मौसम

जानलेवा हवा

भारत में हीटवेव तीसरी सबसे बड़ी हत्यारन के रूप में उभरी है। इसका दायरा बढ़ रहा है और यह नए-नए क्षेत्रों को चपेट में ले रही है। क्या इसके लिए जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार है?

Anil Ashwani Sharma

धौलपुर का नाम उन लोगों के लिए भी अनजाना नहीं है जो यहां से बहुत दूर रहते हैं। सबसे ज्यादा तापमान के कारण पिछले चार सालों से यह शहर सुर्खियों में रहा है। गर्मियों में यहां का तापमान 46 से 48 डिग्री सेल्सियस के बीच बना रहता है। मैदानी इलाकों में 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान होने पर लू या गर्म हवा (हीटवेव) शुरू हो जाती है। धौलपुर में तापमान की झुलसन महसूस करने के लिए शहर के बीचोंबीच स्थित न्यायालय में जाया जा सकता है। यहां बड़ी संख्या में वकील और मुवक्किल खुले आसमान के नीचे बैठने पर मजबूर होते हैं। सूरज की गर्मी से राहत के लिए टीनशेड लगाया गया है जो तपने में सूरज से भरपूर मुकाबला करता है। यहां 52 वर्षीय रामकुटी अपने दुधमुंहे बच्चे को आंचल की छांव में छुपाए हुए है।

खुले आसमान के नीचे हीटवेव के थपेड़ों के बीच अपनी दूसरी बच्ची को भी साड़ी में समेटे लंबे घूंघट की ओट में अदालती बुलावे की बाट जोह रही है। हीटवेव से बीमार होने का डर नहीं लग रहा? यह सवाल सुनते ही घूंघट को और नीचे खींचते हुए कहती है, “मौत तो इधर भी है और उधर भी। यहां बैठी हूं कि आज मेरे खेत की सुनवाई है। अगर खेत नहीं मिले तो वैसे भी भूख से ही मर जाएंगे। हां, डर लगता है कि यह हीटवेव मेरे बच्चे को लील न जाए।” पिछले चार सालों से यहां का तापमान गर्मियों में लगातार 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहा है। इसी बात की पुष्टि करते हुए स्थानीय पर्यावरणविद अरविंद शर्मा ने बताया कि इस साल (2018) के मार्च में ही यहां का तापमान 39 डिग्री सेल्सियस तक जा पहुंचा था।

धौलपुर जिला अस्पताल में पदस्थ सर्जन धर्म सिंह ने बताया कि मार्च में ही यहां हीटवेव जैसी स्थिति पैदा हो गई है। यही कारण है कि इस साल जनवरी-फरवरी के मुकाबले मार्च-अप्रैल में 40 फीसद अधिक बच्चे व बूढ़े अस्पताल आए हैं। इनमें भी बच्चों के मामले 70 फीसद है। अस्पताल आने वाले ज्यादातर बच्चों को दस्त, बैचेनी और चक्कर आने की शिकायतें हैं।

धौलपुर के पत्थर राजस्थान ही नहीं देशभर में मशहूर हैं। यहां पत्थर की खदानों में काम करने वाले 44 वर्षीय मंगतराम ने बताया कि खदानों में काम करने से पैसा तो मिलता है लेकिन इस पत्थर की गर्मी हम जैसे मजदूरों का शरीर जला डालती है। धर्म सिंह कहते हैं कि मैं उस इलाके से आता हूं जो हीटवेव का सबसे अधिक प्रभावित इलाका है क्योंकि वहां चारों ओर जमीन के नीचे पत्थर हैं। यहां पर काम करने वाले 80 फीसद ग्रामीण हीटवेव के शिकार होते हैं। मनरेगा में काम करने वाले मजदूर भी इसकी चपेट में आते हैं।

हालांकि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने हीटवेव प्रभावित सभी 17 राज्यों को 3 मार्च, 2018 को हीटवेव संबंधी नए दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूर सुबह व शाम की पाली में ही काम करेंगे। निर्देश में कहा गया है, जहां पानी की पूरी व्यवस्था होगी, वहीं पर काम होगा। सिंह बताते हैं कि हीटवेव की समयावधि में पिछले चार सालों में लगातार वृद्धि दर्ज की गई है। यह समयावधि 2015 में जहां 40-45 दिन होती थी, अब बढ़कर 60-70 दिन हो गई है।



सिर्फ पथरीला भूगोल ही पिछले चार साल में धौलपुर को देश का सबसे गर्म जिला बनाने का जिम्मेदार नहीं है। एक समय चंबल के डाकुओं के लिए वरदान बने बीहड़ अब धौलपुर में गर्मी बढ़ा रहे हैं। बीहड़ से लगे पिपरिया गांव के बुजुर्ग मुल्कराज सिर से लेकर पैर तक सफेद धोती से अपने को लपेटे हुए अपनी पान की गुमटी में बैठे बीहड़ की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि न जाने ये बीहड़ कब खत्म होंगे। पहले इनमें डाकुअन राज करते थे अब यहां गर्मी की लहर का राज है। राजस्थान विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के प्रमुख टीआई खान कहते हैं कि यहां दूर-दूर तक जंगल नहीं हैं और बीहड़ों के कारण यहां की जमीन और अधिक ताप छोड़ती है।

