इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) द्वारा जारी नए विश्लेषण के मुताबिक वैश्विक स्तर पर ताजे पानी में पाई जाने वाली मछलियों की करीब एक चौथाई प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। आईयूसीएन से जुड़े वैज्ञानिकों के मुताबिक इसके लिए प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसे कारण जिम्मेवार हैं।
दुनिया भर में ताजे पानी में पाए जाने वाली मछलियों के इस पहले व्यापक मूल्यांकन से पता चला है कि अध्ययन की गई मछलियों की 14,898 प्रजातियों में से 3,086 खतरे में हैं। मतलब की यदि इन पर अभी ध्यान न दिया गया तो वो जल्द ही विलुप्त हो सकती हैं। इतना ही नहीं विश्लेषण में यह भी सामने आया है कि जलवायु में आता बदलाव खतरे में पड़ी इन मछलियों की करीब 17 फीसदी प्रजातियों को प्रभावित कर रहा है।
इसके लिए जलवायु परिवर्तन के चलते नदियों, जलस्रोतों के जलस्तर में आती गिरावट, बदलता मौसम और समुद्री जल का नदियों में ऊपर की ओर बढ़ना जैसे कारक जिम्मेवार हैं।
देखा जाए तो इस बढ़ते संकट के लिए प्रदूषण भी कम जिम्मेवार नहीं है, यह ताजे पानी में पाई जाने वाली मछलियों की उन 57 फीसदी प्रजातियों को प्रभावित कर रहा है, जिनपर विलुप्त होने का खतरा मंडरा है। इसी तरह बांध और पानी का बढ़ता दोहन 45 फीसदी संकटग्रस्त प्रजातियों को प्रभावित कर रहा है।
वहीं आक्रामक प्रजातियां और बीमारी, मीठे पानी की 33 फीसदी संकटग्रस्त मछली प्रजातियों को नुकसान पहुंचा रही हैं, जबकि इनका बढ़ता शिकार खतरे में पड़ी 25 फीसदी प्रजातियों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर रहा है।
रिपोर्ट में आईयूसीएन ने केन्या में आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण बड़े दातों वाली मछली लेक तुर्काना रॉबर (ब्राइसिनस फेरॉक्स) नामक प्रजाति का जिक्र करते हुए लिखा है कि यह मछली जो कभी आईयूसीएन रेड लिस्ट में कम चिंताजनक प्रजातियों की श्रेणी में थी वो अब खतरे में पड़ गई है। इसके लिए बढ़ता शिकार, जलवायु परिवर्तन के चलते आवास में आती गिरावट, और बांधों की वजह से पानी के प्रवाह में आती कमी जैसे कारणों को जिम्मेवार ठहराया गया है।
आईयूसीएन से जुड़ी विशेषज्ञ कैथी ह्यूजेस का कहना है कि, “दुनिया में मछलियों की जितनी भी प्रजातियां ज्ञात हैं उनमें से आधे से अधिक मीठे पानी की मछलियां हैं। हालांकि ताजे पानी का पारिस्थितिकी तंत्र जलीय आवासों का केवल एक फीसदी है, इसके बावजूद यह उल्लेखनीय विविधता का प्रदर्शन करती हैं।“
उनके मुताबिक यह विविध प्रजातियां पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, और उसे बेहतर बनाने में मदद करती हैं। इतना ही नहीं मीठे पानी का यह पारिस्थितिक तंत्र करोड़ों लोगों के जीवन का आधार है। इसमें पाई जाने वाली मछलियां लाखों लोगों की जीविका का साधन हैं। ऐसे में मछलियों की इन प्रजातियों में आती गिरावट पर ध्यान देने के साथ-साथ पानी के अविरल बहाव और गुणवत्ता को बनाए रखना इस पारिस्थितिकी तंत्र के लिए बेहद जरूरी है। उनके मुताबिक जलवायु परिवर्तन के इस दौर में इनका बेहतर प्रबंधन भी मायने रखता है।
क्या जलवायु में आते बदलावों से खत्म हो जाएगा इन जीवों का अस्तित्व
रिपोर्ट में मीठे और खारे पानी दोनों आवासों में पाई जाने वाली अटलांटिक सैल्मन का जिक्र करते हुए लिखा है कि 2006 से 2020 के बीच इसकी वैश्विक आबादी में 23 फीसदी की गिरावट आई है। इसकी वजह से यह प्रजाति 'कम से कम चिंता' की श्रेणी से 'खतरे के करीब' आ गई है। यह मछली अब उत्तरी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में उन नदियों के एक छोटे से हिस्से तक ही सीमित रह गई हैं जिन पर कभी उनका कब्जा था।
पता चला है कि मीठे पानी और समुद्री वातावरण के बीच अपने व्यापक प्रवास के दौरान इन्हें विभिन्न खतरों का सामना करना पड़ता है। जलवायु परिवर्तन अटलांटिक सैल्मन के जीवन चक्र के हर चरण को प्रभावित कर रहा है। जहां यह युवा सैल्मन के विकास को प्रभावित करता है, साथ ही शिकार की उपलब्धता को भी कम करता है, और आक्रामक विदेशी प्रजातियों के विस्तार को बढ़ावा दे रहा है। इसके साथ ही इनकी घटती आबादी के लिए सैल्मन जूं के साथ-साथ आक्रामक प्रजातियों के बढ़ने का हवाला दिया गया है।
