुई, भारत सरकार की पहल पर डॉ. लाला ए.के. सिंह ने मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के देवरी गांव घड़ियाल पालन इकाई में एक फील्ड कैंप शुरू किया था। इनका प्रारंभिक लक्ष्य रेडियो-ट्रांसमीटर को घड़ियाल में फिट करना और प्रकृति में उनके मूवमेंट का अध्ययन करना था।

डॉ. सिंह कहते हैं,“1983 के बाद से राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य में हमारे काम ने घड़ियाल के पारिस्थितिक सहयोगियों जैसे गंगा डॉल्फिन, मगरमच्छ, ऊदबिलाव, मीठे पानी के कछुए, प्रवासी क्रेन, सारस और बत्तख आदि के कंजर्वेशन का भी काम किया है, जो राजस्थान और मध्य प्रदेश के अभयारण्य से आते हैं।”