अरविंद शर्मा कहते हैं कि धौलपुर में हीटवेव के लगातार बने रहने का एक बड़ा कारण यह है कि चंबल के बीहड़ों के कारण हवा क्रॉस नहीं हो पाती। वह कहते हैं कि एक समय बीहड़ के डाकू देशभर के लिए दहशत का अवतार माने जाते थे। लेकिन आज यहां के आम लोगों के लिए सबसे खूंखार जानलेवा हीटवेव है। यहां के सरकारी कर्मचारी हीटवेव से बचने के लिए तड़के 3-4 बजे ही दफ्तर के लिए निकल पड़ते हैं। हीटवेव के सामने बीहड़ का डर भी कम हो गया है। गरम हवा के खौफ ने डाकुओं का खौफ मिटा दिया है।

हीटवेव का दायरा

अकेले धौलपुर ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी हीटवेव प्रभावित राज्यों में इजाफा हुआ है। एनडीएमए के अनुसार, वर्तमान में देशभर के कुल 17 राज्य हीटवेव से प्रभावित हैं। 2016 में प्रभावित राज्यों की संख्या 13 थी। गुजरात उन राज्यों में शामिल है जहां हीटवेव के मामलों में सबसे ज्यादा तेजी आई है। 2015 में 58, 2016 में 447 और 2017 में यह आंकड़ा 463 पर पहुंच गया है। पूरे देश के आंकड़ों पर भी नजर डालें तो पाएंगे कि पिछले तीन सालों में हीटवेव प्रभावितों की संख्या बढ़ी है। 2015 में देश के 17 राज्यों में कुल 32,831 मामले थे जो 2017 में बढ़कर 39,563 हो गए हैं। ये सरकारी आंकड़े हैं।

इस बारे में टीआई खान कहते हैं कि सरकारी आंकड़े हमेशा कम करके दिखाए जाते हैं। खासकर हीटवेव से होने वाली मौतों के मामले में सरकारी आंकड़ों पर कई सवालिया निशान लगे होते हैं। सरकारी आंकड़ों से यह बात स्पष्ट है कि सरकार के पास भी कोई तय पैमाना हीटवेव से मरने वालों की संख्या बताने का नहीं है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट कुछ और बयान करती है जबकि पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की रिपोर्ट कुछ और आंकड़े पेश करती है।

इस संबंध में गांधी नगर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ के निदेशक दिलीप मावलंकर का कहना है कि देशभर में यह आंकड़ा कहीं अधिक है क्योंकि हीटवेव तथा निर्जलीकरण जैसे सीधे कारणों के अलावा अन्य मामलों की रिपोर्ट कम ही आती है। खान कहते हैं कि सरकार अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए हमेशा आंकड़ों से खिलवाड़ करती है।

इस बात का ताजा उदाहरण है कि मार्च, 2018 में गुजरात में एक महिला की मौत का कारण सरकार ने हीटवेव नहीं बताया। इस साल गुजरात में हीटवेव से मौत की पहली खबर राष्ट्रीय व स्थानीय अखबारों में 25 मार्च को सुरेंद्र नगर से आई, जिसमें दावा किया गया है कि यहां के लक्ष्मीपारा निवासी 75 वर्षीय नूरजहां बेन की शेख भड़ियाद की पीर दरगाह (अहमदाबाद के पास) यात्रा के दौरान हीटवेव से मृत्यु हो गई। उनके परिवार के सदस्य उन्हें स्थानीय सरकारी अस्पताल लिंबडी ले गए, जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। मौत का कारण गर्मी का दौरा बताया गया था।

शेख परिवार के सदस्यों ने आरोप लगाया कि उर्स त्योहार को ध्यान में रखकर तीर्थ यात्रियों के लिए डॉक्टरों की कोई सुविधा नहीं थी। यह हालत तब है जबकि देशभर में सबसे पहले हीटवेव एक्शन प्लान गुजरात में 2013 में शुरू किया गया। गत वर्ष 31 मई, 2017 को एक्शन प्लान को और प्रभावी बनाया गया। गुजरात एक्शन प्लान की सफलता को ध्यान में रखकर ही देश के अन्य राज्यों में भी शुरू किया गया।

अहमदाबाद स्थित मौसम विभाग की वैज्ञानिक मनोरमा मोहंती का तर्क है, “हीटवेव से मृत्यु की संभावना तभी होती है जब तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो। जरूरी नहीं कि मार्च में 75 वर्षीय महिला की मृत्यु हीटवेव से हुई हो।” मौसम विभाग के अनुसार, 25 मार्च 2018 को राज्य के 13 कस्बों का तापमान 40 डिग्री के ऊपर था। वहीं उस दिन सुरेंद्र नगर का तापमान 41.3 डिग्री सेल्सियस रिकॉर्ड किया गया था। उस दिन मौसम विभाग ने सौराष्ट्र और समुद्रतटीय क्षेत्रों में हीटवेव की चेतावनी भी जारी की थी।

गुजरात की इस घटना को मिलाकर एनडीएमए के पास 2018 में 24 अप्रैल तक देश भर में हीटवेव से मरने वालों की संख्या चार है। लेकिन अब तक इसकी पुष्टि प्राधिकरण ने नहीं की है। कारण कि हीटवेव से हुई मृत्य को साबित करने की एक लंबी प्रक्रिया है। नेशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार, भारत में 2010 से 2017 के बीच 9019 लोगों की मृत्यु हीटवेव के कारण हुई। इस आंकड़े के अनुसार, 4 व्यक्ति प्रतिदिन हीटवेव से मरते हैं। आमतौर पर सरकारी अस्पताल भी हीटवेव से मृत्यु का रिकॉर्ड नहीं रखते जिसके कारण सही आंकड़ा नहीं मिल पाता।

