वन्य जीव एवं जैव विविधता

नुकसान की दर में गिरावट के बावजूद दो दशक में नष्ट हो गए 677,000 हेक्टेयर में फैले मैन्ग्रोव: एफएओ

मैंग्रोव, पृथ्वी पर सबसे अधिक कार्बन-समृद्ध पारिस्थितिक तंत्रों में से एक हैं, जो दुनिया भर में अपने बायोमास और मिट्टी में करीब 6.23 गीगाटन कार्बन को स्टोर करते हैं

Lalit Maurya

क्या आप जानते हैं कि पिछले दो दशक में करीब 677,000 हेक्टेयर में फैले मैन्ग्रोव के जंगल नष्ट हो गए हैं। इतना ही नहीं अनुमान है कि पिछले 40 वर्षों में दुनिया भर के 123 देशों के समुद्र तट पर फैले 20 फीसदी मैन्ग्रोव खत्म हो गए हैं।

हालांकि साथ ही एफएओ ने अपनी 26 जुलाई 2023 को जारी इस रिपोर्ट में यह भी कहा है कि पिछले दस वर्षों में मैन्ग्रोव को होते नुकसान की दर में कमी आई है। इसका मतलब है कि दुनिया इन अहम जंगलों को होते नुकसान को रोकने की दिशा में प्रगति कर रही है। यह जानकारी संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने अपनी नई रिपोर्ट “द वर्ल्ड्स मैंग्रोव्स 2000-2020” में साझा की है। 

इसमें कोई शक नहीं की हमारे पर्यावरण के लिए मैंग्रोव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, एक तरफ जहां यह तटीय पारिस्थितिकी पर मंडराते खतरों को कम करने में मदद करते हैं। वहीं साथ ही बाढ़ जैसी आपदाओं से इंसानों की रक्षा करते हैं। लेकिन विडम्बना देखिए की इंसानों के लिए जरूरी यह मैन्ग्रोव इंसानों की बढ़ती महत्वाकांक्षा की ही भेंट चढ़ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन, समुद्र के जलस्तर में आते उतार-चढ़ाव और इंसानी गतिविधियों के चलते मैंग्रोव दुनियाभर में तेजी से सिकुड़ रहे हैं। साथ ही यह प्राकृतिक कारणों से भी नष्ट हो रहें हैं।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार मैन्ग्रोव, जंगलों की तुलना में तीन से पांच गुणा ज्यादा तेजी से नष्ट हो रहे हैं। यही वजह है कि दुनिया में करीब एक चौथाई मैन्ग्रोव गायब हो चुके हैं।

रिपोर्ट में जो आंकड़े साझा किए हैं उनके अनुसार दुनिया के करीब 1.48 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में मैन्ग्रोव का जंगल फैला है। पता चला है कि जहां 2000 से 2020 के बीच 6.77 लाख हेक्टेयर में फैले मैंग्रोव नष्ट हो गए हैं, वहीं 2010 से 2020 के बीच इनकों होते नुकसान की दर में करीब एक चौथाई (23 फीसदी) की गिरावट आई है।

शोध से यह भी पता चला है कि दूसरे जंगलों की तुलना में मौका मिलने पर मैंग्रोव बहुत तेजी से फैल सकते हैं। यही वजह है 2020 तक मैन्ग्रोव के जंगल करीब और 393,000 हेक्टेयर क्षेत्र में उग आए हैं, जहां वो 2000 में मौजूद नहीं थे। देखा जाए तो यह क्षेत्र करीब 5.5 लाख फुटबॉल मैदानों के बराबर है। इस लिहाज से देखें तो पिछले 20 वर्षों में मैन्ग्रोव को जितना नुकसान हुआ है इससे उसके आधे से अधिक की भरपाई हो गई है।

रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में अधिकांश मैन्ग्रोव दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में हैं। बाकी ज्यादातर दक्षिण अमेरिका, पश्चिमी और मध्य अफ्रीका, उत्तरी और मध्य अमेरिका  के साथ ओशिनिया में पाए जाते हैं।  

27 फीसदी के नुकसान के लिए अकेले कृषि है जिम्मेवार

आंकड़ों के अनुसार एशिया जो दुनिया के करीब आधे मैन्ग्रोव का घर है। वैश्विक स्तर पर 2000 से 2010 के बीच मैन्ग्रोव को जितना नुकसान हुआ था उसका 68 फीसदी एशिया में दर्ज किया गया था। हालांकि 2010 से 2020 के बीच इसमें गिरावट आई है और यह घटकर 54 फीसदी रह गया है।

इसी तरह अफ्रीका में मैन्ग्रोव को होने वाले शुद्ध वार्षिक हानि में 26.6 फीसदी की गिरावट आई है। अनुमान हैं कि जहां 2000 से 2010 के बीच हर वर्ष मैन्ग्रोव को होने वाला नुकसान 3,100 हेक्टेयर था, वो 2010 से 2020 के बीच घटकर 2,300 हेक्टेयर प्रति वर्ष रह गया था।

