जोधपुर राजस्थान का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। यह मारवाड़ राजपूतों की प्राचीन राजधानी हुआ करता था। मारवाड़ की पुरानी राजधानी मंडौर को बदलकर जोधपुर करने के पीछे पानी की कमी एक महत्वपूर्ण कारण था। एक पथरीली पहाड़ी की ढलान पर स्थित जोधपुर शहर पानी की आपूर्ति के लिए वर्षा और भूजल पर निर्भर है।
सन 1459 में अपनी राजधानी मंडौर से जोधपुर स्थानांतरित करने के बाद राव जोधाजी ने जोधपुर किले का निर्माण करवाया था। सन 1460 में रानी जस्मेदा ने रानीसर झील बनवाई थी। सन 1515 में राव गंगोजी ने किले के समीप में रहने वाले लोगों के लिए गंगेलाओं का निर्माण करवाया। इसके कुछ दशक बाद ही रावती के पास सूरसागर जलाशय की नींव सन 1608 में राजा सूर सिंह द्वारा रखी गई थी। बालसमंद झील का निर्माण सन 1159 में बंजारा सरदार राजा बालकरण परिहार ने करवाया था।
इसको पहले महाराजा सूर सिंह ने सन 1611 में बनवाया। बाद में महाराजा जसवंत सिंह के शासनकाल (1638-1678) में पानी के अन्य स्त्रोतों का निर्माण भी करवाया था। उन्होंने इसे कुछ ही दशकों बाद फिर से चौड़ा करवाया। गुलाब सागर का निर्माण पासवान गुलाब राय ने सन 1788 में किया था। फतेहसागर को महाराजा भीम सिंह ने तैयार करवाया था। मानसागर और महामंदिर झालरा को सन 1804 में निर्मित करने का श्रेय महाराजा मान सिंह को जाता है। इसके अतिरिक्त बाई-का-तालाब महाराजा मान सिंह की पुत्री ने ही तैयार करवाया था।
जलापूर्ति योजनाएं
महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय के शासनकाल (1872-1895) में पानी की आपूर्ति से संबंधित योजनाओं को काफी बढ़ावा दिया गया था। उनके ही शासनकाल में एक अकाल वाले वर्ष में कैलाना का निर्माण किया गया था। इसके अलावा, रानीसर और बालसमंद बांधों को और ऊंचा किया गया था और शहर के तालाबों में पानी पहंुचाने के लिए लंबी नहरों की खुदाई भी करवाई गई थी। पहले ब्रिटिश अभियंता होम्स, जिसे पानी की आपूर्ति की जिम्मेदारी सन 1883 के आसपास सौंपी गई थी, ने कैलाना कृत्रिम जल-प्रणातल का निर्माण करवाया था, जिससे कैलाना का पानी बाई-का-तालाब में लाया जा सके। जोधपुर में पाइपों से पानी की सप्लाई करने का श्रेय भी उसे ही दिया जाता है।
शहर के जलाशयों में पानी की आपूर्ति के लिए सन 1917-18 में चोपसानी पंपिंग योजना शुरू की कई थी। शहर की जनसंख्या, जो 1901 में 60,500 से बढ़कर 1931 में 90,000 के आसपास पहुंच गई थी, की जरूरतों को पूरा करने में पुरानी व्यवस्था काफी नहीं थी। इस स्थिति से निबटने के लिए सन 1931-32 में जोधपुर फिल्टर वाटर स्कीम और बाद में सन 1938 में सुमेरसमंद जल योजना शुरू की गई।