अहमदाबाद सिविल अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट एमएम प्रभाकर का कहना है, “हीटवेव की मेडिकल में कोई परिभाषा नहीं है। बीमारी के लक्षण से कहते हैं हीटवेव लग गई, यह बीमारियां अन्य कारणों से भी हो सकती हैं। अन्य सरकारी विभाग हीटवेव से मृत्यु का आंकड़ा तैयार करते हैं अस्पताल नहीं।”

हीटवेव से मौतों के आंकड़े में छत्तीसगढ़ अभी पीछे है। रायपुर में इन दिनों (अप्रैल) पारा 42 डिग्री सेल्सियस के करीब पहुंच गया है। रायगढ़ में पारा 40 पार कर गया। बिलासपुर में अभी 43 तो रायगढ़ में भी 42 डिग्री सेल्सियस पार कर चुका है। पेंड्रा, मैनपाट, जिसे छत्तीसगढ़ का शिमला कहा जाता है, वहां भी इस बार पारा 40 के पार चल रहा है। रायपुर में पारा 42 डिग्री सेल्सियस से ऊपर होने पर आमजन ही नहीं राजनीतिक कार्यकर्ता भी प्रभावित हो रहे हैं। इस बार राज्य में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के प्रवक्ता राजू घनश्याम तिवारी बताते हैं, “चुनावी साल होने के कारण घर-घर जाकर मतदाताओं को जोड़ने का लक्ष्य है। गर्मी इतनी है कि बड़ी संख्या में कार्यकर्ता बीमार हैं।”

हीटवेव केवल बीमार नहीं करती है बल्कि यह गरीब जनता की रोजी-रोटी को भी झुलसाती है। रायपुर के रिक्शाचालक रामू बघेल कहते हैं, “गर्मी ने एक तो ग्राहकी कम कर दी और ऊपर से गर्मी के कारण शरीर भी कमजोर हो चला है।” रायपुर से 40 किलोमीटर दूर स्थित महासमुंद के बागबहरा में 16 अप्रैल, 2018 को एक दिव्यांग की हीटवेव से मौत की खबर तो आई लेकिन अस्पताल ने उसकी पुष्टि नहीं की। इस संबंध में स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार रमेश पांडे ने बताया कि हीटवेव से मरने वालों के आंकड़े कम होने का यही एक बड़ा कारण है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस प्रदेश में मौतें हुई हैं, लेकिन सरकारी आंकड़ों में इन्हें तलाशेंगे तो ये आपको नहीं के बराबर ही मिलेंगे क्योंकि कोई व्यक्ति हीटवेव से मरा है, यह साबित करना आसान नहीं है। डॉक्टर ऐसे मामलों में मरीज की मौत या तो निर्जलीकरण या फिर बुखार या अन्य बीमारी लिख देते हैं। गोल्डन ग्रीन पुरस्कार विजेता पर्यावरणविद रमेश अग्रवाल कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में गर्मी बढ़ने का मुख्य कारण यहां खनन के नाम पर जंगलों की अंधाधुंध कटाई और पानी का अपर्याप्त संरक्षण है।

हरदोई (उत्तर प्रदेश) के लालपुर गांव में दोपहर के डेढ़ बजने वाले हैं और चिलचिलाती धूप में (41 डिग्री सेल्सियस लगभग) 48 साल के रामेश्वर सहित एक दर्जन से अधिक मजदूर गेहूं की फसल काट रहे हैं। इतनी धूप में काम कर हो? इस सवाल पर रामेश्वर कहते हैं कि क्या करें, हम तो मजदूर ठहरे। हमारे लिए खुला आसमान ही छत होता है। ध्यान रहे कि एनडीएमए ने राज्यों को जारी दिशा-निर्देश में कहा है कि खेतिहर मजदूरों से सुबह-शाम काम लिया जाए। लेकिन रामेश्वर कहते हैं कि जब तक इन खेतों में फसल पूरी कट नहीं जाती तब तक तो हमें काम करना ही होगा।



चित्रकूट के पर्यावरण कार्यकर्ता अभिमन्यु भाई बताते हैं कि भीषण गर्मी में फसल काटते समय बड़ी संख्या में मजदूर हीटवेव के शिकार भी हो जाते हैं। उन्होंने बताया कि 2017 में बुंदेलखंड के बांदा और महोबा में पारा 47 डिग्री सेल्सियस तक जा पहुंचा था। इस दौरान दस लोगों की मौत हीटवेव की चपेट में आने से हो गई थी। इसके बाद भी यहां एनडीएमए के हीटवेव संबंधी कोई दिशा-निर्देश अब तक लागू नहीं हुए हैं।

हीटवेव के सबसे बड़े प्रभावित राज्यों आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में पिछले तीन सालों में सरकारी आंकड़ों में मौतों की संख्या में कमी दिखाई गई है। 2015 में 1427, 2016 में 723 और 2017 में 74 लोगों की मौत हुई। इसके अलावा राज्य में हीटवेव के मामलों में भी कमी दर्ज हुई है। यह कमी 2016 के मुकाबले लगभग 82 फीसदी कम है।

वहीं यह ध्यान देने वाली बात है कि आंध्र प्रदेश मौसम विज्ञान विभाग केंद्र के निदेशक वाईके रेड्डी बताते हैं कि पिछले पांच सालों से लगभग हर साल गर्म हवाओं का असर झेलना पड़ा है और ऊपर से इसकी अवधि लगातार बढ़ रही है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि फिर हीटवेव से होने वाली मौतें कम कैसे हो गई हैं। हालांकि जब उनसे यह पूछा गया तो उनका तर्क था कि राज्य में एक्शन प्लान युद्धस्तर पर चलाया जा रहा है। यही कारण है मौत की संख्या में कमी का।