उत्तर और मध्य अमेरिका  में भी मैन्ग्रोव क्षेत्र को होने वाले शुद्ध नुकसान में गिरावट आई है जो 2000 से 2010 के बीच प्रति वर्ष 1,400 हेक्टेयर के शुद्ध नुकसान से घटकर 2010 से 2020 के बीच प्रति वर्ष 600 हेक्टेयर के शुद्ध लाभ में बदल गया है। इसके विपरीत, जहां दक्षिण अमेरिका और ओशिनिया में पिछले दशक मैन्ग्रोव में वृद्धि हुई थी वो 2010 से 2020 के बीच गिरावट में बदल गई है।

रिपोर्ट में इन मैन्ग्रोव को होते नुकसान के लिए सबसे ज्यादा कृषि को जिम्मेवार माना है। जो 2000 से 2020 के बीच मैन्ग्रोव को हुए कुल नुकसान के 27 फीसदी के लिए जिम्मेवार थी। इसी तरह प्राकृतिक वजहों से 26 फीसदी नुकसान पहुंचा है। हालांकि इसके पीछे जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव जैसे तापमान और समुद्र के जल स्तर में होती वृद्धि के कारण हुआ था।

वहीं धान, पाम आयल और निर्माण आठ-आठ फीसदी और लकड़ी की कटाई तीन फीसदी के लिए जिम्मेवार थी। इसी तरह इन 20 वर्षों की अवधि में प्राकृतिक आपदाएं कुल नुकसान के केवल दो फीसदी के लिए जिम्मेवार थी। लेकिन उन्होंने जिन क्षेत्रों में मैन्ग्रोव को नष्ट किया है वो तीन गुणा बढ़ गया है। रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि समय के साथ स्थिति के और बदतर होने की आशंका है। इसकी वजह से तटीय समुदाय तूफान, बाढ़ और सुनामी के प्रति कहीं ज्यादा संवेदनशील हो गए हैं।

वहीं इसके विपरीत जिन क्षेत्रों में मैन्ग्रोव में सुधार आया है। वो ज्यादातर प्राकृतिक विस्तार की वजह से हुआ है। आंकड़े दर्शाते हैं कि इनका 82 फीसदी विस्तार प्राकृतिक विस्तार के चलते हुआ है। जबकि इंसानी प्रयासों के चलते 18 फीसदी की बहाली हुई है। इसका सबसे ज्यादा प्रभाव दक्षिण, दक्षिण पूर्व एशिया और अफ्रीका में देखा गया है। जहां मैन्ग्रोव में 25 से 33 फीसदी विस्तार, बहाली गतिविधियों के कारण हुआ था।

इस बारे में एफएओ के वानिकी विभाग के निदेशक झिमिन वू का कहना है कि, "यह नया अध्ययन दर्शाता है कि देश मैंग्रोव के नुकसान को कम करने की दिशा में सकारात्मक कदम उठा रहे हैं, लेकिन साथ ही यह भी रेखांकित करता है कि हमें लोगों और धरती के लिए इनकी महत्वपूर्ण सेवाओं को बनाए रखने के लिए इनकी बहाली, टिकाऊ उपयोग और संरक्षण को प्राथमिकता देना जारी रखना होगा।"

उन्होंने मुताबिक, सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने के साथ तटीय समुदायों के लिए भोजन और जीविका प्रदान करने, प्राकृतिक आपदाओं के खिलाफ हमारी तटरेखाओं की रक्षा करने, कार्बन भंडारण, जलवायु परिवर्तन को कम करने और जैव विविधता की एक असाधारण श्रृंखला को बनाए रखने में मैंग्रोव की भूमिका महत्वपूर्ण है।

जलवायु के दृष्टिकोण से भी हैं अहम

ऐसा नहीं है कि भारत पर इसका असर नहीं पड़ रहा। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दो साल में सुंदरवन के मैन्ग्रोव जंगलों का दो वर्ग किलोमीटर घट गया है, जिसके लिए मछली माफिया भी जिम्मेवार हैं। वहीं एक अन्य अध्ययन में पता चला है कि 2070 तक भारत के पूर्वी और पश्चिमी तट पर कई मैंग्रोव आवास क्षेत्र सिकुड़कर भूमि की ओर स्थानांतरित हो सकते हैं।

रिपोर्ट में इस बात पर जोर  दिया है कि मैन्ग्रोव को होते नुकसान को रोकने के लिए किए जा रहे प्रयास जारी रहने चाहिए। इनके संरक्षण के लिए कृषि को निर्देशित करना जरूरी है। इसके स्थाई उपयोग के साथ-साथ तटीय समुदाय की जीविका पर भी ध्यान देना जरूरी है। जंगलों की बहाली की पहल में मैन्ग्रोव को भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इसमें मैंग्रोव के लिए उपयुक्त आवासों को प्राकृतिक रूप से बसाने और पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली में योगदान करने के लिए अनुकूल स्थितियां बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

चूंकि मैंग्रोव, पृथ्वी पर सबसे अधिक कार्बन-समृद्ध पारिस्थितिक तंत्रों में से एक हैं, जो दुनिया भर में अपने बायोमास और मिट्टी में करीब 6.23 गीगाटन कार्बन को स्टोर करते हैं ऐसे में यह जलवायु के दृष्टिकोण से भी काफी अहम है। यही वजह है कि रिपोर्ट जलवायु शमन से जुड़ी रणनीतियों में भी उन पर और जोर देने की वकालत करती है।