सुमेरसमंद जल योजना के तहत जोधपुर से 85 किमी. दूर स्थित सुमेरसमंद से खुली नहरों की सहायता से पानी शहर में पहुंचाया जाता था। इस पानी को तखत सागर में जमा किया जाता था। जोधपुर से 9 किमी. दूर स्थित चोपसानी गांव में तैयार किए गए फिल्टर-हाउस से शहर के लोगों को सन 1940 के बाद से, पानी की सप्लाई नियमित ढंग से मिलने लगी। इस नहर को बाद में जोधपुर से 140 किमी. स्थित जवाई तक बढ़ाया गया, जहां शहर में पानी सप्लाई करने के लिए एक बांध का निर्माण किया गया था। आज जोधपुर के करीब दस लाख लोगों के लिए पानी का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत जवाई जलाशय है।
जोधपुर शहर, जहां करीब नौ लाख लोग बसते हैं (1991 के आंकड़े), को प्रतिदिन 2.7 करोड़ गैलन पानी की आवश्यकता है। जलाशयों और भूजल से अभी 2.24 करोड़ गैलन की आपूर्ति की जाती है। इसमें जलाशयों का योगदान करीब 55-60 प्रतिशत का है। दो प्रमुख जलाशय, जवाई और हेमावास, जोधपुर को पानी पहुंचाने के अलावा पाली और रोहित शहर एवं पाली और जोधपुर जिलों में स्थित गांवों की पानी की जरूरतों को भी पूरा करते हैं।
जमा किए हुए पानी के घटते स्तर के कारण अब भूजल पर निर्भरता काफी बढ़ गई है। पिछले कुछ वर्षों से, जनवरी के महीने से अगले मानसून तक, जोधपुर के लिए भूजल ही एकमात्र स्त्रोत हुआ करता है। जोधपुर के आसपास स्थित भूजल के जलभर शहर की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं है। जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग “फेड” ने दूरदराज के गांवों, जैसे रामपुरा, मनई, तिओरी और बलरवा आदि में नलकूप लगवाए हैं जहां से पानी टैंकरों और पाइपों की सहायता से लाया जाता है। इन गांवों में पानी का स्तर लगातार घटता जा रहा है। यह प्रतिवर्ष 1.27 मीटर के हिसाब से गिर रहा है। सन 1989 में रामपुर का भूजल स्तर 4.4 मी. गिरा था।
राणसी गांव में जहां खोखले चूना पत्थर ही पानी को जमा करने के एकमात्र स्त्रोत है, पानी की आपूर्ति के नियमित स्त्रोत नहीं माने जा सकते हैं। इसके अलावा भूजल स्तर अब जमीन से 45 मी. नीचे चला गया है। अत्यधिक इस्तेमाल से भूजल के स्त्रोत या तो सूख चुके हैं अथवा उनकी पानी देने की क्षमता कम हो गई है। चूंकि अब नलकूप कम मात्रा में पानी उपलब्ध करा पा रहे हैं और नए नलकूपों को लगाने का स्थानीय लोग विरोध कर रहे हैं, इसलिए अब पानी की आपूर्ति गैर-सरकारी नलकूपों, खुले कुओं और बावड़ियों की सहायता से की जा रही है। सन 1987-88 में, जब जोधपुर में पीने के पानी की भयंकर कमी हो गई थी, तब जोधपुर शहर के आसपास स्थित कुओं से पानी लेकर टैंकरों से बांटा गया था।
शहर के स्थानीय स्त्रोतों से प्रतिदिन 13 लाख गैलन पानी मिलता है। स्थानीय पानी के स्त्रोतों को काम में लाने के लिए “फेड” ने चापाकलों को लगाने की योजना तैयार की थी। आज जोधपुर में करीब 1,835 चापाकल लगे हुए हैं। पानी की सप्लाई न होने वाले दिनों में ये चापाकल काफी मददगार साबित होते हैं। चूंकि पीने और खाना पकाने के लिए पानी की आवश्यकता अन्य कार्यों की अपेक्षा काफी कम होती है, इसलिए पाइपों द्वारा पानी हर दूसरे दिन भी सप्लाई की जा सकती है। चापाकल के पानी का इस्तेमाल नहाने और कपड़ा साफ करने में किया जा सकता है।
