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हर साल लू की भेंट चढ़ रही डेढ़ लाख जिंदगियां, भारत में हो रही है हर पांचवी मौत

भारत में कृषि और मेहनत मजदूरी करने वाला एक ऐसा तबका भी है, जिसके लिए एयर कंडीशन तो दूर की बात, पंखा भी किसी लग्जरी से कम नहीं। ऐसे में योजनाओं में उनपर विशेष ध्यान देने की जरूरत है

Lalit Maurya

गर्मियों की शुरूआत के साथ ही देश में लू का कहर धीरे-धीरे चरम पर पहुंच रहा है। भीषण गर्मी और लू (हीटवेव) बढ़ते तापमान और बदलती जलवायु के साथ पहले से कहीं ज्यादा विकराल रूप लेती जा रही है। लू किस कदर घातक हो सकती है इसका खुलासा मोनाश विश्विद्यालय ने अपनी एक नई रिसर्च में किया है, जिसके मुताबिक लू और गर्म हवाएं दुनिया भर में हर साल होने वाली 153,078 मौतों के लिए जिम्मेवार है।

इससे ज्यादा परेशान करने वाला क्या हो सकता है कि इनमें से हर पांचवी मौत भारत में हो रही है। यदि आंकड़ों की मानें तो भारत में लू की वजह से हर साल औसतन 31,748 मौतें हो रही हैं। ऐसे में बढ़ती गर्मी और लू से बचाव के लिए कहीं ज्यादा संजीदा रहने की जरूरत है।

ऑस्ट्रेलिया के मोनाश विश्विद्यालय द्वारा किया यह अध्ययन 1990 से 2019 के दौरान पिछले 30 वर्षों के आंकड़ों पर आधारित है। बता दें कि होने वाली मौतों और मौसमी परिस्थितियों से जुड़े यह आंकड़े ब्रिटेन स्थित मल्टी-कंट्री मल्टी-सिटी (एमसीसी) रिसर्च नेटवर्क द्वारा जुटाए गए थे। इनमें 43 देशों की 750 जगहों पर हर दिन होने वाली मौतों को शामिल किया गया है। इस अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल प्लोस मेडिसिन में प्रकाशित हुए हैं। इस अध्ययन में मोनाश विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं के साथ-साथ चीन के शेडोंग विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के साथ-साथ अन्य विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों ने भी सहयोग दिया है। 

गौरतलब है कि लू से होने वाली इन अतिरिक्त मौतों के मामले में भारत दुनिया में शीर्ष पर है। आंकड़ों से पता चला है कि दुनिया में सालाना लू से होने वाली डेढ़ लाख अतिरिक्त मौतों में से करीब 20.7 फीसदी भारत में हो रही हैं। वहीं 13.8 फीसदी के साथ चीन दूसरे, जबकि 7.89 फीसदी मौतों के साथ रूस तीसरे स्थान पर है।

वहीं यदि क्षेत्रीय तौर पर देखें तो दुनिया में लू की वजह से होने वाली इन अतिरिक्त मौतों में से करीब 49 फीसदी एशिया में दर्ज की गई। वहीं इनमें से करीब 31.6 फीसदी यूरोप, 13.8 फीसदी अफ्रीका में दर्ज की गई। वहीं यदि अमेरिका की बात करें तो यह आंकड़ा 5.4 फीसदी जबकि ओशिनिया में सबसे कम 0.28 फीसदी दर्ज किया गया।

गौरतलब है कि अध्ययन के 30 वर्षों के दौरान दुनिया भर में लू की वजह से करीब 45,92,326 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। रिसर्च में यह भी सामने आया है कि सबसे ज्यादा अनुमानित मृत्यु दर शुष्क जलवायु और निम्न एवं मध्यम आय वाले क्षेत्रों में दर्ज की गई।

बढ़ते तापमान पर नहीं लगाम

आंकड़ों की मानें तो 1990 से 2019 के बीच पिछले तीन दशकों में गर्म मौसम के दौरान होने वाली सभी मौतों में से करीब एक फीसदी के पीछे की वजह लू रही। मतलब की हर एक करोड़ की आबादी पर 236 मौतों के लिए लू जिम्मेवार रही। इस दौरान यूरोप में जितनी मौतें हुए हैं उनमें लू की हिस्सेदारी करीब 1.96 फीसदी रही। मतलब की तीन दशकों में यूरोप में हर एक करोड़ लोगों पर 655 की मौत की वजह लू रही। जो स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि लू यूरोप के लिए कितना बड़ा खतरा है।

यदि राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो तीन दशकों में सभी वजहों से होने वाली मौतों के मामले में लू की हिस्सेदारी अन्य देशों की तुलना में ग्रीस, माल्टा, और इटली में सबसे ज्यादा रही। जहां यह 2.47 से 2.59 फीसदी के बीच रही। वहीं यदि मृत्यु दर को समायोजित न करें तो यूक्रेन, बुल्गारिया और हंगरी में लू से जुड़ी मृत्यु दर सबसे अधिक दर्ज की गई। वहीं इसके समायोजन के बाद, नाइजर, चाड और यूक्रेन में मृत्युदर सबसे अधिक थी।

रिसर्च में भी इस बात की पुष्टि की गई है कि दुनिया में लू का कहर पहले से बढ़ रहा है। दुनिया में न केवल लू के दिनों की संख्या बढ़ रही है, साथ ही लू पहले से कहीं ज्यादा गंभीर हो चुकी है। अध्ययन के मुताबिक वैश्विक स्तर पर पिछले तीन दशकों में लू के औसत दिनों में बढ़ोतरी हुई है। यह आंकड़ा औसतन 13.4 दिनों से बढ़कर 13.7 दिन हो गया है।

देखा जाए तो वैश्विक स्तर पर जिस तरह तापमान में इजाफा हो रहा है, उसके साथ-साथ लू का कहर भी बढ़ रहा है। वैश्विक आंकड़ों पर गौर करें तो बढ़ता तापमान नित नए रिकॉर्ड बना रहा है। इसकी एक झलक 2024 के पहले चार महीनों में भी देखने को मिली है जब सभी महीनों में बढ़ता तापमान नए शिखर पर पहुंच गया।

बता दें कि आंकड़े जहां 2023 के अब तक के सबसे गर्म वर्ष होने की पुष्टि करते हैं। वहीं वैज्ञानिकों ने 2024 के अब तक के सबसे गर्म वर्ष होने की 61 फीसदी आशंका जताई है। यदि इतिहास के दस सबसे गर्म वर्षों की बात करें तो वो भी 2010 के बाद ही दर्ज किए गए हैं। रिसर्च में भी इस बात की पुष्टि की गई है कि वैश्विक स्तर पर हर दशक तापमान 0.35 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ा है।

देखा जाए तो गर्मियों के साथ तापमान का बढ़ना और लू जैसी आपदाओं का आना कोई नया नहीं है। लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ दशकों से इनका जोखिम बढ़ रहा है, वो आम आदमी के लिए नई चुनौतियां पैदा कर रहा है। यदि पिछले कुछ दिनों से देखें तो न केवल भारत बल्कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से गर्मी और लू के बढ़ने की खबरे सामने आ रही हैं। बांग्लादेश, फिलीपींस और दक्षिण सूडान में भीषण गर्मी और लू से स्थिति इस कदर बिगड़ गई कि वहां स्कूलों तक को बंद कर देना पड़ा।

भारत में योजनाओं पर गंभीरता से देना होगा ध्यान

भारतीय मौसम विभाग ने भी जानकारी दी है कि 1901 के बाद से पूर्वी भारत के लिए यह अब तक का सबसे गर्म अप्रैल का महीना था, जब तापमान 28.12 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। पश्चिम बंगाल में पिछले 15 वर्षों के दौरान अप्रैल 2024 में सबसे ज्यादा लू वाले दिन दर्ज किए थे।

हाल ही में भारतीय वैज्ञानिकों ने अपने नए अध्ययन में आगाह किया था कि बढ़ते तापमान और जलवायु में आते बदलावों के चलते भारत के कई हिस्सों में स्थिति पहले से कहीं ज्यादा खराब हो सकती है। उनका अनुमान है कि सदी के अंत तक भारत में लू का खतरा 10 गुणा तक बढ़ सकता है। उनके मुताबिक आने वाले वर्षों में भारत के दक्षिणी और मध्य क्षेत्र में लू के कहर में सबसे ज्यादा वृद्धि होगी।

वहीं जर्नल जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में लू पर प्रकाशित एक अन्य शोध से पता चला है कि तापमान में हर दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ लोगों के लू की चपेट में आने का जोखिम करीब तीन गुना बढ़ जाएगा। वहीं यदि वेट बल्ब तापमान की बात करें तो 32 डिग्री सेल्सियस तापमान को इंसान के लिए खतरनाक माना जाता है जबकि 35 डिग्री सेल्सियस पर इंसान का शरीर स्वयं अपने आप को ठंडा नहीं रख पाता। हालांकि देखा जाए तो दुनिया भर में ऐसे दिनों की संख्या लगातार बढ़ रही है।

ऐसे में लू के बढ़ते खतरे को देखते हुए इसके लिए तैयार रहने की जरूरत है। हीटवेव के लिए बनाए एक्शन प्लान इसमें काफी हद तक मदद कर सकते हैं, क्योंकि इसका सबसे ज्यादा कहर उस कमजोर तबके पर पड़ता है जो खुले में काम करने को मजबूर हैं। इनमें किसान, श्रमिक, पुलिस कर्मी, ट्रैफिक कर्मी जैसे लोगों शामिल हैं। यही वजह है कि लू से बचने के लिए बनाई नीतियों में उनपर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। देखा जाए तो कृषि और मेहनत मजदूरी करने वालों का एक ऐसा वर्ग है जिसके लिए एयर कंडीशन तो दूर की बात, पंखा भी किसी लग्जरी से कम नहीं है।

शोध में भी इनसे बचाव की रणनीतियों में जलवायु परिवर्तन की रोकथाम और गर्मी से निपटने की योजनाओं जैसे भीषण गर्मी को लेकर चेतावनी, शहरी नियोजन, पेड़ों में इजाफा, हरित क्षेत्र, सामाजिक सहायता, स्वास्थ्य देखभाल के साथ-साथ जागरूकता को बढ़ावा देने पर जोर दिया है।