जल

दुधारी नदी का सुख-दुख

नदियों के साथ बरती गई नासमझी से रूबरू कराती कोसी के संग-संग हफ्ते भर की यात्रा

Archana Yadav

कोसी शायद अकेली ऐसी नदी है, जिसे मां और डायन दोनों कहा गया है। दिनेश कुमार मिश्र, जिन्होंने बिहार की नदियों का बरसों अध्ययन किया है, का इशारा कोसी के दोहरे स्वभाव की तरफ है। यह नदी जीवन और जमीन का सिंचन भी करती है और विनाश भी। यूं तो हिमालय से भारत के कंधे पर उतरने वाली अधिकतर नदियों का यही स्वभाव है, पर कोसी जिस रफ्तार से अपना रास्ता बदलती है और उफनकर रेत उड़ेलती है, उसका डर जनमानस में गहरे तक समाया है।

मैं कोसी के बिहार में प्रवेश करने से ठीक पहले नेपाल में बने कोसी बराज पर खड़ी हूं। एक तरफ कुछ मछुआरे चमकती धूप में हथेलीभर लंबी सफेद मछलियां पकड़ रहे हैं। दूसरी तरफ नाविक नदी में बहकर आईं लकड़ियां ढोकर ला रहे हैं। ये लकड़ियां पहाड़ों पर फैले जंगलों की हैं, जिन्हें कोसी अपने वेग से उखाड़कर बहा लाई है।

कोसी का उद्गम तिब्बत से होता है। नेपाल में सात नदियों के मिलने से बनी कोसी को सप्तकोसी कहा जाता है। ये नदियां  हिमालय में एक विशाल क्षेत्र से जल ग्रहण करती हैं। इस जलग्रहण क्षेत्र की विविधता के बारे में नेपाल के जल विशेषज्ञ अजय दीक्षित बताते हैं कि उत्तर से दक्षिण की तरफ 150 किलोमीटर के दायरे में छह प्रकार के जलवायु क्षेत्र और भूवैज्ञानिक खंड आते हैं, जिनकी ऊंचाई 8 हजार मीटर से लेकर महज 95 मीटर के बीच है। इनमें तिब्बत के पठार, हिमालय के शिखर, मध्य हिमालय के क्षेत्र, महाभारत श्रृंखला, शिवालिक पहाड़ियां और तराई का इलाका शामिल है। आठ हजार मीटर से भी ऊंची एवरेस्ट सहित आठ पर्वत चोटियां, 36 ग्लेशियर और 296 हिमनद झीलें भी इस जलग्रहण क्षेत्र में स्थित हैं।    

इन कच्ची पहाड़ियों में जब पानी बरसता है तो ढेर सारी मिट्टी कटकर नदी में बह जाती है। कोसी जब तलहटी से निकलकर खुले मैदान में प्रवेश करती है तो अपने साथ लाई इस गाद को पंखे के आकर के एक विशाल क्षेत्र में फैला देती है। मेरा इरादा इस 180 किलोमीटर लंबे और 150 किलोमीटर चौड़े कछार से गुजरते हुए नदी के साथ-साथ चलने का है।

सुख के माथे बल पड़े

इस तरह हम नेपाल से सटे सुपौल जिले में प्रवेश करते हैं। नदी के दोनों ओर 10 किलोमीटर की दूरी पर मिट्टी के तटबंध बने हुए हैं। इन तटबंधों को बाढ़ रोकने के लिए 1959 में बनाया गया था।

 कार्तिक का महीना है। तटबंध के बाहर मीलों तक हरे धान के खेत फैले हैं। बीच-बीच में लंबे-लंबे बांसों के झुंड। तटबंधों के समीप पटेर और कांस की झाड़ियां। बाढ़ के पानी से बने तालाबों में कहीं कोई आदमी पटसन के गट्ठर खींच कर ला रहा है तो कहीं बच्चे और औरतें दिवाली से पहले घर की लिपाई के लिए मिट्टी खोद रही हैं। जैसे ही मैं लोगों से बात करती हूं, उनकी बातों में नदी का दर्द उभर आता है।

हरल-भरल छल छई बाग-बगीचे
सुना कटोरा खेत
देख-देख मोरी आफतई है
सबरे बालू के ढेर

अस्सी साल के रमेश झा यह गीत गाकर कोसी के बारे में बताते हैं। कोसी के मैदान में उनकी जमीन थी। तटबंध बनने पर उन्हें खेतों से दूर सुपौल कस्बे में बसाया गया। वे बताते हैं कि कोसी ने 1938 में सुपौल से होकर बहना शुरू किया। 1723 से 1948  तक कोसी ने अपना रास्ता 160 किलोमीटर पश्चिम की तरफ बदल लिया था!