आंध्र और तेलंगाना पर नजर रखने वाले पर्यावरणविद प्रशांत कुमार कहते हैं कि हीटवेव को प्राकृतिक आपदा नहीं माना जा सकता। यह विभिन्न चरणों में आती है और इसका आना एक प्राकृतिक घटना है।

बड़ी आपदा

हीटवेव की संख्या, मामले और इससे होने वाली मौतों की संख्या से भारत में इसे अब एक बड़ी आपदा के रूप में देखा जा रहा है। देश के 24 राज्यों में पिछले साढ़े तीन दशक में हीटवेव की संख्या में लगातार हुई है। उदाहरण के लिए 1970 में 24 राज्यों में 44 मर्तबा हीटवेव ने दस्तक दी। जबकि 2016 में यह बढ़कर 661 हो गई।

यदि हीटवेव की संख्या को देखें तो देश के 10 ऐसे राज्य हैं, जहां सबसे अधिक हीटवेव आई है। हीटवेव की संख्या के मामले में पहले नंबर पर महाराष्ट्र है, जहां पिछले 37 सालों में यह संख्या 3 से बढ़कर 87 हो गई है। इस संबंध में राजस्थान विश्वविद्यालय में पर्यावरण विभाग के प्रमुख टीआई खान कहते हैं कि भविष्य में इसके दिनों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी होगी। कारण कि इसे रोकने के लिए न तो अब तक सरकारी प्रयास किए गए हैं और न ही इस संबंध में कोई शोध कार्य किए गए। देशभर में हीटवेव की संख्या दिनों दिन बढ़ने के पीछे क्या जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार है?

इस संबंध में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर में सेंटर फॉर एनवायरमेंट साइंस एंड इंजीनियरिंग के प्रोफेसर साची त्रिपाठी ने कहा, “जलवायु परिवर्तन क्या है? वास्तव में यह एक एनर्जी बैलेंस था, वह बैलेंस अब धीरे-धीरे हट रहा है। पहले पृथ्वी में जितनी ऊर्जा आती थी उतनी ही वापस जाती थी। इसके कारण हमारा वैश्विक तापमान संतुलित रहता था। लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद जैसे-जैसे कार्बन डाईऑक्साइड वातावरण में बढ़ा, इसके कारण एनर्जी बैलेंस दूसरी दिशा में चला गया और इसके कारण हमारे वातावरण में एनर्जी बढ़ गई। इसका नतीजा था वैश्विक तापमान में वृद्धि।”

वह बताते हैं कि वैश्विक तौर पर एक डिग्री तापमान बढ़ा है। इसे यह कह सकते हैं कि यह औसत रूप से एक डिग्री बढ़ा है। इसका अर्थ है पृथ्वी के किसी हिस्से में यह 0.6 तो कहीं 1.8 या कहीं 2 डिग्री सेल्सियस भी हो सकता है। उदाहरण के लिए यदि अप्रैल में दिल्ली का तापमान 38 डिग्री सेल्सियस है और ऐसी स्थिति में यदि दो डिग्री सेल्सियस बढ़ता तो कुल मिलाकर दिल्ली का तापमान चालीस पहुंच जाता। ऐसे में हीटवेव की स्थिति पैदा हो जाती। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं हीटवेव की संख्या बढ़ाने में जलवायु परिवर्तन एक बड़ा कारक सिद्ध हो रहा है।

हीटवेव के मामले ( हीटवेव से होने वाली बीमारी) तेजी से बढ़े हैं। देश के पांच ऐसे राज्य हैं, जहां इन मामलों में तेजी से इजाफा हो रहा है। पहले नंबर पर तेलंगाना, जहां 2015 में 266 तो 2017 में बढ़कर 20,635 हीटवेव के मामले दर्ज किए गए। जबकि मध्य प्रदेश में 2015 में केवल 826 मामले दर्ज किए गए थे, वहीं 2016 में ये बढ़कर 2,584 हो गए। इसी प्रकार से झारखंड और छत्तीसगढ़ में भी क्रमश: 40 व 10 फीसदी हीटवेव के मामले बढ़े हैं। तमिलनाडु में जहां 2015 में एक भी हीटवेव का मामला सामने नहीं आया था, वहीं 2016-17 में क्रमश: 117 व 110 मामले दर्ज किए गए। इस संबंध में तमिलनाडु मौसम विज्ञान विभाग के क्षेत्रीय निदेशक प्रदीप जॉन ने बताया कि पिछले एक दशक से अब इस राज्य में भी हीटवेव की स्थित पैदा होने लगी है।

हीटवेव से भारत में होने वाली मौतों के आंकड़े बहुत भयावह हैं। पिछले 26 सालों का रिकॉर्ड देखें तो हीटवेव से होने वाली मौत के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं। 1992 में हीटवेव से देशभर में 612 मौतें दर्ज की गईं। जबकि 2015 में यह बढ़कर 2,422 हो गई। हालांकि इसके बाद सरकार द्वारा हीटवेव एक्शन प्लान लागू करने के बावजूद 2016 में 1,111 और 2017 में 222 मौतें दर्ज हुईं। हीटवेव से हुई मौतों की संख्या जहां 1992 में केवल 612 थी, वहीं 1995 में बढ़कर 1,677 और 1998 में बढ़कर 3,058 जा पहुंची। 2000 से लेकर 2005 तक भी मौतों का प्रतिशत लगातार बढ़ा। 2006 में जहां 754 हीटवेव से मौतें हुईं, वहीं 2015 में इसका प्रतिशत बढ़कर 3 गुना अधिक हो गया।


