जल

पानी से घिरे फिर भी प्यासे

DTE Staff

भारतीय द्वीपों में बंगाल की खाड़ी में स्थित अंडमान और निकोबार द्वीप समूह तथा अरब स्थित लक्षद्वीप समूह है। हाल तक अलग-अलग और अनजान से रहे ये द्वीप समूह अब बड़ी तेजी से राष्ट्रीय हलचलों का हिस्सा बनते गए हैं। अब माना जाने लगा है कि ये द्वीप समूह समुद्र में छिपी संपदा के नन्हे-नन्हे भंडार हैं।

बंगाल की खाड़ी में उत्तर से दक्षिण तक कुल 321 द्वीप स्थित हैं—अंडमान समूह के 302 द्वीप और निकोबार समूह के 19 द्वीप। अंडमान समूह के द्वीपों का कुल क्षेत्रफल 6,346 किमी. है, जबकि निकोबार समूह के द्वीप 1,953 वर्ग किमी. में फैले हैं। दूसरी तरफ लक्षद्वीप समूह में 36 द्वीप हैं।

अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह

केंद्र शासित प्रदेश अंडमान और निकोबार द्वीप समूह अपनी रणनीतिक अवस्थिति के चलते बहुत महत्वपूर्ण बन गए हैं। पर इससे इसकी मुश्किलें, खासकर पानी से जुड़ी तकलीफें, खत्म नहीं हुई हैं। वैसे तो यहां औसत 3,000 मिमी. वर्षा होती है, पर यहां की मुश्किल भौगोलिक बनावट के चलते अधिकांश पानी समुद्र में चला जाता है। साथ ही, यहां की जमीन भी मिट्टी और रेत के मिश्रण वाली है। सो, इसमें पानी को थामे रखने की क्षमता बहुत कम है। भूजल निकालने की कुओं जैसी व्यवस्थाओं के लिए जरूरी है कि जमीन में रेत और कंकड़ हो, जिससे पानी आसानी से रिसकर जमा हो। इतना ही नहीं, यहां की जल निकासी व्यवस्था भी अभी तक व्यवस्थित नहीं हो पाई है और पानी के बहाव की दिशा एकदम अनिश्चित है। इसके चलते कोई बड़ा बांध नहीं बनाया जा सकता। इस सबके बीच विभिन्न तबकों, खासकर पर्यटकों की तरफ से ताजे पानी की मांग बढ़ती जा रही है। इस स्थिति में भूतल वाली व्यवस्थाओं के साथ ही पानी की नई व्यवस्थाएं तैयार करना जरूरी हो गया है।

द्वीप समूह की बनावट को साधारण ढलान वाली पहाड़ी इलाकों, संकरी घाटियों और तटीय इलाकों, जिनमें दलदले क्षेत्र शामिल हैं, में बांटा जा सकता है। पहाड़ी क्षेत्र में घने जंगल हैं। उत्तर से दक्षिण की तरफ प्रमुख शृंखला तट से लगी हुई चलती है, जिसकी ऊंचाई उत्तर अंडमान के सैडल पीक पर 732 मीटर और मध्य तथा दक्षिण अंडमान द्वीप समूह के पूर्वी हिस्से में रटलैंड द्वीप पर स्थित माउंड फोर्ड (काला पहाड़) की ऊंचाई 433 मीटर है।

दक्षिण अंडमान द्वीप तक गई यह पर्वत शृंखला समुद्र तल से 60 से 100 मीटर तक ऊंची है। दक्षिण अंडमान के ब्रूक्सबाद-बेडोनाबाद क्षेत्र में इसकी ऊंचाई और कम हो गई है और यह समुद्र तल से 45 से 100 मीटर तथा घाटियों में 35 से 90 मीटर ऊंची रह गई है। छिछला खाड़ी प्रदेश और विशाल तटीय प्रदेश इस क्षेत्र की विशेषता है, जिसमें जगह-जगह गरान के जंगल उगे हैं। पश्चिमी हिस्सा भी ऐसी ही मुश्किल बनावट वाला है और इसमें पूर्वीं हिस्से से कम विभिन्नताएं हैं। पश्चिमी क्षेत्र की संकरी घाटियों के बीच से निकली पर्वत शृंखला भी यहां की मुश्किलें बढ़ाती है जिसकी ऊंचाई 70 से 140 मीटर है। इसके बाद तीखी ढलान वाले इलाके आते हैं, जो कहीं-कहीं एकदम खराब भूखंड पर खत्म होते हैं।

