भारत की स्वाधीनता के 75 बरस बाद एक आदिवासी महिला का 'भारत का प्रथम नागरिक' बनना निश्चित ही ऐतिहासिक अवसर है। वह इसलिये कि द्रौपदी मुर्मू उस समाज की गौरवान्वित प्रतिनिधि है, जिन्हें 'समानता के अवसर' के संवैधानिक संहिता के अनुरूप अनुसूचित जनजाति का दर्जा तो दिया गया, किन्तु 'शीर्ष नेतृत्व में बराबरी' का वास्तविक अवसर आज स्वाधीनता के सात दशकों के बाद आया है।
ऐतिहासिक इसलिये भी, कि द्रौपदी मुर्मू का अपना व्यक्तित्व, देश - समाज और समाजसेवा के प्रति समर्पण के साथ-साथ और प्रखर हुआ है। इक्कीसवीं सदी के नए भारत का नेतृत्व करने के लिये सर्वसमाज की ओर से आपको बधाई - महामहिम द्रौपदी मुर्मू जी।
आपका राष्ट्रपति होना, विशेष रूप से देश के करोड़ों आदिवासियों और वंचित समाज के लिए उम्मीदों का नया सबेरा है। आदिवासी अस्मिता और अधिकारों के नाम पर बनाये गये कायदे-कानून तथा नेकनियती के उसूलों पर बने नियम और नीतियां, वाकई में दशकों से किसी भी जमीनी सफलताओं के बिना ही रह गयीं।
यहां तक कि विधानसभाओं और संसद में निर्वाचित नुमांइदे भी, आदिवासी हकों के लिये अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में लगभग असफल ही रह गये। इसलिये बरसों से 'न्याय और सम्मान' के लिये संघर्षरत आदिवासी और वंचित समाज की उम्मीदों के अब आप ही सर्वोच्च प्रतिनिधि हैं। हमारा विश्वास है कि 75 बरसों के बाद अब तो आपके माध्यम से 'राष्ट्रीय आदिवासी नीति' घोषित और पोषित होगी।
भारत की स्वाधीनता के बाद 'आदिवासी स्वशासन' के नाम पर, पांचवीं और छटवीं अनुसूची क्षेत्रों में आदिवासी समाज के अधिकारों को स्थापित करने के लिये जो वैधानिक प्रावधान सुनिश्चित किये गये थे- वो बरसों बाद भी आधे-अधूरे ही रह गये।
दुर्भाग्य ही है कि भारत के किसी भी राज्य नें पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 की नियमावली का निर्धारण और क्रियान्वयन निष्ठापूर्वक नहीं किया। यही कारण है कि विशेष रूप से पांचवीं अनुसूची के क्षेत्र आज- विपन्नता, शोषण, उत्पीड़न और हिंसा के केंद्रबिंदु बने हुये हैं।
भारत के तथाकथित 50 विपन्नतम जिलों में से लगभग 38 जिले पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में हैं, जहां तमाम संवैधानिक संरक्षण के बावजूद आदिवासियों के अधिकारों का सबसे अधिक उल्लंघन हो रहा है। संविधान के अनुच्छेद 244 (1) के अंतर्गत इस पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में ‘महामहिम’ आप ही आदिवासियों के अधिकारों की सर्वोच्च संरक्षक हैं - और 'आदिवासी स्वशासन' की उम्मीदों को आप ही साकार कर सकती हैं।
‘महामहिम’- आप शायद जानती ही होंगी कि सातवें दशक में भारत सरकार के माध्यम से 'आदिवासी भूमि हस्तांतरण निषेध अधिनियम' लागू किया गया। इस कानून का निहितार्थ था / है कि आदिवासियों की भूमि अहस्तांतरणीय है - बावजूद इस कानून के आदिवासियों की लाखों एकड़ भूमि का हस्तांतरण किया अथवा बलपूर्वक छीना गया अथवा अधिग्रहण किया गया अथवा आदिवासियों को जमीनों से खदेड़ा गया।
यही नहीं, अपनी जमीनों के अधिकारों के लिये अदालत से न्याय मांगने वाले आदिवासियों के पक्ष में न्यायालयों ने भी बेबस और विवादित निर्णय दिये। भारत सरकार के भूमि सुधार समिति (2009) के अनुसार संबंधित न्यायालयों के द्वारा मध्यप्रदेश में 90%, असम में 75%, राजस्थान में 71%, उड़ीसा में 70%, और छत्तीसगढ़ में 53% प्रकरणों में आदिवासियों के भूमि अधिकारों के विरुद्ध फैसले सुनाये गये (अथवा लंबित रखे गये) ।
कहना ना होगा- अपनी जमीन तलाशते उन हताश आदिवासियों की निगाहें अब आपकी ओर हैं। आप संविधान सम्मत ‘भूमि अधिकार न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल)’ के गठन और संचालन को सुनिश्चित करते हुए 'अपने जमीन और जमीर' की प्रतीक्षा करते लाखों आदिवासियों और वंचितों को न्याय दे सकते हैं।