जलवायु परिवर्तन का हाथ

सिर्फ मैदानी राज्य ही हीटवेव से नहीं झुलस रहे हैं। अब तो धरती के जन्नत का दर्जा पाए जम्मू और कश्मीर से लेकर देवभूमि उत्तराखंड भी इससे प्रभावित हैं। एचएनबी केंद्रीय गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूवैज्ञानिक एसपी सती कहते हैं कि वैश्विक तापमान के कारण वैश्विक स्तर पर तापमान में वृद्धि हो रही है। लेकिन उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में हर साल गर्मी के महीनों में लगने वाली भीषण आग से पूरा पहाड़ और हिमालयी हिमनद भी प्रभावित हो रहे हैं।

मौसम विभाग के अनुसार, देहरादून में फरवरी, 2018 के महीने में अधिकतम तापमान 29 डिग्री तक पहुंच गया तो मार्च के महीने में पारा 35 डिग्री पार कर गया। उत्तराखंड में 15 फरवरी, 2018 से शुरू हुए फायर सीजन से 1 अप्रैल, 2018 तक जंगल में आग लगने की 223 घटनाएं सामने आईं। मौसम विभाग ने इस वर्ष पहले ही जंगल में आग लगने की घटनाओं में तेजी आने की चेतावनी दे दी थी।

देहरादून मौसम विभाग के निदेशक बिक्रम सिंह कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के संयुक्त प्रभाव के कारण मौसम के पैटर्न में बदलाव आया है। 2018 के जनवरी से मार्च तक उत्तराखंड में बारिश सामान्य से 66 फीसद कम रही है। बारिश कम यानी बर्फबारी भी कम। नतीजतन गर्मियों में गर्म हवा और हीटवेव का प्रकोप बढ़ रहा है। सिंह बताते हैं कि जब मैदानी क्षेत्रों में अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाता है तो उसे हम हीटवेव कहते हैं। समुद्री तटों पर यह स्थिति 37 डिग्री से अधिक तापमान पर मानी जाती है। जबकि पवर्तीय क्षेत्रों में 30 डिग्री से अधिक तापमान होने पर हीटवेव की अवस्था मानी जाती है।

आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर कृष्णा अच्युतराव कहते हैं कि वास्तव में जलवायु परिवर्तन के कारण ही हीटवेव की भयंकरता बढ़ी है। उन्होंने बताया कि 2015 में हीटवेव से हुई दो हजार से अधिक मौतों के लिए जलवायु परिवर्तन पूरी तरह से जिम्मेदार है। क्योंकि जलवायु परिवर्तन ने ही हीटवेव की गर्मी की लहरों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वह कहते हैं, इस संबंध में 2016 में एक शोधपत्र तैयार किया गया। इस शोध पत्र को तैयार करने में मैं सीधे तौर पर जुड़ा हुआ था।

इसी शोधपत्र में यह निष्कर्ष निकाला गया। वह बताते हैं कि भारत में हमेशा से हीटवेव होती आई है। भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में हीटवेव की तीव्रता, आवृत्ति और अवधि में वृद्धि दर्ज हुई है, जबकि देश के अन्य ऐसे क्षेत्र हैं, जहां बहुत अधिक नहीं बढ़ी है। इसमें कमी भी नहीं हुई है।

कृष्णा के अनुसार, हीटवेव से मौत के लिए प्रमुख कारक के रूप में एक संभावित कारण यह है कि उच्च तापमान वाली घटनाओं में आर्द्रता बढ़ी है। इससे मानव शरीर पर बहुत ही भयंकर असर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन से आर्द्रता बढ़ने की भी उम्मीद है। वर्तमान में आर्द्रता का अतिरिक्त प्रभाव पूर्वानुमानों से नहीं लिया जाता। क्योंकि भारत में अभी कई अन्य देशों की तरह हीटवेव और आर्द्रता को अलग-अलग रूप से परिभाषित नहीं किया जाता। इसका सीधा मतलब है कि हीटवेव या गंभीर हीटवेव की चेतावनियां प्रभावित क्षेत्र के लोगों के सामने नहीं आ पातीं और वे इसके शिकार हो जाते हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण ही हीटवेव के दिनों में वृद्धि (40-65 दिन) हुई है। इस बात के समर्थन में आईआईटी गांधीनगर के प्रोफेसर विमल कुमार कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण ही भारत में हीटवेव की आवृत्ति में बढ़ोतरी हुई है। इसका कारण बताते हुए विमल कुमार कहते हैं कि इसके पीछे मुख्य कारण है कि भारत में हीटवेव संबंधी प्रारंभिक चेतावनी समय पर नहीं दी जाती। उनका कहना है कि अब भी लोग यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि हीटवेव मानव और जानवरों को मार देती है। हीटवेव की तुलना में बाढ़ और चक्रवात जैसी आपदाओं से निपटने के लिए हम बेहतर रूप से तैयार हैं।