642 मीटर ऊंचाई वाला माउंट थुलियर और इससे जुड़ी पहाड़ियां ग्रेट निकोबार द्वीप समूह तक गई हैं। ये समुद्री अवसाद से बनी पहाड़ियां हैं। आधी से लेकर 2 किमी. तक चौड़ाई वाले तटीय मैदान पूर्वी इलाके में हैं जबकि पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में इसकी चौड़ाई एक से 3.5 किमी. तक है और ये थोड़ा उठे भी हैं। यहां जल संचय बहुत आम और व्यापक स्तर पर होता रहा है, जैसा कि 1950 के दशक के प्रारंभ में एक यात्री ने लिखा है, “अनेक सोते, छोटे तालाब, कच्चे गड्ढे और कुएं हर गांव में हैं और कुछ जगहों पर लोगों और जानवरों की जरूरतों के लिए सीमेंट के छोटे हौज भी बने हैं।”
भौगोलिक बनावट, प्राकृतिक रचना के प्रकार और बरसात के हिसाब से अलग-अलग द्वीपों के आदिवासियों ने बरसाती पानी और भूजल के संचय और उपयोग की अलग-अलग विधियां विकसित की थीं। जैसे, ग्रेट निकोबार द्वीप के शास्त्री नगर के आसपास का इलाका इस द्वीप के उत्तरी हिस्से की तुलना में काफी खराब बनावट वाला है। यहां नंगी कठोर चट्टानें खुली पड़ी हैं, पर शोंपेन आदिवासियों ने जल संचय के लिए इनका बहुत कौशलपूर्ण उपयोग किया है। ढलान पर नीचे बुलेटवुड के लट्ठों को लगाकर बांध डाले जाते थे और पानी जमा किया जाता था। आज जहाज, जेट्टी और मकान बनाने में यही लकड़ी लगती है और इसका अकाल हो गया है। शोंपेन आदिवासियों को यह लकड़ी शायद ही कभी मिल पाती है। इसी के चलते अब ऐसे बांधों का बनना भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।

शोंपेन और जारवा आदिवासी बांस को चीरकर उनका उपयोग जल संचय में किया करते हैं। बांस को काटकर जमीन की ढलान के हिसाब से नीचे ठीक से जमा दिया जाता है और यही बांस बिखरते बरसाती पानी को समेटकर छिछले गड्ढों में ला देता है। इन गड्ढों को “जैकवेल” कहा जाता है। अक्सर फटे बांस से पेड़ों के आसपास की जमीन को घेर दिया जाता है जिससे उनके पत्तों से होकर गिरने वाला पानी संग्रहित किया जा सके। ये गड्ढे एक-दूसरे से जुड़े होते हैं और एक से उफनकर दूसरे में पानी जाने का रास्ता भी इन्हीं फटे बांसों से घेरकर बनाया जाता है। यह पानी आखिरकार सबसे बड़े “जैकवेल” में जमा होता है, जिसकी गहराई 7 मीटर और गोलाई करीब छह मीटर हुआ करती है।

पानी जमा करने के अन्य तरीकों में बरसात के समय नारियल के पेड़ के नीचे कोई बरतन या घड़ा रखना भी शामिल है। बरतन के मुंह पर एक डाल लगा दी जाती है जिससे आसपास जा रहा ताजा पानी भी इसमें आ जाए। चूंकि लोग यहां नारियल का पानी खूब पीते हैं, इसलिए पेयजल की उनकी जरूरतें काफी कम हैं। ओंगी आदिवासी अपनी छतों से गिरने वाले पानी को बरतनों में भरते हैं। अक्सर इसके लिए वे अपनी लकड़ी और बांस वाली टोकरियों को छत के किनारे लटका देते हैं।

ग्रेट निकोबार द्वीप के शोंपेन आदिवासी केला, अनानास और अनेक जंगली फल तथा सब्जियां उगाते हैं। इनको सिंचित करने के लिए वे ऊंचाई से खेतों तक जल मार्ग बनाते हैं। बरसात का पानी इनसे होकर खेतों में जमा होता है। आदिवासी लोग जल संचय के समय जमीन की बनावट और ढलान जैसी चीजों का ध्यान रखते हैं। अंडमान में वे 2 मी. गुणा 3 मी. से 4 मी. गुणा 5 मी. के आयताकार तालाब खोदना पसंद करते हैं। ऐसा लगता है कि आदिवासियों को मालूम है कि ये चटृानें इस आकार में आसानी से कटती हैं।

