मौसम

चौमास कथा-5: उमड़-घुमड़ घन गरजन लागे

मानसून ही भारतीय उपमहाद्वीप की धरती को शस्यश्यामल बनाता है, पुष्पेश पंत का विशेष आलेख-

Pushpesh Pant

हमारे देश हिन्दुस्तान की जिन्दगी मानसून अर्थात वर्षा ऋतु के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी रही है। मानसून मूल अरबी शब्द मौसम से उपजा है। कई हजार साल से यह मौसमी हवाएं ही अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में बड़ी-बड़ी नौकाओं का आवागमन संभव बनाती थीं जो महासागर मार्ग दक्षिण-पूर्व एशिया को भारत के माध्यम से अरब संसार अफ्रीका और रोम से जोड़ता था, वह मानसून द्वारा निर्मित पथ ही था। यह बात भी भुलाई नहीं जा सकती कि भारतीय उपमहाद्वीप की धरती को शस्यश्यामल भी मानसून ही बनाता है। यदि वर्षा जल से भरे बादल, जो मानसूनी हवाओं के साथ दक्षिण से उत्तर की ओर आते हैं और हिमालय से टकराकर यही बरस जाते हैं, उन्हीं ने यहां की धरती को इतना उपजाऊ बनाया, जहां अनेक महान सभ्यताएं विकसित हुईं। यदि ऐसा नहीं होता तो भारत भी तिब्बत की तरह एक सर्द रेगिस्तान बन कर रह जाता।

यह स्वाभाविक ही है कि भारत के जीवन में मानसून रचा बसा है, लोक अथवा शास्त्रीय संगीत, नृत्य, चित्रकला, खान-पान सर्वत्र इसकी छटा बिखरी है। कालिदास की कालजयी रचना “मेघदूत” के पहले ही श्लोक में विरही यक्ष अषाढ़ के पहले दिन आसमान में घुमड़ते बादलों के खेल में जूझते हाथियों के दर्शन कर लेता है। सदियों बाद जयदेव के “गीत गोविंद” के आरंभ में भी हम राधा का काले बादलों से घिरे अंधेरे के कारण भयभीत हो घर लौटने के बहाने कृष्ण को अभिसार का निमंत्रण देना सहज स्वीकार करते हैं। लोक संगीत में कजरी, सावन, झूले, तीज उस उल्लास को मुखर करते रहे हैं जो झुलसी धरती पर पानी की बौछार से नवजीवनदान से प्राप्त होता है।

देश के अनेक प्रदेशों में बारहमासा की परंपरा है, जिसमें वर्षाऋतु का सजीव चित्रण है। अनेक समर्थ कवियों ने नायक-नायिका की मनोदशा का चित्रण इस पृष्ठभूमि में किया है। सीता के हरण के बाद तुलसीदास राम के माध्यम से यह रेखांकित करते हैं कि वर्षाऋतु वियोगी हृदय को कितना संतप्त देती है। मार्मिक पंक्तियां हैं, ‘घन-घमंड नभ गर्जत घोरा, पियाहीन मन दरपत मोरा।’ इसी तरह सूरदास भी जब कृष्ण के मथुरा छोड़ द्वारका जाने का प्रसंग पाठकों के साथ साझा करते हैं तब बेचारी गोपिकाओं की आंखों के आंसू उन्हें किसी ऋतु का रूपक बांधने की प्ररेणा देते हैं। गोपियां उद्धव से कहती हैं, ‘निसिदिन बरसत नैन हमारे। सदा रहत पावस ऋतु हम पर जबते श्याम सिधारे।’

जनभाषा में बोली मुहावरों में आम आदमी ने वर्षा को अपने तरीके से ग्रहण किया है। मसलन, सावन के अंधे को सब हरा ही हरा नजर आता है, बरसों राम धड़ाके से बुढ़िया मर गई फाके से।

जहां एक ओर उस्ताद अमीर खां मेघ मल्लार राग में समा बांधते हैं, ‘उमड़ घुमड़ घन गर्जन लागे’ तो वहीं दूसरे छोर पर फिल्मी तराने दर्शकों-श्रोताओं को तरोताजा बनाते रहे है, ‘बरखा बहार आई रस की फुहार लाई ओ सजना।’‘रिमझिम के तराने ले कर आई बरसात’आदि। भारतीय उप महाद्वीप का जो भू-भाग वर्षा से वंचित रहता है, वहां के निवासी चित्रों के माध्यम से बादलों को स्पर्श करते रहे हैं या चमकती बिजली को देखने की चेष्टा। एक तरफ कुम्भलगढ़ में पहाड़ की चोटी पर बादल महल बना है तो इसी नाम से एक महल बीकानेर में भी देखने को मिल जाता है।