रामपुरा और मनई गांव जोधपुर से करीब 30 किमी. दूर स्थित हैं। 1969-70 में आपात जलापूर्ति योजना के तहत रामपुरा में 12 और मनई में 4 नलकूपों को लगाया गया था, जिससे जोधपुर शहर में 40 लाख गैलन पानी प्रतिदिन के हिसाब से पहुंचाया जा सके। पानी को निरंतर खींचते रहने के कारण रामपुरा में भूजल स्तर 15 से बढ़कर 45 मीटर तक पहुंच गया है। पिछले कुछ वर्षों में जब कभी भी “फेड” ने नए नलकूपों को खुदवाने की योजना बनाई, स्थानीय लोगों ने इसका जोरदार विरोध किया। रामपुरा के लोगों ने पानी को जोधपुर ले जाने के खिलाफ आवाज उठाई। उनके अनुसार, भूजल के स्त्रोत के खत्म होने के पश्चात रामपुरा पर कोई भी ध्यान नहीं देगा।
रामपुरा और मनई खेती के लिए उपयुक्त क्षेत्रों में आते हैं। भूजल स्तर के घटने से लोगों को अपने क्षेत्र में लगाए हुए नलकूपों को और गहरा करना होता है, जिसमें काफी खर्च होता है। रामपुरा में हो रहे विरोधों को देखते हुए “फेड” ने मनई गांव में नलकूप लगाने का निर्णय लिया। पर यहां भी इस योजना का भारी विरोध किया गया। इसके पश्चात जिला अधिकारियों, पुलिस, “फेड” के अधिकारियों और गांववालों के बीच एक बैठक करवाई गई। “फेड” ने गांव में एक बड़े जलाशय का निर्माण करने का निर्णय लिया। तब समझौता हुआ, लेकिन नलकूपों को लगाने के बाद “फेड” ने अपने दिए गए आश्वासन से मुंह मोड़ लिया।
जोधपुर से 35 किमी. दूर स्थित टेओरी और बलरवा गांव से पानी एक 0.5 मीटर पाइप लाइन की सहायता से जोधपुर शहर में पहुंचाया जाता है। सन 1987-88 में टेओरी में नौ बलरवा में 12 नलकूप प्रतिदिन 40 लाख गैलन पानी की सप्लाई करने के लिए लगाए गए थे। उसके बाद से इन गांवों में भूजल स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। जल विभाग के अधिकारी 15 और नलकूप लगाने की योजना बना रहे हैं, जिन्हें इस पाइप लाइन से जोड़ दिया जाएगा। इससे कुल पानी में 26 से 50 लाख गैलन (प्रतिदिन के हिसाब से) की बढ़ोŸतरी की आशा है।
जोधपुर से 75 किमी. दूर स्थित राण्सी गांव एक अन्य क्षेत्र है जहां से पाइप लाइन की सहायता से पानी जोधपुर पहुंचाया जाता है। प्रतिदिन 25 लाख गैलन पानी की आपूर्ति के लिए इस क्षेत्र में कई नलकूप लगाए गए हैं, पर अभी सिर्फ 15 लाख गैलन ही हो आपूर्ति पा रही है। जोधपुर से 12 किमी. की दूरी पर स्थित पाल गांव में सन 1982 में 19 नए नलकूप लगाए गए थे। आज इनमें से 10 सूख चुके हैं और अन्य नलकूपों से प्राप्त पानी की मात्रा में भारी कमी आई है। सन 1987-88 के बाद से छह और नलकूप इस क्षेत्र में लगाए जा चुके हैं।
जोधपुर के आसपास के क्षेत्रों में भूजल की समस्या काफी जटिल होती जा रही है। लगभग सभी प्रमुख भूजल के स्त्रोत सूख चुके हैं और कई में पानी का स्तर गिरता ही जा रहा है।
िबकने लगा पानी
सन 1980-81 के बाद से जोधपुर में पानी एक बिक्री योग्य वस्तु हो गया है। हालांकि सन 1980-81 के पहले भी पानी की बिक्री फैक्टरियों और निर्माण के कार्यों के लिए की जाती थी, पर अब उसे शादियों, सामाजिक कार्यों और घरेलू कामकाजों के लिए भी खरीदा-बेचा जा रहा है। आज अगर नलके में पानी का दबाव कम हो जाता है तो लोग पानी के टैंकरों का ऑर्डर अन्य वस्तुओं की तरह ही करते हैं। वे लोग, जो पानी को खरीदने की स्थिति में नहीं हैं, आज सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए स्त्रोतों पर ही आश्रित हैं। इसके अतिरिक्त, पास के चापाकलों, कुओं या बावड़ियों से भी उन्हें कभी-कभी पानी मिल जाता है।
पानी का करोबार तीन श्रेणी के लोगों द्वारा किया जाता हे। एक, जिनके पास अपना कुआं होता है। दूसरा, जिनके पास अपने टैंकर होते हैं। और तीसरा, जिनके पास ये दोनों ही उपलब्ध होते हैं। कुओं के मालिक एक टैंकर को भरने का 10 रुपए लेते हैं। जिनके पास अपना टैंकर होता है, वे पानी को बेचने का 40 से 100 रुपए तक लेते हैं। आपातकाल की स्थिति में इनकी दरें और भी बढ़ जाती हैं। आज कुओं के मालिकों की कुल संख्या 80 से 100 के बीच है, जो हर वर्ष बढ़ती ही जा रही है।
पानी की बिक्री की व्यवस्था में घूसखोरी या भ्रष्टाचार काफी हद तक जुड़ा है। सन 1986-87 में आए भयंकर सूखे के दौरान पाल के गैर-सरकारी कुओं के मालिकों ने सरकार को पानी बेचने का निर्णय लिया। पर उनकी योजना सफल नहीं हो पाई, क्योंकि उन्हें इसके लिए प्रति 1,000 गैलन पानी पर सिर्फ 2 रुपए का प्रस्ताव सरकार ने रखा था। नरपतलाल कुमार, जो इनमें से एक थे, के अनुसार पानी काफी दूर से रेल और टैंकरों की मदद से लाया गया था, जिससे सरकारी अधिकारी घूस में अधिक पैसा कमा सकें।
कुमार के अनुसार, उनके पाल में स्थित कुएं की क्षमता अत्यधिक प्रयोग में लाए जाने के काफी घट गई है। उन्होंने 1980-81 से ही पानी बेचना शुरू कर दिया था। उस वक्त ऐसे लोगों की संख्या सिर्फ 7-8 थी और बाजार भी उतना प्रतिस्पर्धा वाला नहीं था। सन 1985-86 और 1987-88 में आए भयंकर अकाल के बाद कई नए लोगों ने इस पानी के बाजार में प्रवेश किया।
जोधपुर के सिंधी कालोनी के निवासी भावर सिंह ने सन 1980 के आसपास एक नलकूप लगवाया था, जिसे पानी की बिक्री के लिए प्रयोग में लाने की योजना थी। आज यह उनकी कमाई का एकमात्र स्त्रोत है। शुरू के दिनों में उन्हें पानी बेचना एक अनैतिक काम लगा, पर बाद में वे इसे किसी अन्य कारोबार की भांति ही देखने लगे। आज चूंकि जोधपुर में पानी की व्यवस्था में सुधार के आसार काफी कम हैं, इसलिए उन्हें भविष्य में काफी मुनाफा कमाने की आशा है।
ओमजी धूत जोधपुर के सबसे पुराने और समृद्ध पानी बेचने वालों में हैं। हालांकि उनके पास अपना कोई कुआं नहीं है, फिर भी अपने ट्रकों और ट्रैक्टरों की मदद से वे इस कारोबार में लगे हैं। चूंकि वे इस क्षेत्र में भली-भांति जाने जाते हैं और उनके पास एक टेलीफोन हे जो अन्य लोगों के पास नहीं है, वे इस कारोबार में सबसे आगे चल रहे हैं। वे एक टैंकर को 10-15 रुपये में भरकर 40-100 रुपए में बेच देते हैं।
पानी का अत्यधिक उपयोग करने और पिछले कुछ वर्षों से पानी अनियमित ढंग से बरसने के कारण नलकूपों से प्राप्त होने वाले पानी की आपूर्ति में काफी कमी आई है, जिससे जोधपुर में पानी की आपूर्ति अब काफी कठिन हो गई है। प्रतिदिन 1.4-1.5 करोड़ गैलन जलापूर्ति कायम रखने के लिए “फेड” और अधिक नलकूलों को लगाने के लिए उपयुक्त स्थानों की खोज में लगी है।
सन 1934 तक कैलाना, उमेदसागर और बालसमंद जोधपुर शहर में जलापूर्ति करने वाले महत्वपूर्ण जलाशय हुआ करते थे। इन स्त्रोतों से करीब 25 लाख घन मीटर पानी उपलब्ध होता था, जिसमें कैलाना-उमेदसागर का हिस्सा 22.5 लाख घन मीटर और बालसमद का 2.5 लाख घन मीटर हुआ करता था। प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 15 गैलन के हिसाब से, शहर की कुल जनसंख्या 1 लाख की दैनिक जरूरतों को आसानी से पूरा किया जाता था। इसके अतिरिक्त स्थानीय तालाब और बावड़ी भी बहुत हद तक पानी की अच्छी सप्लाई करने में समर्थ थे।
दुर्भाग्यवश, पानी के इन स्त्रोतों की बुरी तरह उपेक्षा की गई है। उदाहरण के तौर पर, बालममंद, जिसका निर्माण 1887-88 में किया गया था, की कुल क्षमता 13.8 लाख घन मीटर है। इस जलाशय का जल ग्रहण क्षेत्र 15 वर्ग किमी. में फैला हुआ था। आज इस जल ग्रहण क्षेत्र का तीन चौथाई क्षेत्र खानों की वजह से टूट-फूट गया है। इससे जुड़ी नहरें किसी समय में आठ किमी. से भी लंबी हुआ करती थीं, पर आज उन्हें भी नष्ट कर दिया गया है। इस वजह से आज जलाशय में काफी कम पानी बचा है।
इसी तरह, कैलाना, जिसका निर्माण सन 1892 में हुआ था, की कुल क्षमता 54.1 लाख घन मीटर हुआ करती थी। इसके अतिरिक्त, इसका जल ग्रहण क्षेत्र करीब 40 वर्ग किमी. था, और इसमें पानी पहुंचाने वाली नहरों की कुल लंबाई 55 किमी. से भी ज्यादा हुआ करती थी। आज इस जल ग्रहण क्षेत्र का आधा से भी अधिक हिस्सा काम के लायक नहीं है।
इन सबके बावजूद, पानी के पारंपरिक स्त्रोतों में अब भी काफी क्षमता है। “फेड” के अभियंता महेश शर्मा पारंपरिक स्त्रोतों को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं। उनके अनुसार, इन स्त्रोतों से शहर की महीने भर की सभी जरूरतों को पूरा किया जा सकता है। आज शहर की कुल जरूरत प्रतिदिन के हिसाब से 80 हजार घन मीटर है। अकाल के दिनों में पानी की आपूर्ति हर दूसरे दिन की जा सकती है, और ये स्त्रोत दो महीने तक शहर की जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। अकाल के वर्षों में लगभग सभी महत्वपूर्ण जलाशय सूखने लगते हैं। चूंकि स्थानीय स्त्रोत शहर के पास हैं, इसलिए इनसे पानी की सप्लाई करना भी आसान है।
अकाल के समय में स्थानीय स्त्रोतों ने काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। सन 1985 में पानी का संकट इतना अधिक हो गया था कि सरकार एक समय में पूरे शहर को खाली करने पर विचार कर रही थी। पर स्थानीय स्त्रोत जैसे टापी बावड़ी की सफाई करने के पश्चात प्रतिदिन करीब 2.5 लाख गैलन पानी की सप्लाई संभव हो सकी थी। इससे इस बावड़ी के पांच किमी. के दायरे में रह रहे लोगों को बचाया जा सका था।
(“बूंदों की संस्कृति” पुस्तक से साभार)
जरूरत भर की यारी
सन 1985 में जोधपुर में इस शताब्दी का सबसे भयंकर अकाल पड़ा था। इस विपत्ति से निबटने के लिए सरकार पूरे शहर को ही खाली करने पर विचार कर रही थी। इस दौरान, बावड़ी, जो शहर में पानी की आपूर्ति करने के प्रमुख पारंपरिक स्त्रोत थे, पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। सन 1985 के संकट ने शहर की पानी व्यवस्था को बनाए रखने में इन बावड़ियों के महत्व को उजागर किया। शहर की नगरपालिका के अफसरों ने चांद और जलप बावड़ियों को साफ करवाया और उनसे प्राप्त पानी को शहर में बांटा। यहां के स्थानीय युवकों ने टापी बावड़ी को भी साफ करने की सोची थी। यह बावड़ी शहर के कचरे से भरी पड़ी थी। टापी बावड़ी के निकट स्थित भीमजी-का-मोहल्ला के निवासी शिवराम पुरोहित ने इन युवकों को 75 मी. लंबे, 12 मी. चौड़े और 75 मी. गहरे इस पानी के स्त्रोत को साफ करने के लिए उत्साहित किया। पुरोहित को टापी सफाई अभियान समिति का खजांची बनाया गया। वे 1,000 रुपए दान में देने वाले पहले व्यक्ति थे। इन रुपयों को सफाई में लगे नौजवानों को चाय-पानी पहुंचाने के काम में खर्च किया गया। जिला कलक्टर ने भी इस कार्य के लिए 12,000 रुपए का योगदान दिया। इसके अतिरिक्त घर-घर जाकर 7,500 रुपए भी एकत्रित किए गए। जमा हुए कचरे को हटाने के लिए करीब 200 ट्रकों की आवश्यकता थी। हालांकि फेड ने सफाई के काम के लिए कुछ भी धन उपलब्ध नहीं कराया, पर सफाई का काम पूरा होते ही उसने पानी की सप्लाई के लिए एक पंप इस स्थान पर लगवाया। इस बावड़ी से शहर को प्रतिदिन 2.3 लाख गैलन पानी उपलब्ध कराया जा सका। पुरोहित बताते हैं कि नल का पानी आने से बावड़ी की उपेक्षा शुरू हुई। यह अपवाह भी उड़ी कि दुश्मनों ने इसके पानी में तेजाब डाल दिया है। कहा गया कि जो औरतें पानी भरने गईं उनके पैरों के गहने काले पड़े गए। सन 1989 में, जिस वर्ष वर्षा काफी अच्छी हुई थी, बावड़ी की फिर से उपेक्षा की गई। पुरोहित के अनुसार, कुओं में तैरने के लिए कूदते बच्चों पर कड़ी निगाह रखना एक कठिन काम है। इसके अतिरिक्त, लोगों ने इस कुएं को शवदाह के बाद नहाने के काम में लाना भी शुरू कर दिया है। चूंकि कुआं एक सामाजिक स्थल है, इसलिए लोगों को इसका गलत कार्याें के लिए उपयोग करने से रोकना भी एक कठिन काम है। इस समस्या को सुलझाने के लिए पुरोहित ने अपने पैसे से एक छोटा हौज और नहाने के लिए एक बंद स्थान का निर्माण करवाया है, जिससे लोग कुएं के पास न जाएं। लोगों की स्मरणशक्ति काफी कमजोर है, और वे सन 1985 में आए संकट को भूल चुके हैं। शायद इसी तरह के एक अन्य अकाल से ही वे बावड़ियों की महत्ता को फिर से समझने लगेंगे। आज, जोधपुर के कुछ ही लोग बावड़ियों के महत्व को अच्छी तरह समझ पा रहे हैं। |