दूसरी और कार निकोबार के आदिवासी अपेक्षाकृत समतल, नरम मिट्टी वाली जमीन और 2 से 3 मीटर भूजल स्तर पर गोलाकार कुएं खोदते हैं। यहां 2 से 20 मीटर व्यास वाले कुएं हैं। यहां से गुजरने वाले जहाजों पर से फेंके गए बरतनों का प्रयोग करके कुएं खोदते हैं। इन कुओं के किनारे-किनारे भी वही खास लकड़ी लगाई जाती है जिसका उपयोग बांध बनाने में होता है। “बुलेटवुड” कही जाने वाली यह लकड़ी पानी में नहीं सड़ती। लट्ठों के बीच 10-20 सेमी. जगह छोड़ दी जाती है जिससे रिसाव होकर पानी अंदर आ सके। बीमार लोगों को कुओं के पास नहीं जाने दिया जाता, क्योंकि पानी में उनका छूत फैल जाने का खतरा होता है।

कहां जमीन खोदने से पानी निकलेगा, यह निश्चित करने वाला आदिवासी कबीलों के तरीके बहुत दिलचस्प हैं। जारवा कबीले के प्रधान ही यह काम करते हैं। जमीन पर पैर थपथपा कर और पदचाप की अनुगूंज सुनकर वे तय करते हैं कि कहां पानी है। कार निकोबार द्वीप के निकोबारी आदिवासी नारियल के पेड़ के रंग-रूप और फल देखकर पानी का अंदाजा लगाते हैं। अगर कच्चे नारियल का पानी मीठा निकला, इसका मतलब उसके नीचे स्थित भूजल खारा है। इसके ठीक उलट नारियल का पानी नमकीन होने का मतलब भूजल का मीठा होना है। इन कुओं से निकलने वाले पानी की मात्रा कई चीजों पर निर्भर करती है, जिनमें पानी किस रफ्तार में पुनरावेशित होता है, किस मौसम में पानी निकाला जाता है, जमीन की बनावट और उसकी भौगोलिक अवस्थिति आदि शामिल हैं।

ग्रेट निकोबार की कैंपबेल खाड़ी के निकट स्थित कुओं में मानसून के समय तो आराम से दो से तीन मीटर पानी निकाला जा सकता है, जबकि गर्मियों में यह 0.5 से 0.8 मीटर से ज्यादा नहीं होता।

दक्षिण अंडमान द्वीप में पंप से पानी निकालने संबंधी जांचों से यह पता चला है कि रेतीले इलाकों (कोरबाइहन कोव में) में यह 120 मिनट में पुनरावेशित होता है, पर चट्टानी, खासकर लावा से बने, इलाकों में इसमें 500 मिनट का समय लगता है। इसलिए ज्यादातर कुओं से पानी निकालने के दो समय चक्र रखने से काम बनेगा। मानसून के दौरान रोज 1.5 मीटर पानी निकाला जा सकता है, जबकि गर्मियों में 0.6 मीटर ही। प्रति व्यक्ति रोजाना औसत 40 लीटर पानी का प्रयोग मानें तब भी आदिवासियों द्वारा विकसित पारंपरिक प्रणालियां उनकी जरूरतों के लिए पर्याप्त हैं।

पर दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश आज उपेक्षित और बदहाल हैं। रखरखाव कमजोर पड़ने से उनका ढांचा भी खत्म हुआ जा रहा है। गाद भारने से उनकी क्षमता में ह्रास हुआ है। तटीय इलाकों में समुद्री कचरा इन व्यवस्थाओं के अंदर आ गिरा है। 20 मीटर व्यास तक के कुएं अब त्याग दिए गए हैं, क्योकि उनका पानी गंदा और खारा हो चुका है। तट की रेत और कंकड़ वाली जमीन अत्यधिक रिसाव वाली होती है और समुद्री खारा पानी आसानी से जलभरों तक पहुंच जाता है। इस बीच सरकार ने भी कई बस्तियों में नलकूप गाड़ने शुरू किए हैं और इनका असर भी पुरानी व्यवस्थाओं पर पड़ा है। 1980 के दशक के आखिरी दिनों में सरकार ने पारंपरिक व्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करने के लिए कुछ कदम उठाए थे। कुछ कुएं अंडमान के लोक निर्माण विभाग ने अपने हाथ में लिए थे। उनको साफ किया गया, उनको सीमेंट लगाकर दुरुस्त किया गया। पर दुर्भाग्य से इसमें भी कुछ गलतियां हुईं और यह पूरा ही अभियान बंद कर दिया गया।