झा कहते है, “कोसी के आने से पहले यहां पानी की नहीं, दूध की नदियां बहती थीं। यहां का आदमी काम के लिए बाहर नहीं जाता था, बल्कि बाहर से लोग यहां मजदूरी के लिए आते थे।”

“कोसी के आने के बाद महामारी शुरू हुई। कोई मर जाता था तो उसे फेंकने वाला भी नहीं होता था।”
“तटबंध बनने के बाद तो जिंदगी जेल हो गई। पहले पानी आता था, चला जाता था। धरती उपजाऊ बनी रहती थी। अब तो तटबंध के भीतर जिसके पास 50  बीघा जमीन है वो भी बाजार से खरीद के खाता है। सुख कहां? सुख के माथे बल पड़े!”

सुपौल से कुछ किलोमीटर उत्तर में सरायगढ़ भपतियाही ब्लॉक के कल्याणपुर गांव में पूनम देवी अपने आंगन में बैठी अधपके धान के पौधों से कुछ धान बचाने की कोशिश कर रही हैं। उनके खेत को नदी ने काटना शुरू कर दिया है। इसलिए फसल को पकने से पहले ही काट लाईं। मैने पूछा क्या करेंगी इसका? “क्या करेंगे, मवेशी खाएगा!”

दिनेश कुमार मिश्र का कहना है कि ब्रह्मपुत्र नदी के बाद शायद कोसी सबसे ज्यादा गाद भारत में लाती है। जब नदी के तल पर बिछी इस गाद और बालू से कोसी का रास्ता अवरुद्ध हो जाता है तो यह अपने किनारे काटने लगती है और नया रास्ता निकाल लेती है। पूनम देवी बताती हैं, “डेढ़-डेढ़ बांस गहरा कट जाता है। एक-एक कट्ठा जमीन एक बार में पानी में गिर जाती है।” पूनम देवी का घर पूरबी तटबंध के भीतर दो ठोकरों (spurs) के बीच में है जो नदी के तेज बहाव से तटबंध की रक्षा करते है। वे तीस बरस की हैं और उनके पांच बच्चे हैं। उनके पति दिल्ली में मजदूरी करते हैं।

कोसी अंचल में तटबंधो का जाल-सा बिछा हुआ है। भपतियाही में कोसी के उत्तरी और पूरबी तटबंधों के भीतर दो और तटबंध हैं जिन्हें गाइड तटबंध कहते हैं। इनका निर्माण नदी के बहाव को समेटकर कोसी महासेतु  के दो किलोमीटर संकरे रास्ते से निकालने के लिया किया गया है। कोसी की सहायक नदियों के किनारे भी तटबंध बने हुए हैं। एक तटबंध से दूसरे तटबंध पर घूमते-घूमते में दिशाभ्रमित हो चुकी हूं। लेकिन इस इलाके के सामाजिक कार्यकर्ता उपेंद्र सिंह कुशवाहा, जिनमें पकी उम्र में भी बच्चों सा जोश है, मुझे अभी एक और तटबंध दिखाना चाहते है: निर्मली रिंग बांध। यह तटबंध सुपौल के सबसे बड़े बाजार की सुरक्षा के लिए चारों तरफ से घेरते हुए बनाया गया था। आज इसे देखकर ऐसा लगता है मानो यह बाजार एक चौड़े गड्ढ़े में बसा हुआ है। एक तरफ कोसी और दूसरी तरफ इसकी सहायक नदी भुतही बालन द्वारा सालों से लाई गई रेत से तटबंध के बहार की जमीन का स्तर ऊपर उठ चुका है। यहां पानी का कोई निकास नहीं है। जब बारिश होती है तो पंप के द्वारा पानी बाहर फेंका जाता है।



जलमग्न जीवन

अब हम सहरसा जिले में प्रवेश करते हैं। तालाबों में कुछ लोग बांस की टोकरियों में मखाने के बीज इकट्ठा कर रहे हैं। तटबंध से बचाए गए खेतों में धान की जगह घास और जलकुम्भी उगी हुई है। जल भराव विकट है। तटबंधों के बाहर दोनों तरफ तीन-चार किलोमीटर तक पानी भरा हुआ है। यहां पनपते मच्छरों से बचाव के लिए कई लोग अपने मवेशिओं को भीमकाय मच्छरदानियों में रखते हैं।

नदी के प्रवाह से छेड़छाड़ का पासा कुछ उल्टा पड़ गया है। पचासों साल से लाई हुई गाद और बालू से दोनों तटबंधों के बीच नदी का तल काफी ऊपर उठ गया है। तटबंध पर खड़े होकर देखने से साफ पता चलता है कि नदी ऊंचे भू-स्तर पर बह रही है। नतीजतन नदी का पानी मिट्टी के तटबंधों से रिसकर आस-पास के खेतों में फैल जाता है। तटबंध एक तरफ नदी की गाद और बालू को बाहर नहीं फैलने देते और दूसरी तरफ बाहर बहती धाराओं और बरसात के पानी को नदी में नहीं मिलने देते।