पश्चिम राजस्थान के जाडन गांव की 58 वर्षीय जमना बाई दिहाड़ी मजदूर हैं, उनकी मानें तो वह 16 साल की उम्र से मजदूरी कर रहीं हैं। उन्होंने जीवन में मौसम को लेकर कई बदलाव देखे हैं, पर वह अब कहती हैं कि विगत कुछ सालों में मजूरी के समय हीटवेव के थपेड़ों को वह सन नहीं कर पा रहीं। साथ ही वह कहती हैं कि तेज आंधी ने तो हमारे इलाके की रेतीले टीले को न जाने कहां गायब कर दिया है। अब तो रात भी गर्म होती है। पहले रात में हम 12 बजे के बाद रजाई रखते थे।

इस संबंध में जोधपुर उच्च न्यायालय में पर्यावरणीय विषयों पर लगातार जनहित याचिका दायर करने वाले प्रेम सिंह राठौर बताते हैं, पिछले एक दशक से इस इलाके में रेतीले टीले खत्म होते जा रहे हैं। तेज आंधी से दूर होते जा रहे हैं। ऐसे में अब इस इलाके में बस ठोस जमीन बच रही है जिसे ठंडी होने में समय लगता है। जबकि जब रेत थी तो वह जितनी तेजी से गर्म होती थी उतनी ही तेजी से ठंडी भी हो जाती थी।

राजस्थान विश्वविद्यालय के इंदिरा गांधी पर्यावरण एवं मानव परिस्थितिकी विभाग के प्रमुख टीआई खान हीटवेव के बढ़ने का कारण वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़ने को मानते हैं। इसके अलावा उनका कहना है कि हीटवेव से प्रभावितों की संख्या बढ़ने का मुख्य कारण है कि प्रशासन का गैर जिम्मेदार होना। खान कहते हैं कि औद्योगिक क्रांति के पूर्व 1752 में कार्बन डाईऑक्साइड का वातावरण में स्तर 280 पीपीएम था। अब नासा ने 28 मार्च, 2018 को जो आंकड़े जारी किए हैं, उसके अनुसार कार्बन डाईऑक्साइड 406 पीपीएम है। इसका मतलब हुआ कि 68 फीसदी कार्बन की मात्रा में इजाफा हुआ है।

इसके अलावा जंगलों को काटना शुरू कर दिया गया है जो कार्बन को सोखने वाले प्रमुख कारक थे। हीटवेव का संबंध हवा की दिशा, उसकी तेजी और उसके तापमान से है। तीनों कारक जब एक साथ अटैक करते हैं तो वह हीटवेव की शक्ल में बाहर आता है। इसका आकलन करने के लिए बायोलॉजिकल इंडिकेटर पर भी ध्यान देना होगा। इसका मतलब है कि जिस इलाके में हीटवेव के आने की संभावना होती है, वहां से पशु-पक्षी, जीव-जंतु आदि का पलायन हो जाता है। वे किसी को बताते नहीं हैं, बस उनको अहसास हो जाता है और पलायन कर जाते हैं। पिछले पांच सालों और पचास सालों का औसत देखेंगे तो दोनों में 0.8 डिग्री सेल्सियस का अंतर होगा।

तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में हीटवेव पर लगातार नजर रखने वाले पर्यावरणविद प्रशांत कुमार कहते हैं कि यह मुख्य कारण है गर्मी बढ़ने का। औसतन तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। हीटवेव का मतलब होता है एक जगह पर कुछ समय तक गर्मी का लगातार बने रहना। उनके अनुसार, 2017 में भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) ने एक नया इंडेक्स बनाया है। इससे वह निश्चत करते हैं हीटवेव की ताकत कितनी है। कौन सी चीज कितनी खतरनाक है। हीटवेव का असर शहरों में अधिक दिखता है। कारण कि शहर में कंक्रीटीकरण तेजी से बढ़ रहा है। वह कहते हैं कि वास्तव में देखा जाए तो हीटवेव समाज की असमानता को भी इंगित करती है। जैसे हीटवेव से सबसे अधिक प्रभावित दिहाड़ी, खेतिहर, परिवहन और निर्माण कार्यों में लगे मजदूर होते हैं।

यही वर्ग हीटवेव का सबसे अधिक शिकार होता है। कारण कि इनकी न्यूट्रीशन वैल्यू बहुत कम होती है। यहां तक कि अब एनडीएमए ने भी यह माना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हीटवेव की गर्मी बढ़ रही है। इससे धरती का तापमान ही नहीं बढ़ रहा है बल्कि इससे अन्य कारक नष्ट भी होते जा रहे हैं। पहले 15 अप्रैल से 15 जून तक ही हीटवेव का समय होता था। अब इसमें लगातार वृद्धि देखी जा रही है। हालांकि एनडीएमए के अधिकारी ने यह भी कहा कि हमारे पास अब तक इस बात के पुख्ता शोध नहीं है कि इसे हम दावे से कहें।

केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने जलवायु परिवर्तन पर इंडियन नेटवर्क फॉर क्लाइमेट चेंज असेसमेंट की रिपोर्ट में चेताया है कि पृथ्वी के औसत तापमान का बढ़ना इसी प्रकार जारी रहा तो आने वाले सालों में भारत को दुष्परिणाम झेलने होंगे। पहाड़, मैदान, रेगिस्तान, दलदल वाले इलाके व पश्चिमी घाट जैसे समृद्ध इलाके ग्लोबल वार्मिंग के कहर का शिकार होंगे और भारत में कृषि, जल, पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता व स्वास्थ्य ग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न जटिल समस्याओं से जूझते रहेंगे। मौजूदा तंत्र ऐसे ही चलता रहा तो वर्ष 2030 तक धरती के औसत सतही तापमान में 1.7 से लेकर 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि असंभावी है जो मानव जाति ही नहीं वरन पशु-पक्षियों और अन्य जीवों के लिए बेहद हानिकारक साबित होगी।