भारत में आजादी के बाद से अनेक विकास परियोजनाओं के चलते लगभग 85 लाख (नवीनतम शोधों के अनुसार लगभग 1.1 करोड़) आदिवासियों का विस्थापन हुआ है। विडंबना ही है कि जनहित और देश के विकास के खातिर जिस हीराकुंड बाँध, धनबाद के कोयला खदान, बस्तर के लौह अयस्क के खदान और मंडला के वन्य जीव अभ्यारण्यों से आदिवासियों को खदेड़ा गया वो सदा सर्वदा के लिये गरीबी रेखा से नीचे धकेल दिये गये।
आदिवासियों के अपने संसाधनों का जनहित और विकास के नाम पर अधिग्रहण करके देश और शेष समाज तो आगे बढ़ गया लेकिन, वे विस्थापित और बेदखल आदिवासी लगभग स्थायी रूप से 'गरीबी रेखा के सीमांतों' में धकेल दिये गये। महामहिम, आप का आना - उन लाखों लोगों की आँखों में एक नई रोशनी का जनम है।
किसी सुरक्षित आजीविका के अभाव में, आदिवासी समाज आज भी पलायन के लिये अभिशप्त है। हर बरस चंबल, सुंदरगढ़, कोडरमा और सरगुजा के गुमनाम गांवों से शहरों की ओर पलायन करने वाले लाखों आदिवासी मजदूरों के शोषण की अनगिनत कहानियां संभव है, आपके राष्ट्रपति बनने से बदल जाए।
श्रम मंत्रालय की नीतियां और भारत सरकार के श्रम कानून अब तक तो लाखों आदिवासी श्रमिकों को एक सम्मानजनक पारिश्रमिक तक मुहैया करवा पाने में विफल ही रहे हैं। एकता परिषद द्वारा इन श्रमिकों पर किया अध्ययन (वर्ष 2020-21) दर्शाता है कि आदिवासी मजदूरों का दैनिक वेतन, औसत मजदूरी से लगभग 20 फीसदी कम ही है।
आप उन लाखों श्रमिकों को निःसंदेह एक समान और सम्मानजनक परिश्रमिक दिलाने में ऐतिहासिक भूमिका निभा सकते हैं, ऐसा हम सबका मानना है।
आदिवासी समाज के लिये 'जल जंगल और जमीन' का अधिकार कितना महत्वपूर्ण है यह कदाचित आपसे बेहतर कोई दूसरा नहीं समझ सकता। वनाधिकार कानून (2006) लागू हुआ तो लगभग 9 करोड़ आदिवासियों और 2 करोड़ वनाश्रित समुदायों को विश्वास था कि उनके जंगल और जमीन अब फिर उनके अपने होंगे।
लेकिन इस कानून के 15 बरसों बाद भी मात्र 22 फीसदी लोगों को आधे-अधूरे अधिकार मिल पाना, उस राज्यतंत्र के प्रति संदेह खड़ा करता है जिसकी नीयत पर भरोसा करके इस कानून को लागू करने की बागडोर सौंपी गयी थी।
ऐतिहासिक वनाधिकार कानून के प्रगतिशील प्रावधानों के बावजूद करोड़ों आदिवासी, अपने आवेदन लिये कतारबद्ध खड़े हैं। उनका दोष मात्र इतना ही है कि अब तक वे उस राज्यव्यवस्था से उम्मीदग्रस्त हैं - आदिवासियों के प्रति जिस राज्य की प्रतिबद्धता ही संदिग्ध है। महामहिम, आप दशकों से 'आदिवासी स्वशासन' का ख़्वाब देखते उन आदिवासियों को अपनी जमीन और जंगल हासिल करने में निर्णायक भूमिका निभायेंगी ऐसा हमारा विश्वास है।
अच्छा होता भारत की स्वाधीनता के बाद देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति, समाज के सीमान्त समुदायों से निर्वाचित किये जाते - कदाचित तब उन्हें 75 बरसों की प्रतीक्षा तो नहीं करनी पड़ती…. कम से कम संविधान में दर्ज समानता की संहिताओं को तो कोई तार-तार नहीं कर पाता…. लाखों-करोड़ों आदिवासियों को व्यवस्था के समक्ष बलि तो नहीं देनी पड़ती…. हजारों निर्दोष आदिवासियों की किस्मत में जेल और गोलियों की यातनायें तो नहीं होतीं।
स्वाधीन भारत में 75 बरसों के बाद आदिवासी समाज और वंचितों के प्रतिनिधि के रूप में आपका संविधान के सर्वोच्च संरक्षक के रूप में आना एक ऐतिहासिक अवसर तो निःसंदेह है ही, लेकिन उससे भी कहीं अधिक उम्मीदों का नया इतिहास लिखने का वक़्त भी है जिसकी प्रथम संज्ञा और सर्वनाम आप हैं – महामहिम द्रौपदी मुर्मू जी ।
लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं