पेंटिंग्स: योगेन्द्र आनंद 
मौसम

विस्मृत लोक-साहित्य के कवि घाघ और भड्डरी

घाघ का मानना है कि यदि चैत में अश्विनी नक्षत्र में वर्षा हो गई तो चौमासे में सूखा पड़ेगा I यदि रेवती नक्षत्र में वर्षा हुई तो आगे वृष्टि नहीं होगी

Keyoor Pathak

समकालीन सभ्यता विस्मृति की सभ्यता है I यहां स्मृतियों के लिए स्थानाभाव है I वर्तमान समाज और सभ्यता ने सबसे अधिक अपना कुछ विस्मृत किया है तो वह है प्रकृति और परिवेश के अवलोकन का लोक-ज्ञान ज्ञान I प्रकृति और परिवेश का अवलोकन करने की हमारी क्षमता लगातार क्षीण हुई हैI हम जैसे-जैसे प्रकृति से विरत हो रहें हैं, वैसे वैसे प्रकृति का सहज ज्ञान जटिल होता जा रहा हैI

मशीनों पर हमारी निर्भरता हमारी सामान्य बुद्धि और विवेक को भी प्रभावित करती जा रही हैI जिसके कारण हमें सामान्य सी जानकारी के लिए भी एक बड़ी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ती हैI किसी न किसी रूप में वह हमें बाजार से खरीदना पड़ता है I

पुराने लोग धूप की छाया देखकर पहर का सटीक अनुमान लगाते थे, हम घड़ी के बिना दिन रात तक नहीं तय कर पाते I वे जानवरों और कीट फतंगों की ध्वनियों और व्यवहारों से मौसम और अन्य आपदा आदि का आकलन कर लेते थे, हमारे लिए वे जानवर और जीव ही दुर्लभ हो गए I

कहावतें और लोकोक्तियां इन्ही प्रकृति और परिवेश के अवलोकन से उपजे ऐसे ही सहज और सामान्य ज्ञान थे जिन्हें प्रकृति और परिवेश के साथ जीनेवाला व्यक्ति और समाज रचता गढ़ता थाI कहावतों और लोकोक्तियों का अपना समाजशास्त्र रहा है जिसके द्वारा सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय अनुभव, मूल्यगत और वर्गीय-संरचना के साथ-साथ सत्ता-संबंधों को भी समझा जा सकता था I  

लोक जीवन में कहावतों और लोकोक्तियों का एक विशिष्ट महत्व रहा है I सदियों से संसार के सभी समाजों में इसकी उपयोगिता रही है I जैसे ग्रीक भाषा में इसे परोमिया, तुर्की में अतालोर सोज़ी, रुसी में पोस्लोवित्सा, अरबी में मत्हल, हिब्रू में मसाल, फारसी में अमसल, और अंग्रेजी में प्रोवर्ब कहते हैं I

इसी प्रकार केवल भारत में देखें तो उर्दू में जर्बुल मिस्ल, राजस्थानी में ओखोणों, कहबट, गढ़वाली में पखाणा, गुजराती में कहेवत, बांग्ला में प्रवाद और प्रवचन, तेलुगु में समीटा, मलयालम में पज्मचोली कहा जाता है I स्पष्ट है कि सभी समाज लोक अनुभवों को एक सैद्धांतिक प्रदान करता रहा है, और इन कहावतों से लोक जीवन का बड़ा हिस्सा संचालित होता रहा है I

इसकी प्रमाणिकता की सीमाएं भी हैं, लेकिन इसे पूर्णतः अवैज्ञानिक भी नहीं माना जा सकता I हावेल जैसे विद्वानों ने भी कहावतों की विशेषता के बारे में लिखा कि इसमें संक्षिप्तता, सारगर्भिता और सप्रमाणता जैसे गुण होते हैं I जॉन रसेल ने कहावतों को परिभाषित करते हुए कहा था कि यह एक व्यक्ति की सहज बुद्धि और अनेक लोगों का ज्ञान है; अर्थात अक्सर यह एक व्यक्ति के सामान्य अनुभव से जन्मता है और बाद में समूह की संपत्ति बन जाती है I 

ये अनुभव और अवलोकन से प्रस्फुटित सहज ज्ञान हैं I समय के साथ इसकी प्रामाणिकता परिवर्तित होती रहती है, लेकिन अपने समय और सन्दर्भ में इन कहावतों और लोकोक्तियों ने लोक जीवन को व्यापकता से प्रभावित किया है I इन कहावतों को रचने गढ़ने में उन व्यक्तियों की बड़ी भूमिका होती थी जो तत्कालीन समाज, संस्कृति और प्रकृति की गहरी समझ रखते थे I

उत्तर भारत के बड़े हिस्से में ऐसे ही अनेक लोग हुए हैं जिन्होंने अपने सहज ज्ञान से सदियों तक सामाजिक और आर्थिक जीवन को एक दशा-दिशा दी है; इन व्यक्तियों में घाघ, भड्डरी, डाक, लाल-बुझक्कर, जैसे लोगों के नाम अग्रणी है I यहां हम अनुमानतः चार सौ वर्ष पूर्व हुए घाघ और भड्डरी पर एक संक्षिप्त चर्चा कर रहें हैं, जिन्होंने क्रमशः खेती, और ज्योतिष व आचार विचार पर अपना अवलोकन कविताओं के माध्यम से रखा था I