जलवायु परिवर्तन के अंतराष्ट्रीय पैनल के मुताबिक, विश्व के औसत तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में रुकावट न होने की वजह से जलवायु में कई परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं, जो स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। भारत में हीटवेव से ह्दय एवं सांस संबंधित रोग बढ़ रहे हैं। डेंगू, मलेरिया, डायरिया, चिकनगुनिया, जापानी इंसेफ्लाइटिस, वायरल और हेपेटाइटिस जैसी बीमारियां महामारी का रूप अख्तियार करती जा रही हैं।

हीटवेव एक्शन प्लान

2015 में जब हीटवेव का सबसे अधिक प्रकोप देश को झेलना पड़ा तब राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अथॉरिटी (एनडीएमए) ने पहली बार वृहद स्तर पर हीटवेव एक्शन प्लान बनाया। इस हीटएक्शन प्लान में 11 राज्यों को शामिल गया था। 2017 हीटवेव से प्रभावित राज्यों की संख्या 17 हो गई। हालांकि यह अपने आप में एक विरोधाभाष है कि हीटवेव को एनडीएमए की 12 आपदाओं में शामिल नहीं किया गया है। इस संबंध में एनडीएमए के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि केंद्रीय वित्तीय आयोग के अनुसार 12 आपदाओं को शामिल किया है लेकिन हीटवेव शामिल नहीं है।

कई ऐसी आपदाएं हैं, जिनके संबंध में पहली बार केंद्रीय वित्तीय आयोग ने सुझाव दिया है कि राज्य सरकार उन आपदओं को परिभाषित करें और अपने स्तर पर उसे आपदा घोषित करे, जिन्हें 12 आपदाओं में शामिल नहीं किया गया है। इस संबंध में चूंकि यह व्यवस्था की गई है कि एनडीआरएफ व एसडीआरएफ का फंड केवल आपदा के लिए ही खर्च हो सकता है। ऐसे में कमीशन ने यह व्यवस्था दी है कि वह एसडीआरएफ फंड का 10 प्रतिशत राज्य अपने द्वारा घोषित आपदा पर खर्च कर सकता है। जैसे लाइटनिंग, हीटवेव आदि को राज्य आपदा घोषित कर इस फंड की 10 प्रतिशत की राशि आपदा प्रभावितों के बीच बांट सकता है।

अधिकारी ने बताया कि पहले सबसे अधिक प्रभावित पांच राज्यों (गुजरात, आंध्र, तेलांगना, गुजरात, ओडिशा) में हीटवेव से हुई मौत के लिए मुआवजे की भी व्यवस्था की गई। आंध्र प्रदेश में एक लाख, ओडिशा में 30 हजार रुपए का मुआवजा दिया जाता है।

इस संबंध में उत्तर प्रदेश शासन के राजस्व शासनादेश संख्या 303, 27 जून 2016 को जारी किया। इसमें हीटवेव के प्रकोप को राज्य आपदा माना गया है। इसके तहत पीड़ित व्यक्ति या उसके परिजनों को सहायता राशि देने का प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार हीटवेव लगने से मौत होने पर चार लाख रुपए की मदद मृतक के परिवार को दी जाएगी। इस संबंध में कानपुर देहात के जिलाधिकारी राकेश कुमार सिंह ने बताया कि इस बार हीटवेव से निपटने के लिए किए एनडीएमए द्वारा भेजे गए दिशा-निर्देशों का पालन किया गया है। इस संबंध में उन्होंने बताया कि राज्य सरकार ने आपदा प्रबंधन के अंतर्गत 2018-19 के लिए 3 करोड़ 60 लाख जारी किए हैं। यह 23 हीटवेव प्रभावित जिलों के लिए है। जबकि 2016-17 में 1 करोड़ 85 लाख रुपए जारी किए गए थे।

छत्तीसगढ़ के बी.आर. आंबेडकर अस्पताल की स्वास्थ्य अधिकारी शुभ्रा सिंह ठाकुर बताती है जब हीटवेव लगती है तो लोगों के शरीर में पानी की कमी या अन्य कारण दिखाई देता है और कई बार समय पर सही इलाज नहीं होने पर मौत भी हो जाती है। हीटवेव प्रभावित मरीजों के लिए यहां इमरजेंसी सेवाओं से लेकर आईसीयू तक पर्याप्त संख्या में हैं। इसके कारण इस प्रकार के मरीजों के आते ही उसे उचित उपचार मिल जाता है। इस वजह से पिछले कई वर्षों में इस अस्पताल में हीटवेव से मरने की बात सामने नहीं आई है।

अहमदाबाद में म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के साथ मिलकर साउथ एशिया फर्स्ट एक्शन प्लान 31 मई 2017 को लागू किया गया। इस प्लान के बारे में दिलीप मावलंकर ने बताया कि मौसम विभाग के साथ मिलकर 43 डिग्री के ऊपर तापमान जाने पर इसे ऑरेंज अलर्ट घोषित किया गया जबकि यह पारा 48 डिग्री पहुंचने पर रेड अलर्ट घोषित किया गया। अब देश के 100 से ज्यादा स्थानों पर 300 शहरों में मौसम विभाग के साथ मिलकर लोगों को मौसम का अलर्ट जारी करने का काम किया जा रहा है।

