वन्य जीव एवं जैव विविधता

48 वर्षों में वन्य जीवों की आबादी में दर्ज की गई 69 फीसदी की गिरावट: रिपोर्ट

लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2022 के मुताबिक नदियों में पाए जाने वाले जीवों की करीब 83 फीसदी आबादी अब नहीं बची है

Lalit Maurya

वैश्विक स्तर पर 1970 से 2018 के बीच 48 वर्षों के दौरान वन्य जीवों की आबादी में 69 फीसदी की गिरावट में दर्ज की गई है। यह जानकारी आज विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) द्वारा जारी नई रिपोर्ट “लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2022” में सामने आई है।

हैरान कर देने वाली बात है कि नदियों में पाए जाने वाले जीवों की करीब 83 फीसदी आबादी अब नहीं बची है। रिपोर्ट ने इसके लिए इन जीवों के आवास को हो रही हानि और प्रवासी मछलियों के मार्ग में आने वाली बाधा भी उनकी गिरावट की एक बड़ी वजह है।

रिपोर्ट के मुताबिक जैवविविधता में सबसे ज्यादा नुकसान दक्षिण अमेरिका और कैरेबियन में दर्ज की गई है जहां वन्यजीवन में 94 फीसदी की गिरावट आई है। इसके बाद अफ्रीका में करीब 66 फीसदी, एशिया-पैसिफिक में 55 फीसदी की गिरावट आई है। वहीं यूरोप और मध्य एशिया में वन्य जीवों की आबादी में 18 फीसदी जबकि उत्तरी अमेरिका में 20 फीसदी की कमी रिकॉर्ड की गई है।

लिविंग प्लैनेट इंडेक्स (एलपीआई) पिछले 50 वर्षों से स्तनधारी जीवों, पक्षियों, मछलियों, सरीसृपों और उभयचरों की आबादी को ट्रैक कर रहा है। 2022 के लिए जारी इस इंडेक्स में वन्यजीवों की 5230 प्रजातियों के 32,000 जीवों की आबादी का विश्लेषण किया है। रिपोर्ट से पता चला है कि जिन उष्‍णकटिबंधीय क्षेत्रों में कशेरुकी जीवों की निगरानी की गई है, वहां उनकी संख्या में अचानक से भारी कमी आई है।

बिगड़ रहे हैं इंसान और प्रकृति के बीच संबंध

इस रिपोर्ट में प्रकृति की चिंताजनक स्थिति और भविष्य पर प्रकाश डाला गया है। साथ ही सरकारों, कंपनियों व लोगों से अपील की है कि वो अपनी गतिविधियों में तत्काल बदलाव लाए जिससे जैवविविधता को होते इस नुकसान को रोका जा सके और जल्द से जल्द बहाल किया जा सके। रिपोर्ट का कहना है कि धरती अब दोहरे संकट का सामना कर रही है।

जलवायु में आता बदलाव और जैवविविधता का होता पतन दो ऐसे संकट हैं जो इंसानी हस्तक्षेप के चलते कहीं ज्यादा गंभीर होते जा रहे हैं। स्पष्ट है कि जब तक हम दोनों संकटों को अलग-अलग समस्याओं के रूप में देखना नहीं छोड़ देते तब तक किसी समस्या का असरदार ढंग से समाधान नहीं किया जा सकता।

इस बारे में डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के महानिदेशक मार्को लैम्बर्टिनी का कहना है कि हम मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन के साथ जैवविविधता के होते पतन के दोहरे संकट का सामना कर रहे हैं। जो मौजूदा और भविष्य की पीढ़ियों के लिए खतरा है। वन्यजीवों की आबादी में आती इस विनाशकारी गिरावट, विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में एक बड़ी चिंता का विषय है।

रिपोर्ट में वैश्विक स्तर पर वन्यजीवों की तेजी से गिरती आबादी के लिए उनके आवास में आती गिरावट, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, जीवों के किए जा रहे शोषण, आक्रामक प्रजातियों के हमले और उनमें फैलती बीमारियों को वजह माना है।