ऐसा नहीं कि हिन्दुस्तानियों को इस बात का एहसास नहीं था कि मानसून के कारण जीवन कितना कठिन बन जाता है। नदी-नालों में बाढ़ उफनने लगती है, कच्चे रास्तों में जमा फिसलनदार कीचड़- दलदल जैसी चुनौती पेश करती हैं। सांप-बिच्छू, मच्छर आदि से पैदा होने वाला संकट खासकर गांव-देहात में जानलेवा साबित होता था। पीने का पानी और अन्य खाद्य प्रदार्थ विषाक्त हो जाते थे। इसीलिए गृहस्थों को ही नहीं परिव्राजक बैरागियों को भी चातुर्मास में एक जगह निरापद स्थिर निवास की सलाह दी जाती थी।

हाल के वर्षों में हालात बहुत तेजी से बदले हैं। अंधाधुंध औद्योगीकरण ने कार्बन प्रसरण की दर बहुत तेज कर दी है। जिसके कारण धरती सर्वनाशक रूप से तपने लगी है, मौसम बहुत तेजी से बदल रहा है और प्रकृति के कोप के दर्शन हमें आये दिन उन प्रलयकारी घटनाओं में होते हैं, जिनको अंग्रजी में “एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट” कहते हैं। मौसम की वैज्ञानिक भविष्यवाणी करना पहले ही बड़ा कठिन था। अब यह लगभग असंभव हो गया है। भारत में ही नहीं एशिया के अनेक देशों में किसान फसलों की सिंचाई के लिये वर्षा जल पर निर्भर रहते हैं। इसलिए करोड़ों के लिए मानसून का पूर्वानुमान और उसके यात्रा पथ का विश्वसनीय आकलन जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है।

वास्तव में प्रकृति के साथ अदूरदर्शी छेड़-छाड़ औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के युग में ही शुरू हो गई थी। गोरों का अहंकार विराट था। उन्नीसवीं सदी के चौथे चरण तक उन्हें यह लगने लगा था कि उनके विज्ञान ने प्रकृति को जीत लिया है। उनका एकमात्र लक्ष्य उपनिवेशकों के प्राकृतिक संसाधनों का निर्मम दोहन था। उन्होंने खदानों और बागानों को बेरहमी से काटा। उन्हें इस बात का जरा भी भान ना था कि यह हरे-भरे वन भी कार्बन को सोखते हैं और धरती के तापमान को कम करते हैं।

पश्चिमी देश जब खुद को तेजी से विकसित और समृद्ध बना रहे थे, तब वह पृथ्वी को आने वाली पीढ़ी के लिए उजाड़ रहे थे। बीसवीं सदी में तेल की खोज के बाद कार्बन प्रसरण बढ़ाने वाले जीवाश्म ईंधनों का प्रयोग बेलगाम हो गया। चीजें इतनी गड्ढमड्ढ हो गईं कि मानसून का उत्सर्जन और विर्सजन तथा भूमंडलीय स्तर पर प्राकृतिक प्रक्रियाओं की अनंतर निर्भरता वाली गुत्थी निरंतर जटिल बनती जा रही है।

आज मानसून के अध्ययन और पूर्वानुमान के लिए सुपर कंप्यूटर सुलभ हैं, पर यह कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि मानसून की दशा-दिशा क्या रहेगी? वर्षा किस मात्रा में कहां होगी? अनेक ऐसे शब्द प्रचलित हैं जो कुछ समय पहले तक इस्तेमाल नहीं होते थे, बादल फटना, आकस्मिक बाढ़, जलाशयों का तटबंध तोड़ना और रेगिस्तानी इलाके में भी बाढ़ का आना। चक्रवात, समुद्री तूफान और वर्षा ऋतु में ही जंगलों की भीषण आग एक साथ देखने को मिल रही है।

मौसम बदलाव से प्रेरित अनेक महत्वपूर्ण उपन्यासों के लेखक इस स्थिति को ‘दि ग्रेट डिरेंजमेंट’ का नाम देते हैं। मानसून के ढिलाने की वजह से कई जगह लंबे समय तक सूखा पड़ जाता है और अकाल की स्थिति पैदा होती है तो कहीं अति वर्षा के कारण धरती जल में डूब जाती है और फसल तबाह हो जाती है। कुछ बरस पहले तक यह आशा की जाती थी कि बड़े-बड़े बांधो के निर्माण से बाढ़ के विनाश पर काबू किया जा सकेगा।

दैत्याकार बांधों ने दैत्याकार समस्याओं को जन्म दिया है। नदियों का प्राकृतिक बहाव अवरुद्ध होने के क्या परिणाम निकलेंगे इसका पूर्वानुमान किसी को नहीं था। भीमकाय जलाशयों ने अनगिनत गांवों को डुबा दिया और लाखों लोगों को विस्थापित कर दिया। पारंपरिक जीवन शैली के साथ-साथ जीविकोपार्जन के साधन नष्ट हो गए।

सिंचाई और बिजली उत्पादन का लाभ बांध वाले क्षेत्र में नहीं बल्कि कहीं दूसरे क्षेत्र में होने से विकास के क्षेत्रीय असंतुलन की समस्याएं उत्पन्न हो गईं। सांस्कृतिक तथा जैव विविधता का नाश हुआ। समय के साथ बांध वाले कृत्रिम जलाशय बालू से भरने लगे। यह बात स्पष्ट हुई की इनकी आयु सीमित है।

