केंद्र सरकार द्वारा भारतीय वन अधिनियम (आईएफए), 1927 में संशोधन किया जा रहा है। इसका मकसद समुदाय संचालित वन्य व्यवस्था को खत्म करना और जंगलों में नौकरशाही को मजबूत करना है। डाउन टू अर्थ ने इस मुद्दे पर सामाजिक कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों से बात की। आइए, जानते हैं कि वे इन संशोधनों को किस नजर से देखते हैं।
वन अधिकारियों पास होंगे गोली मारने के अधिकार
झारखंड में रह रहे मानव अधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं कि औपनिवेशिक कालीन भारतीय वन अधिनियम, 1927 में प्रस्तावित संशोधन पीढ़ियों से जनजातियों के स्वामित्व वाले प्राकृतिक संसाधनों को हड़प कर जाने की केंद्र सरकार की साजिश जान पड़ती है। नए संशोधन के अंतर्गत, वन विभाग वन क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर सकता है और वनवासी समुदायों को उनकी ही पुश्तैनी जमीन से अलग कर सकता है। मुझे लगता है कि इसका बड़ी मुश्किल से जीवनयापन कर रही जनजातीय आबादी पर भयावह प्रभाव पड़ने वाला है।
डुंगडुंग के मुताबिक, बीते कुछ वर्षों में भारत में वन प्रशासन काफी हद तक लोकतांत्रिक हो गया है। 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने आदिवासियों को वनों से खदेड़ने की अनुशंसा की थी। उसी के आधार पर वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 अस्तित्व में आया। हालांकि, 1988 में पारित राष्ट्रीय वन नीति के माध्यम से केंद्र सरकार ने पहली बार आदिवासियों और जंगलों के बीच सहजीवी संबंध को मान्यता प्रदान की थी। इस नीति को 2006 में वन अधिकार अधिनियम के पारित होने के साथ ही उसमें सम्मिलित कर दिया गया, लेकिन इस प्रस्तावित संशोधन की वजह से आने वाले दिनों में आदिवासियों की और भी ज्यादा नाइंसाफी झेलनी पड़ेगी।
डुंगडुंग कहते हैं कि 1980-90 के दशक के दौरान केंद्र सरकार का रवैया आदिवासियों की तरफ थोड़ा सहानुभूतिपूर्ण था, जिसकी वजह से वन अधिकार अधिनियम और पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 जैसे महत्वपूर्ण कानून अमल में लाए गए। मैंने देखा है कि पिछले पांच सालों से सरकार आदिवासियों के साथ अत्यधिक कड़ाई बरत कर इन अधिनियमों का उल्लंघन कर रही है। अगर यह प्रस्तावित संशोधन अमल में लाया गया, तो वन विभाग आदिवासियों के मुकाबले कहीं ज्यादा ताकतवर हो जाएगा, जो एक तरह से उनकी सुरक्षा पर प्रहार होगा। पहले ही से वन अधिकारी आदिवासियों पर छद्म भेसधारी माओवादी होने का आरोप लगाते आए हैं। इस संशोधन के बाद तो वन अधिकारी उन्हें अतिक्रमणकारी का नाम देकर गोली मार देंगे।
सारी शक्ति वन नौकरशाही के हाथों में सौंपने की तैयारी
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में स्थित मेंढा लेखा गांव के कम्यूनिटी लीडर मोहनभाई हीराबाई हीरालाल ने कहा कि औपनिवेशिक कालीन भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा-28 में ग्राम वनों का उल्लेख है। ऐसे वनों में समुदायों के लिए कई लाभ थे, जिनमें से कुछ 1865 में लागू किए गए भारतीय वन अधिनियम में भी शामिल थे और यहां तक कि स्वतंत्र भारत में भी यह बने रहे। प्रख्यात विद्वान और इतिहासकार रामचंद्र गुहा के शोध से पता चलता है कि भारत के पहले वन महानिरीक्षक डिट्रीच ब्रैंडिस ने 1865 में ऐसे प्रावधानों पर जोर दिया था।
हीरालाल के मुताबिक, दुर्भाग्य से ग्राम वन पूरी तरह से उपेक्षित बने रहे। 1988 में आई वन नीति में भी इनका उल्लेख नहीं किया गया। 1990 के दशक से संयुक्त वन प्रबंधन को बढ़ावा दे रही केंद्र और राज्य सरकारों ने भी कभी इन वनों के अस्तित्व पर ध्यान नहीं दिया। हालांकि, लोगों की अनदेखी और स्वैच्छिक संगठनों व शोधकर्ताओं की उदासीनता को इसके लिए दोषी ठहराया जाता है, लेकिन केंद्र सरकार यह दावा नहीं कर सकती है कि उसे इस प्रावधान के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