भारत भी हो रहा है प्रभावित

इस रिपोर्ट में कछारी वनों की भूमिका का भी विशेष रूप से उल्लेख किया है, जिनके संरक्षण व बहाली से जैवविविधता, जलवायु और लोगों के लिए एक अनुकूल समाधान मिल सकता है। हालांकि महत्वपूर्ण होने के बावजूद, मत्स्यपालन, कृषि और तटीय विकास के कारण कछारी वनों का 0.13 फीसदी की वार्षिक दर से पतन हो रहा है।

वहीं आंधियों और तटीय कटाव जैसे प्राकृतिक दबावों के साथ-साथ इनके जरूरत से ज्यादा दोहन और प्रदूषण के कारण भी कई कछारी वनों को नुकसान हो रहा है। इन कछारी वनों के पतन के चलते जैवविविधता और उसके आवास क्षेत्र की भी क्षति होती है।

इससे तटवर्ती समुदायों को पारितंत्रीय सेवाएं नहीं मिल पातीं और कुछ क्षेत्रों में इससे उन भूभागों को भी क्षति हो सकती है, जहां तटवर्ती समुदाय रहते हैं। इस रिपोर्ट में 1985 से सुंदरवन के कछारी वन के 137 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में हुए कटाव का भी उल्लेख किया है, जिसके चलते वहां रहने वाले करीब एक करोड़ लोगों में से कई लोगों की भूमि और पारितंत्रीय सेवाओं में कमी आई है।

सुधारने होंगें प्रकृति से बिगड़ते रिश्ते

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया के महासचिव रवि सिंह का कहना है कि इस रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो गया है कि जलवायु परिवर्तन व जैवविविधता की क्षति केवल पर्यावरण से जुड़ी समस्याएं नहीं है बल्कि यह अर्थव्यवस्था, मानव विकास, सुरक्षा और समाज से जुड़ी समस्याएं भी हैं। ऐसे में इनका समाधान भी एक साथ किया जाना चाहिए।

उनका कहना है कि भारत में जलवायु परिवर्तन जल संसाधन, कृषि, नेचुरल इकोसिस्टम, स्वास्थ्य और आहार श्रृंखला को प्रभावित करेगा। ऐसे में हमें सबको साथ लेकर चलने वाली एक ऐसी सामूहिक कार्य-पद्धति की जरूरत है, जो हम में से प्रत्येक को कार्य करने की शक्ति दे और हमें स्थाई मार्ग पर ले जा सके, जिसमें सभी की समान हिस्सेदारी हो।

रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि दुनिया भर में मूल निवासियों और स्थानीय समुदायों के अधिकारों, शासन और संरक्षण के नेतृत्व को मान्यता और सम्मान दिए बिना प्रकृति अनुकूल भविष्य का निर्माण संभव नहीं है। संरक्षण वबहाली के कार्यों, विशेष रूप से खाद्य सामग्री के अधिक से अधिक स्थाई उत्पादन और उपयोग में वृद्धि और सभी क्षेत्रों को समय रहते यथासंभव कार्बन मुक्त कर इन दो संकटों को कम किया जा सकता है।

इस बारे में जूलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन में कन्जर्वेशन और पॉलिसी के निदेशक डॉक्टर एंड्र्‌यू का कहना है कि इस इंडेक्स से पता चलता है कि कैसे हमने जीवन की नींव को ही काट कर निकाल दिया है, जिससे स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। दुनिया की आधी अर्थव्यवस्थाएं और अरबों लोग आज भी सीधे टॉपर पर प्रकृति पर निर्भर हैं। ऐसे में जैवविविधता के पतन पर विराम और प्रमुख इकोसिस्टम्स की बहाली हमारे द्वारा किए जाने वाले कार्यों की सूचि में सबसे ऊपर होने चाहिए, जिससे जलवायु, पर्यावरण व् लोगों के स्वास्थ्य पर बढ़ते संकटों का सामना किया जा सके।