अंडमान के चर्चित सेलुलर जेल, जिसमें आजादी की लड़ाई के सबसे “खतरनाक” कैदियों को कालापनी की सजा के तहत रखा जाता था, को पानी देने के लिए अंग्रेजों द्वारा बनवाया गया डिल्थावन तालाब भी आज बदहाल है।

आज यही अनेक पारंपरिक व्यवस्थाएं काम नहीं कर रही हैं। लेकिन अभी भी अगर उन पर ध्यान दिया जाए तो वे लोगों की पानी संबंधी जरूरतें पूरी कर सकती हैं। इस द्वीप समूह पर पानी की मांग जिस तेजी से बढ़ रही है उसे सिर्फ पारंपरिक प्रणालियों से ही पूरा किया जा सकता है, क्योंकि यही यहां की जलवायु, जमीन और संस्कृति के माफिक बैठती है। पानी की आगे की जरूरतों के लिए यहां कम-से-कम 25 बांध और 1400 कुओं की जरूरत पड़ेगी। एक बांध करीब 12 लाख रुपए में तैयार होता है और एक कुएं पर 9,000 रुपए खर्च होते हैं।

यहां बहुत आधुनिक व्यवस्था कारगर नहीं हो सकती और यहां के मूल निवासी ही पानी के मामले में सबसे अच्छे गाइड हो सकते हैं। “जैकवेल” की शृंखलाओं के सहारे भूजल निकालना और बांसों तथा बांधों के सहारे भूतल के पानी को संग्रहित करना अभी भी उपयोगी, टिकाऊ और सबसे कम खर्चीला है।

लक्षद्वीप समूह

लक्षद्वीप समूह को भारत का “प्रवाल स्वर्ग” कहा जाता है। केरल तट से 225 से 450 किमी. दूरी तक अरब सागर में मोतियों की शृंखला की तरह बिखरे 36 द्वीपों वाला यह प्रदेश देश का सबसे छोटा केंद्र शासित प्रदेश है। इनका कुल क्षेत्रफल सिर्फ 32 वर्ग किमी. है। इन 36 में से सिर्फ 10 द्वीपों पर ही लोग रहते हैं। कुछ महत्वपूर्ण द्वीपों में कवारत्ती (जो यहां की राजधानी है), अगत्ती, आमिनी, कदमत चेतलत, बित्रा, मिनीकाय और बंगरम हैं। 1991 की जनगणना के अनुसार इस द्वीप समूह की कुल आबादी 51,707 है।

लक्षद्वीप में खूब बारिश होती है और औसत वार्षिक वर्षा 1600 मिमी. है। जून से सितंबर तक दक्षिण-पश्चिमी मानसून यहां खूब वर्षा कराती है। नवंबर से मार्च के बीच उत्तर-पूर्वी मानसून भी यहां कभी-कभी वर्षा लाती है। इतनी बरसात के बावजूद यहां पेयजल की भयंकर कमी है। इसका मुख्य कारण जंगलों और वनस्पतियों का अभाव तथा जमीन की बनावट है। बित्रा जैसे द्वीपों में समुद्र रिसाव के चलते भूजल भी खारा है।

समुद्री प्रवालों के ठूह से यहां कई कच्ची पर्वतमालाएं बन गई हैं। यहां की जमीन की बनावट समतल है और इसमें जैविक ढंग से बदलाव (पहाड़ बनने वगैरह) के लक्षण नहीं दिखते। सोतों और जल निकासी मार्गों की अनुपस्थिति भी इसी चलते होंगे। समुद्री अवशेषों वाले कचरे से बनी जमीन अत्यधिक रिसाव वाली भी है। संभवतः इसके चलते भी पानी का प्रवाह नहीं मिलता। इन द्वीपों में ताजा पानी की सतह रेत के 0.5-1.5 मीटर नीचे मिलती है। लोग यहीं से पेयजल प्राप्त करते हैं। समुद्री लहरों और खारे पानी के आने से यह व्यवस्था प्रभावित होती है। वर्षा की कमी या भूजल को ज्यादा मात्रा में निकालने से भी मीठे पानी की कमी होती है और खारा पानी जलभरों में समा जाता है।