हीरालाल बताते हैं कि अपने अध्ययन में गुहा ने पाया कि रॉबर्ट बैडेन-पॉवेल जैसे प्रभावशाली ब्रिटिश, जिन्होंने भारत में ब्रिटिश सेना में सेवाएं दी थीं, उन्होंने ग्राम वनों के विचार का विरोध किया। ऐसे कानूनों के प्रति साम्राज्यवादियों के विरोध को आसानी से समझा जा सकता है। लेकिन आजादी के बाद भी इस प्रावधान की उपेक्षा जारी रही, जो हमारी सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति के बारे में बहुत कुछ बताता है। अच्छे प्रावधान को लागू कर पाने में वन विभाग की विफलता को अपराध माना जाना चाहिए। उत्तराखंड और ओडिशा जैसे राज्यों ने तो प्रावधान का दुरुपयोग करने की कोशिशें भी कीं।
उनका कहना है कि प्रस्तावित संशोधन, वर्तमान में ग्राम सभाओं के पास मौजूद सामुदायिक वन अधिकारों के खिलाफ ग्राम वनों का इस्तेमाल करते हुए सारी शक्ति वन नौकरशाही के हाथों में सौंप देने का प्रयास भर है। इस प्रकार से नए मसौदे को उल्टी दिशा में उठाए गए कदम के तौर पर देखा जाना चाहिए। भारत को एक ऐसे व्यापक वन कानून की आवश्यकता है, जो लोगों को अवसर व मान्यता प्रदान करते हुए उन्हें सीधे ग्राम सभा स्तर पर प्रतिनिधित्व करने की अनुमति प्रदान करे।
जंगल को कॉर्पोरेट हित में उजाड़ने की तैयारी
पुणे स्थित सामाजिक एवं पर्यावरण संगठन, कल्पवृक्ष, से जुड़ी नीमा पाठक ब्रूम कहती हैं कि भारतीय वन अधिनियम, 1927 में प्रस्तावित संशोधन किसी वन अधिकारी की औपनिवेशिक भावना से ओत-प्रोत एक काल्पनिक उड़ान जैसा है। यह वन विभाग को अर्ध-न्यायिक शक्तियों से लैस करता है और जंगलों को कॉर्पोरेट हित में उजाड़ सकता है। संशोधन को अमल में लाने से पहले वनों की मौजूदा श्रेणियों की समीक्षा की जानी चाहिए और पूर्ववर्ती श्रेणियों (आरक्षित, संरक्षित, और ग्राम वन) को बदलकर उन श्रेणियों को शामिल करना चाहिए, जिनमें निवास स्थान और सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों को मान्यता प्रदान की गई है। इसके उलट, यह नया मसौदा आरक्षित जंगलों, पंचायत वनों और संयुक्त वन प्रबंधन समिति जैसे संस्थानों को ही सशक्त करता है।
बूम कहती हैं कि पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम (पेसा), 1996 और वन अधिकार अधिनियम, 2006 जैसे लोकतांत्रिक कानूनों के परस्पर विरोधी मौजूदा औपनिवेशिक प्रावधानों को समाप्त करने की बजाय प्रस्तावित मसौदे का मूल अभिप्राय वनवासियों को अपराधियों के रूप में दर्शाकर उनके अधिकारों की मान्यता रद्द करना और उन्हें पूरी तरह नष्ट करना है। मसौदा यह भी सुनिश्चित करता है कि आगे भी कभी इन अधिकारों को उन इलाकों में मान्यता न प्राप्त हो, जहां अब तक इनको मान्य नहीं किया गया है।
बूम के मुताबिक, एफआरए और पेसा के अमल में आने के बाद से ग्राम सभाएं जंगलों के स्थायी प्रबंधन, जिसमें विनियमित फसल और गैर-इमारती लकड़ी वन उत्पाद के व्यापार शामिल हैं, के कार्य में संलग्न हो गई हैं। मसौदा इसे नजरअंदाज करता है। बूम इस मामले में बेहद स्पष्ट हैं कि इस मसौदे का उद्देश्य विभिन्न जंगलों को एकल कृषि भूमियों में बदल देने और उद्योगों को सुविधा प्रदान करना है। यह बेहद खतरनाक है। इस संशोधन को वनाधिकार और पेसा के उन प्रावधानों, जिसके अंतर्गत वन व्यपवर्तन के लिए ग्राम सभाओं से पूर्वसूचित सहमति की आवश्यकता होती है, को कमजोर करने के लिए प्रायोजित अन्य कानूनी और नीतिगत बदलाव के सापेक्ष देखना विशेष तौर पर महत्वपूर्ण है। अगर यह नया कानून पारित हो जाता है, तो यह भारतीय वनों को न सिर्फ प्रभावित करेगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार और संरक्षण प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन भी करेगा।