उमेश कुमार राय
शहरों और कस्बों में मौसम के मिजाज को पकड़ने के लिए मौसम विज्ञानी रडार से मिलनेवाली जानकारियों का विश्लेषण करते हैं। लेकिन, शहरों के नक्शे से दूर बीहड़ों में रहनेवाले आदिवासी मौसम विज्ञानियों के पूर्वानुमान पर निर्भर नहीं रहते। इनके पास देसी तरकीब है, जिसका इस्तेमाल ये सदियों से करते आए हैं। इनका दावा है कि मौसम विज्ञान विभाग की तरह इनका अनुमान गलत नहीं होता है।
पिछले दिनों बिहार के गया जिले के फतेहपुर के अलगडीहा गांव एक टोले में जाना हुआ, जहां मुंडा बिरादरी के आदिवासी रहते हैं। इस टोले में 38 परिवार रह रहे हैं और सभी मुंडा समुदाय से आते हैं। ये लोग करीब डेढ़ दशक पहले झारखंड से यहां आकर बस गए। ये यहां मिट्टी और फूस से घर बनाकर रहते हैं। सरकार की तरफ से बिजली और पानी जैसी बुनियादी सहूलियतें भी इन्हें नहीं मिली है।
आदिवासियों से बातचीत हो ही रही थी कि उन्हीं में से कुछ लोगों ने गुजारिश की कि उनके साथ पास के जंगल में चला जाए। मैं भी तैयार हो गया। महज कुछ कदम चलने के बाद वो जगह आ गई। वहां कई पेड़ खड़े थे और उनकी डाल से मिट्टी के घड़े बंधे हुए थे।
पेड़ से बंधे घड़ों को देखकर मुझे कौतुहल हुआ। मैं उनसे इसका रहस्य पूछना ही चाह रहा था कि उन्होंने खुद ही बताना शुरू कर दिया।
दरअसल, उस घड़े का इस्तेमाल आदिवासियों ने बारिश की संभावनाओं का पता लगाने के लिए किया था और इसके बाद उन्हें यहां पेड़ से टांग दिया था, क्योंकि इन घड़ों को तोड़ने की रवायत आदिवासियों में नहीं है।
आदिवासियों में से एक सिरका मुंडा जो इस टोले के सरदार भी हैं, बताते हैं, ‘अप्रैल के महीने में हमलोग बारिश का पता लगाते हैं। इसके लिए बिल्कुल नये घड़े में पानी डालते हैं और उसमें एक लकड़ी को खड़ा कर डाल देते हैं। उस लकड़ी को सपोर्ट करने के लिए उसकी दोनों तरफ दो लकड़ियां घड़े के ऊपर रखते हैं ताकि लकड़ी पानी में सीधी खड़ी रहे। लकड़ी जहां तक डूबी रहती है, वहां एक निशान लगा दिया जाता है।’
लकड़ी में लगे निशान से आदिवासी अनुमान लगाते हैं कि बारिश होगी कि नहीं और होगी तो कितनी होगी।
सिरका मुंडा बताते हैं कि अगर घड़े का पानी लकड़ी में लगे निशान से नीचे चला जाता है तो इसका मतलब है कि बारिश कम होगी। वहीं अगर पानी ज्यों का त्यों रहा, तो इससे आदिवासी ये अनुमान लगाते हैं कि बारिश ठीकठाक होगी।
क्या घड़े का पानी ये भी बताता है कि आंधी आएगी कि नहीं, इस सवाल पर सिरका मुंडा कहते हैं, ‘बिल्कुल बताता है। अगर आंधी-तूफान आनेवाला होता है, तो घड़े के बाहरी हिस्से में पानी का रिसाव होने लगता है। अगर पूरब की तरफ रिसाव हुआ, तो मतलब है कि पूरब से आंधी आएगी। इसी तरह जिन दिशाओं से रिसाव होगा, उन्हीं दिशाओं से तूफान आने का पूर्वानुमान हमलोग लगाते हैं।’
मौसम का अनुमान लगाने का रिवाज एक पूजा का हिस्सा है, जो अप्रैल में ही की जाती है। इसे मुंडा आदिवासी सरूल कहते हैं। ये मूलतः प्रकृति पूजा होता है।
आदिवासियों ने बताया कि तीन दिन चलनेवाली पूजा के दूसरे दिन घड़े में पानी भर उसमें लकड़ी सीधा कर रखा जाता है। तीसरे दिन सुबह में आदिवासी उस घड़े के पानी का मुआयना करते हैं। इसी पानी से उसी दिन खिचड़ी भी बनती है। सुरूल पूजा में शामिल होनेवाले सभी लोगों को खिचड़ी का प्रसाद दिया जाता है और घड़े को किसी पेड़ में टांग दिया जाता है।
सिरका मुंडा से जब हमने पूछा कि क्या कभी उनका अनुमान गलत हुआ है, तो उन्होंने कहा, ‘हमारे पुरखे सदियों से इसी तरकीब से मौसम का पता लगाते आ रहे हैं और हम भी ऐसे ही मौसम का मिजाज जान लेते हैं। हमें कभी धोखा नहीं मिला है। घड़े के पानी को देखकर ही हम ये भी तय करते हैं कि कौन-सी फसल मौसम के अनुकूल रहेगी।’