रिपोर्ट में बड़े पत्तों वाले महोगनी के पेड़ के बारे में जानकारी देते हुए लिखा है कि पिछले 180 वर्षों के दौरान हुई इसकी अंधाधुन्द कटाई के कारण इसमें 60 फीसदी की गिरावट आ गई है। इसकी वजह से अब यह पेड़ खतरे में पड़ी प्रजातियों की लिस्ट में शामिल हो गया है। बता दें कि इसकी वैश्विक स्तर बेहद मांग है। इसकी लकड़ी का उपयोग फर्नीचर, संगीत वाद्ययंत्र और सजावट के लिए किया जाता है, जिससे मध्य और दक्षिण अमेरिका में अवैध कटाई की जाती है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि आईयूसीएन की रेड लिस्ट में अब तक 157,190 प्रजातियों को शामिल किया गया हैं, जिनमें से 44,016 पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। रिपोर्ट में एक और प्रजाति का जिक्र है जो जलवायु में आते बदलावों से पीड़ित है और वो प्रजाति है मध्य दक्षिण प्रशांत और पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में पाए जाने वाले हरे कछुए। इनकी आबादी को अब विलुप्त होने के प्रति संवेदनशील के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु में आता बदलाव उनके पूरे जीवन चक्र को प्रभावित कर रहा है। क्योंकि बहुत ज्यादा तापमान की वजह से इनके अंडे सेने की सफलता कम हो जाती है। वहीं समुद्र के बढ़ते स्तर से इनके घोसलों में बाढ़ और बच्चों के डूबने का खतरा बना रहता है। यह हरे कछुए जिस समुद्री घास पर निर्भर रहते हैं वो भी समुद्र के गर्म होने और उसमे आते बदलावों के प्रति संवेदनशील होती है।
इतना ही नहीं जिस तरह से बड़े पैमाने पर मछलियों का शिकार हो रहा है उसके चलते इनके भी जाल में फंसने का खतरा बना रहता है। इनके अण्डों के लिए होता शिकार भी इनकी घटती आबादी की एक वजह है।
विलुप्ति की कगार से लौट आई यह प्रजातियां
रिपोर्ट में जो अच्छी खबरे सामने आई, उनमें से एक है कि संरक्षण प्रयासों की वजह से दो मृग प्रजातियां विलुप्ति की कगार से वापस लौट आई हैं। हालांकि यह भी कहा गया है कि बदलती जलवायु उनके भविष्य को कमजोर कर सकती है।
इनमें से एक प्रजाति स्किमिटर-हॉर्नड ओरिक्स है जो जंगलों में विलुप्त हो चुकी थी। लेकिन इनके संरक्षण को लेकर किए गए सकारात्मक प्रयासों का ही परिणाम है जिसने इस प्रजाति को दोबारा चाड में विचरने का मौका दिया है। बता दें कि एक समय अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला मृग, आधुनिक हथियारों और वाहनों की मदद से किए जा रहे अवैध शिकार और बार-बार पड़ने वाले गंभीर सूखे की वजह से 90 के दशक के अंत तक जंगल से गायब हो गया था।
2021 के दौरान चाड में जन्मे इस प्रजाति के 331 नन्हे मेहमानों ने एक बार फिर उमीदें बढ़ा दी हैं। हालांकि रिपोर्ट के मुताबिक साहेल क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के संभावित खतरों के चलते इसका भविष्य अभी भी अधर में है।
इसी तरह कजाकिस्तान, मंगोलिया, रूस और उज्बेकिस्तान में पाए जाने वाले साइगा मृग की स्थिति में भी रेड लिस्ट में सुधार आया है जो 'गंभीर रूप से खतरे में पड़ी प्रजाति' से 'खतरे में पड़ी प्रजाति' की श्रेणी में आ गई है। कजाकिस्तान में जहां इसकी 98 फीसदी आबादी रहती है, वहां 2015 से 2022 के बीच इनकी आबादी में 1,100 फीसदी की वृद्धि हुई है। मई 2022 तक वहां इसकी आबादी 13 लाख तक पहुंच गई थी। हालांकि यह मृग बीमारियों के प्रकोप के प्रति बेहद संवेदनशील है। इसकी वजह से 2010, 2011, 2015 और 2016 में इस प्रजाति को बड़े पैमाने पर मृत्युदर का सामना करना पड़ा था।
बता दें कि 2015 में इसकी मृत्युदर में भारी वृद्धि देखी गई थी, जिसके लिए बढ़ते तापमान और नमी को जिम्मेवार माना गया था। अनुमान है कि जिस तरह से जलवायु में बदलाव आ रहे हैं उनके चलते भविष्य में परिस्थितियां और कठिन हो सकती हैं। इसकी आबादी में आई गिरावट के लिए मवेशियों की बढ़ती संख्या, अवैध शिकार जैसे कारणों को भी जिम्मेवार ठहराया गया है।