पेयजल के लिए द्वीप समूह के लोग कुओं और बावड़ियों पर निर्भर हैं। लगभग हर घर में कुआं है। कवारत्ती में करीब 800 कुएं हैं तो आमिनी में 650 से ज्यादा। चूंकि यहां ताजा जल का अभाव रहता है, सो लोगों ने जल संग्रह और संरक्षण का महत्व जान लिया है और उसी के अनुरूप अपना जीवन भी ढाल लिया है। नहाने-धोने के लिए वे तालाबों और बावड़ियों का प्रयोग करते हैं। आम तौर पर कुओं के ऊपरी भाग को ईंट-सीमेंट से पक्का किया जाता है और नीचे का हिस्सा खुला छोड़ दिया जाता है।

दक्षिण भारत के मंदिरों की तरह लक्षद्वीप की हर मस्जिद से एक तालाब जुड़ा हुआ है। अपनी किताब “लक्षद्वीप” में मुकुंदन लिखते हैं, “सभी द्वीपों पर सैकड़ों की संख्या में कुएं, कुछ तालाब और कुछेक संरक्षित कुएं हैं। तालाबों में ही नहाने-धोने का काम होता है। ये अक्सर मस्जिदों से जुड़े होते हैं। पर अब ये काफी गंदे हो गए हैं। यहां औरतों और मर्दों के नहाने की व्यवस्था अलग-अलग है। इन तालाबों और असंख्य गड्ढों में मच्छरों का डेरा बन गया है।”

इन तालाबों का पानी पीने लायक नहीं है और इनमें कई रोगों के जीवाणु भी पाए जाते हैं। स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए सरकार ने बरसाती पानी को संग्रहित करने वाली कई व्यवस्थाएं विकसित करने की कोशिश की है। सरकारी दस्तावेज, “ग्राउंडवाटर रिसोर्सेज एंड मैनेजमेंट इन लक्षद्वीप” में कहा गया है “भूजल के उपयोग से पर्यावरण पर पड़ने वाले कुप्रभावों के मद्देनजर द्वीप समूह के अधिकारियों ने कवारŸी स्थित 176 सरकारी क्वार्टरों के लिए बरसाती पानी संग्रहित करने की व्यवस्था की। इसका कुल जल ग्रहण क्षेत्र 8,026 वर्ग मीटर है और पानी की टंकियों की कुल क्षमता 645 घन मीटर है। बरसात का सिर्फ 20 फीसदी पानी संग्रहित हो जाए तो ये टंकियां साल में चार-चार बार भरी जा सकती हैं।”

प्राक्कलन समिति की 76वीं रिपोर्ट (1988-89) के अनुसार, “आमिनी और कदमत में शुद्ध पेयजल की आपूर्ति बनाने के लिए बरसाती पानी को (छत से) जमा करने वाली व्यवस्थाएं बनाई जा रही हैं। यह योजना अन्य द्वीपों में लागू होगी।” इसी रिपोर्ट में आगे कहा गया है, “1987-88 में केन्द्र सरकार की ग्रामीण जलापूर्ति योजना को भी लक्षद्वीप में लागू किया गया। इस योजना में हर घर में पानी की टंकियां लगाना, कुओं को ठीक करना और चापाकल लगाना शामिल है। 1987-88 और 1988-89 में दो द्वीपों पर 950 टंकियां लगाने और नौ सार्वजनिक कुओं को ठीक करने पर 47.59 लाख रुपए खर्च का प्रावधान है। यह योजना आमिनी, कदमत और कवारŸत्ती में अभी-अभी शुरू हुई है।”

इन व्यवस्थाओं के बावजूद लक्षद्वीप में आज पानी की भारी कमी है। भूजल और बरसाती पानी को संचित करने वाली पारंपरिक प्रणालियों को पुनर्जीवित और दुरुस्त करना ही एकमात्र विकल्प है। द्वीप समूह की अधिकांश बावड़ियां, जो पुरानी तकनीक का अनुपम उदाहरण हैं, आज उपेक्षित पड़ी हैं। छतों से बरसाती पानी को संचित करने का काम प्राथमिकता के आधार पर करना होगा।

सीएसई  से वर्ष १९९८ में प्रकाशित पुस्तक ‘बूंदों की संस्कृति’ से साभार