वन्य जीव एवं जैव विविधता

दुनिया भर के पहाड़ी इलाकों में तेजी से फैल रही पौधों की 'एलियन' प्रजातियां

रिसर्च के मुताबिक पर्वतीय क्षेत्रों में पौधों की इन विदेशी प्रजातियों की संख्या में औसतन 16 फीसदी प्रति दशक की दर से वृद्धि हुई है

Lalit Maurya

पर्वतीय क्षेत्रों के बारे में अब तक यह मान्यता थी कि यह क्षेत्र काफी हद तक जैविक आक्रमणों से बचे हुए हैं। लेकिन हाल ही में की गई एक रिसर्च से पता चला है कि कश्मीर सहित दुनिया भर में परिवहन मार्गों के साथ-साथ विदेशी पौधों की प्रजातियां तेजी से इन ऊंचे अनछुए क्षेत्रों में भी फैल रही हैं।

हजारों-लाखों वर्षों से यह ऊंची पर्वत श्रृंखलाएं कई जानवरों और पौधों की प्रजातियों का घर रहीं हैं। इनमें से कुछ प्रजातियां तो स्थानिक और अत्यधिक विशिष्ट हैं, जो शायद कहीं और नहीं पाई जाती। यह पहाड़ लम्बे समय से इंसानी हस्तक्षेप से भी बचे हुए हैं, जिसकी वजह से यह विदेशी पौधों की प्रजातियों के आक्रमण से भी सुरक्षित रहे हैं। 

लेकिन ईटीएच ज्यूरिख से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि पहाड़ के पारिस्थितिक तंत्र और उनकी अनूठी वनस्पतियों पर विदेशी प्रजातियों यानी नियोफाइट्स का दबाव दुनिया भर में बढ़ रहा है। जर्नल नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजे दर्शाते हैं कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान दुनिया के कई पहाड़ों पर विदेशी पौधों के आक्रमण में वृद्धि हुई है।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 2007 से पांच महाद्वीपों के 11 पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कों के किनारे विदेशी पौधों के वितरण का बार-बार सर्वे किया था। इस सर्वे में भारत में कश्मीर के पर्वतीय क्षेत्र भी शामिल थे। वैज्ञानिकों ने यह सर्वेक्षण दक्षिणऔर मध्य चिली, स्विटजरलैंड, ऑस्ट्रेलिया के दो क्षेत्रों, हवाई, नॉर्वे, पश्चिमी अमरीका के दो इलाकों और कश्मीर में किए थे।

इस रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं उनके अनुसार पिछले कुछ वर्षों में पौधों की इन विदेशी प्रजातियों की संख्या में औसतन 16 फीसदी प्रति दशक की दर से वृद्धि हुई है। इतना ही नहीं अध्ययन किए गए ग्यारह में से दस पर्वतीय क्षेत्रों में वैज्ञानिकों को पिछले पांच से दस साल पहले की तुलना में काफी अधिक ऊंचाई पर विदेशी प्रजातियां मिले हैं।

हालांकि, ईटीएच ज्यूरिख और इस शोध से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता एवलिन इसेली इस बात को लेकर हैरान नहीं हैं कि यह नियोफाइट्स कहीं ज्यादा ऊंचाई पर फैल रहे हैं। उनका कहना है कि "हम इस बात को लेकर हैरान हैं कि इन विदेशी प्रजातियों का प्रसार इतनी तेजी से आगे बढ़ रहा है और एक दशक से भी कम समय में इन विदेशी प्रजातियों की संख्या में इतनी वृद्धि हुई है।"

उनका कहना है कि आमतौर पर किसी प्रजातियों को एक क्षेत्र में स्थापित होने और फैलने में कई दशक लग जाते हैं। हालांकि उन्होंने इसके लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेवार नहीं माना है। उनका कहना है कि इन विदेशों पौधों को आमतौर पर निचले क्षेत्रों में उगाया गया जहां से वो अधिक ऊंचाई तक फैल गए। जब तक की वातावरण उनके पुनरुत्पादन के लिए बहुत ठंडा नहीं हो गया। ऐसे में उनके अनुसार यह नियोफाइट्स केवल उन क्षेत्रों में बढ़ते हैं जो उनकी जलवायु वरीयताओं से मेल खाते हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि पौधे ग्लोबल वार्मिंग के बिना भी ऐसा करने में कामयाब रहते हैं।

इंसान या यह विदेशी प्रजातियां कौन हैं समस्या की असली जड़

अध्ययन के दौरान कुछ क्षेत्रों में तापमान में वृद्धि हुई है, लेकिन एवलिन का कहना है कि इसका विदेशी प्रजातियों के प्रसार से कोई संबंध नहीं था। उनके अनुसार हालांकि बढ़ता तापमान भविष्य में इन नियोफाइट्स के और भी अधिक ऊंचाई तक फैलने के लिए मंच तैयार कर रहा है, क्योंकि पारिस्थितिक रूप से इनके लिए ऊपर की ओर अनुकूल वातावरण तैयार हो रहा है।

देखा जाए तो मनुष्य चाहे जानबूझकर या अनजाने में अक्सर इन विदेशी पौधों को तराई क्षेत्रों में लाए हैं, जहां से विशेष तौर पर यह सड़कों के साथ ऊंचे क्षेत्रों की ओर फैल रही हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक सड़कों के साथ-साथ इन नियोफाइट्स का विस्तार विशेष रूप से आसान होता है, क्योंकि लोगों द्वारा इनको फैलाया जाता है।

चूंकि यहां कि प्राकृतिक वनस्पति पहले ही दबाव का सामना कर रही होती है। ऐसे में देशज प्रजातियां जो प्रचलित जलवायु के अनुकूल हो गई हैं उनके साथ इनकी प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है। वहीं एवलिन का कहना है कि दूसरी ओर सड़कों से आगे अनछुए पर्वतीय आवासों में इन जैविक आक्रमणकारियों के लिए कठिन समय होता है। उनके अनुसार यदि मूल वनस्पति प्रजातियां अनछुई हैं तो विदेशी प्रजातियों को फैलने में अधिक समय लगता है।

पहले की शोधों से भी पता चला है कि विदेशी आक्रामक प्रजातियां न केवल पर्यावरण और जैवविविधता बल्कि कृषि, पर्यटन और स्वास्थ्य के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के लिए भी बड़ा खतरा बन चुकी हैं। एक अध्ययन के मुताबिक 1970 से 2017 के बीच इन विदेशी आक्रामक प्रजातियों से 94.5 लाख करोड़ रूपए से ज्यादा का नुकसान हुआ था।

देखा जाए तो आज इन विदेशी प्रजातियों के बढ़ते खतरे को देखते हुए हम इन विदेशी प्रजातियों को खलनायक समझते हैं। लेकिन पर्यावरण, सामाजिक और आर्थिक नुकसान का कारण बनने वाली इन एलियन प्रजातियों को खलनायक बनाने का जिम्मेवार कौन है।

पर्वतीय क्षेत्र जो लम्बे समय से इंसानी हस्तक्षेप से बचे हुए थे, उनपर बढ़ता विकास इन प्रजातियों को फैलने का मार्ग प्रशस्त कर रहा है, जिसका खामियाजा इन क्षेत्रों की मूल प्रजातियों को भुगतना पड़ रहा है। नतीजन जैव विविधता में गिरावट आ रही है। ऐसे में इसपर गंभीरता से सोचने और इन्हें रोकने के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है।