किसान एक बार फिर से “आकाश वृत्ति” अर्थात मानसून का मुंह जोहने को मजबूर हुए। केरल में सायलैंट वैली से लेकर हिमालय की गोदी में टिहरी बांध तक यह दुखद कहानी जाने कितनी बार दोहराई जा चुकी है।

धरती पर जितने भी जल स्रोत हैं वह जीवन दायक जल के लिए मानसून (वर्षा) पर ही निर्भर हैं। वर्षा का पानी धरती के गर्भ में छुपे “एक्वाफर” तक रिसता है। वनों के जलागम भी इसी वर्षाजल से तरोताजा होते हैं। एक पहाड़ी लोक गीत की पंक्ति हमें यहां याद दिलाती है, “नि काटो, नि काटो घुंगराली बांजा, बांजाडि मुणि ठंडो पाणी।” (बांजवनी को न काटो, इन पेड़ों की जड़ में ठंडा पानी होता है।)

तालाब, पोखर, कुएं, बावड़ियां इसी पानी को हम तक पहुंचाते रहे हैं। अदूरदर्शी अनियोजित शहरीकरण ने भूमि के बहुत बड़े हिस्से को कंकरीट के जंगल में बदल दिया है। आज बारिश का जल मिट्टी में रिस नहीं पाता। सड़कों में जमा होकर बस्तियों के लिए संकट बन जाता है। जमीन के भीतर पानी का स्तर गिरता जा रहा है। जो पानी हम गहरे ट्यूब वैल लगा कर खींचते हैं, वह खारा या प्रदूषित होता है। जमा पानी बीमारी पैदा करने वाले कीड़ों-विषाणुओं को ही रास आता है।

हम नाहक इसके लिए मानसून को कोसते हैं। संकर तटवर्ती प्रदेश में तथा बड़ी नदियों के किनारे बसने वालों का जीवन ऋतुचक्र से संचालित होता था। मानसून में तूफान से बचने को मछुआरे नाव नहीं उतारते थे।

इस समय पहले से सुखाई मछलियां साथ देती थीं। मौसम बदलाव ने उनके जीवन यापन को अनिश्चित बना दिया है। वैज्ञानिकों की यह चेतावनी मात्र दुःस्वप्न नहीं कि यदि हम समय रहते नहीं चेते तो निकट भविष्य में विश्वयुद्ध पीने और सिंचाई के पानी के लिए लड़ा जा सकता है। इस साल मानसून के प्रबल होने के पहले ही बंगाल, असम और बांग्लादेश में बाढ़ के कारण जान और माल को बहुत नुकसान पहुंच चुका है।

पश्चिम की ओर गुजरात के शहरों में सड़कें उफनते नालों में तब्दील हो चुकी हैं, जिन पर मोटर गाड़ियां और मवेशी उतराते बहते नजर आ रहे हैं। पाकिस्तान में भी बाढ़ का प्रकोप है। अमरनाथ यात्रा पथ पर अप्रत्याशित वर्षा के कारण परनाले फूट गए और दर्जनों श्रद्धालु जान गंवा बैठे। इस तरह के शोक समाचार पढ़ने-सुनने के हम इस कदर आदी हो गए हैं कि इन घटनाओं को “दैवी आपदा” का नाम दे उन लोगों को जिम्मेदारी से बरी कर देते हैं जो लालची छेड़-छाड़ से पर्यावरण के सन्तुलन को बिगाड़ने पर आमादा हैं। 2015 में पेरिस में जो पर्यावरण विषयक समझौता हुआ था, उसे सत्ता में आते ही अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप ने खारिज कर दिया। किसी संप्रभु राष्ट्र द्वारा अकारण किसी संधि से मुकरने का यह तुनक मिजाज फैसला अनोखा था। तभी से धरती तपने और मौसम बदलाव का मुद्दा अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों की प्राथमिकता सूची से अदृश्य होता चला गया।

ग्लासगो वाले शिखर सम्मेलन में कार्बन प्रसरण को रोकने के लिए जो लक्ष्य इसमें भाग लेने वाले देशों ने खुद अपने लिए तय किए थे, उनके पूरा होने के कोई आसार आज नजर नहीं आते। एक युवा भारतीय राजनयिक मेघदूत से प्रेरित हो मेडगास्कर से भारत तक मानसून के यात्रा वृतांत को कविता के सांचे में ढाला है। पर इस साल जब मानसून को लेकर तरह-तरह की भयानक आशंकाए मन में घर कर रहीं हैं, तब कैसे कविता पर ध्यान देर तक अटक सकता है। अधिकांश लोगों को तो वही पुराना सूत्र वाक्य याद आ रहा है, ‘मेघा छन्नम्, दिनम्, दुर्दिनम्।’

(लेखक वरिष्ठ अकादमिक और इतिहासकार हैं)