घाघ के जन्मस्थान के बारे में निर्विवाद मत नहीं है I कुछ विद्वान इन्हें उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले का बताते हैं, तो कुछ उन्हें बिहार के छपरा, बैरगनिया या मुजफ्फरपुर आदि क्षेत्रों से जोड़ते हैं I जन्मकाल के बारे में भी अलग-अलग मत हैं- कुछ उन्हें 1753 तो कुछ 1780 तो कुछ 1696 या 1753 आदि मानते हैं I

लोकमत है कि घाघ को बचपन से ही कृषि विषयक समस्याओं के निदान में दक्षता प्राप्त हो गई थी I लोग दूर दूर से उनसे खेती से सम्बंधित समस्याओं को लेकर उनके पास आने लगे थे I इसी प्रकार भड्डरी का जीवनवृत भी निर्विवाद नहीं है I अनेक मत और मान्यताएं हैं I ऐसी भी मान्यता है कि भड्डरी, वराहमिहिर और एक गड़ेरिया कन्या से जन्मे संतान थे I

इनके जन्मस्थान के बारे में भी कुछ इन्हें राजस्थान तो कुछ बिहार और कुछ उत्तर प्रदेश का मानते हैं I इनके जन्मस्थान, जाति, अवधि आदि के बारे में एक मत भले न हों, लेकिन लोक जीवन पर इनकी कहावतों के विषद प्रभावों के बारे में कोई मत विभिन्नता नहीं है I विद्वानों का मत है कि गोस्वामी तुलसीदास के आलावा सबसे अधिक लोकप्रिय कवि घाघ और भड्डरी हुए हैं I

तुलसी जहां लिखित परम्परा के कवि थे, तो वहीं घाघ और भड्डरी वाचिक परंपरा के कवि थे I इनकी विलुप्त हो चुकी कहावतों का प्रथम संकलन पंडित राम नरेश त्रिपाठी ने किया था, जो ‘घाघ और भड्डरी’ नाम से वर्ष 1931 में प्रयाग से प्रकाशित हुआ था, और इसका अंतिम संस्करण वर्ष 1949 में हिन्दुस्तानी अकादमी, प्रयाग से प्रकाशित हुआ था, जो सम्प्रति दुष्प्राप्य माना जाता है I इसके उपरांत अन्य अनेक विद्वानों ने इनकी कहावतों का संकलन करने का प्रयास किया हैI

इन कहावतों की महत्ता आज के सन्दर्भ में भी समीचीन है I इनसे आज के कृषि, मौसम, पशु आदि से सम्बंधित अनेकानेक समस्याओं के निदान में सहायता ली जा सकती है I घाघ और भड्डरी संभवतः उन व्यक्तियों में से थे जिन्होंने प्रकृति और परिवेश से निरंतर संवाद करने की क्षमता विकसित की थी, जिस कारण वे प्रकृति को समझ सके I उनके कुछ मुहावरों को हम यहां रख रहें हैं, और माना जाता है कि यह आज भी व्यावहारिक और प्रासंगिक हैं I

असनी गलियां अंत विनासै/ गली रेवती जल को नासै

भरनी नासै तृनौ सहुतो/ कृतिका बरसै अंत बहुतो

(घाघ का मानना है कि यदि चैत में अश्विनी नक्षत्र में वर्षा हो गई तो चौमासे में सूखा पड़ेगा I यदि रेवती नक्षत्र में वर्षा हुई तो आगे वृष्टि नहीं होगी I भरणी नक्षत्र में यदि पानी बरसा तो तृण का भी नाश हो जाएगा, लेकिन यदि कृतिका नक्षत्र में पानी बरसा तो अंत तक वर्षा अच्छी होगी)

आगे मंगल पीछे भान

बरसा होवै ओस समान

(यदि मंगल ग्रह के पीछे सूर्य लगा है तो वर्षा ओस जैसी अर्थात नगण्य होगी)

मक्का जोन्हरी औ बजरी

इनको बोवे कुछ बिडरी

(मक्का, ज्वार और बाजरा को कुछ दूर-दूर पर बोना चाहिए)

बोओ गेंहू काट कपास

होवे न ढेला न होवै घास

(गेंहू की बोवाई कपास को काटकर की जा सकती है, किन्तु ध्यान रखें कि खेत में ढेले और घास न हों)

बाली छोटी भई काहें

बिना असाढ़ के दो बाहें

(गेंहू कि फसल में छोटी बाली होने का प्रमुख कारण है कि उसे अषाढ़ में दो बार नहीं जोता गया था) I  

भारत में घाघ और भड्डरी जैसे अनगिनत ऐसे लोक-कवि हुए हैं जिनकी रचनाएं वैश्विकता की आंधी में विस्मृत की जा चुकी हैं,और अनगिनत ऐसी लोक परम्पराएँ हैं जिनसे आधुनिक सभ्यता को बहुत कुछ सीखने-समझने को मिल सकता था, लेकिन बिना गुण-दोष के मूल्यांकन कल के उनको विस्मृत कर दिया गया I

लोक जीवन का साहित्य सदियों से उपेक्षित रहा है, और सत्ता का साहित्य समाज और राजनीति के आदर्श को हमेशा से तय करता आ रहा है I लेकिन लोक-साहित्य के भीतर अपनी एक आन्तरिक शक्ति रही है, जिस कारण यह समय-समय पर अपनी उपस्थिति दर्ज करती रही है I

निश्चय ही आज के बदल चुके दौर में केवल कहावतों और लोकोक्तियों से समाज को दिशा देने की बात तर्कसंगत नहीं हो सकती, लेकिन इस पर निरंतर विमर्श संभवतः नयी संभावनाओं के द्वार खोल सकता है I हमें संभावनाओं को स्थगित करने से बचना चाहिए I समाज की छोटी चीजों के भी बड़े निहितार्थ होते हैं I