हालांकि एनडीएमए के एक अधिकारी का कहना है कि जब से मुआवजे की बात आई है तब से हीटवेव से हुई मौत के बारे में कई गलत रिपोर्टिंग होती है। इसके लिए उन्होंने चेक एंड बैलेंस करने के लिए एक नया दिशा-निर्देश गाइड लाइन में शामिल किया है। उदाहरण के लिए यदि हीटवेव से कोई मौत होती है तो मृतक को सबसे पहले अस्पताल ले जाएगा और डॉक्टर बताएगा किस तरह की मौत है। लेकिन सवाल उठता है जो गरीब लोग अस्पताल पहुंचने की ही स्थिति में ही न हों तो उनका क्या किया जाए। उदाहरण के लिए किसी की मौत गांव में हो जाती है तो उसके बारे में जानकारी कैसे होगी।

ऐसे में एनडीएमए ने इसके लिए जिला स्तर पर एक कमेटी बनाई जिसमें जिलाधीश डॉक्टर, राजस्व अधिकारी, बीडीओ, जनप्रतिनिधि व सिविल सोसायटी को कोई एक व्यक्ति हो सकता है। यह कमेटी जांच करेगी और उसकी रिपोर्ट के आधार पर ही संबंधित पीड़ित के परिवार को मुआवजा दिया जाएगा। कमेटी पता करेगी कि स्थानीय तापमान के अलावा व्यक्ति कब से बीमार है, उसकी मौत स्वाभाविक है या कोई और कारण इसके लिए जिम्मेदार है। एज फैक्टर व तापमान के साथ-साथ उमस की स्थिति का भी आकलन किया जाएगा।



अधिकारी ने बताया कि उदाहरण के लिए यदि तापमान 37 डिग्री सेल्सियस है और उसमें 90 प्रतिशत उमस है तो ऐसे में मरीज का शरीर सुविधाजनक स्थिति में नहीं होगा क्योंकि ऐसी स्थिति में व्यक्ति 63 डिग्री सेल्सियस तापमान महसूस करेगा। यदि तापमान 45 डिग्री सेल्सियस है और उमस 20 प्रतिशत है तो ऐसे में व्यक्ति को अधिकतम 43 डिग्री सेल्सियस तापमान का अहसास होगा। आमतौर पर शरीर 37 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में आराम की स्थिति में होता है लेकिन इसके बाद जैसे-जैसे इसमें वृद्धि होती जाती है वह असुविधाजनक स्थिति में जाने लगता है।

जहां तक हीटवेव से होने वाली मौतों की गलत रिपोर्टिंग की बात है तो 2016 में ओडिशा में 66 मौत के बारे में दावा किया गया है। लेकिन जब जिला कमेटी ने इसकी छानबीन की तो यह संख्या घटकर 36 मिली। इस कार्य में स्थानीय नौकरशाही से लेकर स्थानीय राजनीतिज्ञ शामिल होते हैं। एक मौत की जांच रिपोर्ट बहुत ही वृहद स्तर पर बनती है। उदाहरण के लिए एक मौत के केस की रिपोर्ट लगभग 124 पेज तक होती है।

एनडीएमए के अधिकारी ने बताया कि एनएमडीए ने मौसम विभाग व स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ मिलकर एक रूपरेखा बनाई है। विशेषकर आईएमडी साथ। मौसम के पूर्वानुमान की स्थिति में एक नया तरीका इजाद किया गया है। अब वह पांच स्तर पर पूर्वानुमान जारी करता है। आईएमडी ने चौदह शहरों को नामांकित किया हुआ है, जहां अधिकतम तापमान होने से नुकसान हो सकता है। इस साल 2018 के अंत ऐसे 100 शहरों को चिन्हित करने का लक्ष्य रखा गया है।

इसके अलावा स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ एनडीएमए ने काम शुरू किया है, जिसके तहत देशभर के सभी जिलों के जिला अस्पताल की निगरानी करना है। इससे देशभर के हीटवेव संबंधी आंकड़े तुरंत मिलेंगे। 2017 में एनडीएमए ने विश्व मौसम विभाग के साथ मिलकर एक नई रूपरेखा तैयार की है। कलर कोडिंग के तहत भी अब हीटवेव की जानकारी लोगों को मुहैया कराई जा रही है। इसके लिए इलेक्ट्रॉनिक सूचनात्मक बोर्ड हीटवेव इलाकों में लगाए गए हैं। कलर कोड में चार कलर का उपयोग किया गया है, जैसे- हरा, पीला, नारंगी और लाल। ये हीटवेव की अलग स्टेज को चिन्हित करते हैं।

एनडीएमए ने लगातार बढ़ रही हीटवेव को ध्यान में रखते हुए अब अकेले आदमी ही नहीं पशुओं को भी बचाने के लिए भी 2017 में दिशा-निर्देश जारी किए हैं। जानवरों के लिए भी शेड की व्यवस्था की गई है। कुछ राज्यों ने तो चारे की भी व्यवस्था की है। अगर इन दिशा-निर्देशों का ईमानदारी से पालन किया जाता है तो नि:संदेह हीटवेव से मौत का आंकड़ा कुछ कम जरूर होगा।

लेकिन यह डर भी बना हुआ है कि जो हाल अक्सर सरकारी योजनाओं और दिशा-निर्देशों का होता आया है, कुछ वैसा ही हश्र एनडीएमए की पहल का भी न हो क्योंकि योजना बनाना और उन्हें धरातल पर उतारना दो अलग-अलग पहलू हैं।