पश्चिमी तटबंध के बाहर तो स्थिति और भी बदतर है। यहां कोसी और उसकी सहायक नदी कमला बलान के बीच एक बड़ा हिस्सा कहने को तो दोनों नदियों पर बने तटबंधों से सुरक्षित कर लिया गया है, लेकिन यह क्षेत्र दोनों नदियों के जल रिसाव और जल भराव की मार झेलता है। पूरा इलाका एक विशाल झील-सा प्रतीत होता है। लोग नावों में आ-जा रहे हैं। बीच-बीच में गांव टापू से दिखाई देते हैं। ऐसा ही एक गांव है घोंघेपुर। इसके समीप ही पश्चिमी तटबंध समाप्त हो जाता है। ज्यादातर मकान कच्चे, बेतरतीब से। मोहम्मद यूनुस नाम के एक बुजुर्ग जोर देते हैं कि हम नाव में बैठकर पूरा गांव देखें। यहां कई घर पानी से कुछ दिन पहले ही उबरे हैं। जगह-जगह मिट्टी और बांस की दीवारे धंसी पड़ी हैं। एक आदमी गाय को जलकुम्भी खिला रहा है। यह गाय के लिए हानिकारक है। “क्या करें? यहां यही उगता है।”

घूंघट निकाले एक औरत बताती है कि तीन महीने कमर तक पानी था। “स्कूल की कुर्सियां भी पानी में थीं। बरसात के दिनों में खाना चौकी पर बनाना पड़ता है। कुछ लोग सत्तू फांक के रहते है। जिसके पास सत्तू भी नहीं होता वो भूखे रहते हैं।” दशहरा के बाद से पानी घटना शुरू हो जाता है। लेकिन खेत जनवरी-फरवरी तक ही सूख पाते हैं। इसलिए बुवाई के लिए थोड़ा ही समय मिलता है। मैंने पूछा, “फिर कमाई के लिए क्या करते हैं?” वे कहती हैं, “देखते नहीं आस-पास! यहां कोई क्या कर सकता है? ज्यादातर लोग काम करने बाहर चले जाते हैं।”

कोसी अंचल का यह इलाका देश के अति पिछड़े क्षेत्रों में आता है। बिहार से सबसे अधिक लोग दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, 45 से 50 लाख बिहारी मजदूर दूसरे राज्यों में काम करते हैं। इनमें बड़ी तादाद कोसी अंचल के लोगों की है।

मिश्र द्वारा इकट्ठा किये गए आंकड़ों के अनुसार, कोसी के आसपास की 306,200 हेक्टेयर जमीन जल भराव से प्रभावित है।

जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा कोसी के दोनों तटबंधों के भीतर नदी के पेट में भी रहता है। मिश्र का अनुमान है कि लगभग 10 लाख लोग तटबंधों के बीच फंसे 380 गांवों में रहते हैं। यहां कोसी कहीं रेत बिछा कर नए टापू बना रही है तो कहीं जमीन निगल रही है।

तटबंधों की कैद में

मेरी जिज्ञासा तटबंधों के बीच का इलाका देखने में है। महिषी गांव की संस्था कोसी सेवा सदन के सचिव राजेंद्र झा इस इलाके को अच्छे से जानते हैं। एक समय उन्होंने यहां के डकैतों का आत्मसमर्पण करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मेरे अनुरोध पर वे मुझे कोसी के पेट में ले जाने को तैयार हो जाते हैं। महिषी से कुछ किलोमीटर दक्षिण पूर्वी तटबंध के पास बाबा कारू धाम से हम डीजल से चलने वाली एक बड़ी-सी नौका में बैठते हैं।

चटक धूप खिली है। नदी के पार रेतीला मैदान दीख पड़ता है। दस मिनट में हम पार आ जाते हैं। कुछ और नावें वहां पहुंचती हैं। एक-एक नांव पर बीस-बीस लोग घास के गट्ठरों और साइकिलों के साथ सवार हैं। एक पर मोटरसाइकिल भी लदी है। जुते हुए खेतों और कांस की झाड़ियों से होते हुए हम बघौर गांव पंहुचते हैं। यहां हमारी भेंट 83 वर्षीय अच्छी कद-काठी वाले जगदीश सिंह से होती है। वो ऊंचा सुनते है पर उनकी याददाश्त तेज है। वे बताते हैं कि वे यहां से तीन किलोमीटर दूर बाबा कारू धाम के पास रहा करते थे। सत्तर  के दशक में नदी ने उनके गांव को निगलना शुरू किया। “जैसे-जैसे जमीन कटती जाती, हम पीछे हटते जाते। हटते-हटते हम यहां आ गए। सन 1977 और 1987  के बीच हम पांच-छह बार विस्थापित हुए।”

हमारे आसपास कई और लोग इकट्ठा हो जाते हैं। वे बताते हैं कि हम पांच किलोमीटर चौड़े और 25 किलोमीटर लंबे एक टापू पर हैं, जिसके सब ओर से नदी की धाराएं हैं। “इस टापू पर बहुत-से गांव  होंगे।” बघौर में प्राइमरी स्कूल और आंगनबाड़ी तो है पर कोई स्वस्थ्य केंद्र नहीं। न ही इस गांव में बिजली पहुंची है। कुछ लोगों ने सरकारी मदद से सोलर पैनल लगाये हुए हैं। लोग बताते हैं कि यही हाल इस टापू के बाकी गावों का है। सारे सरकारी दफ्तर, बैंक, पुलिस स्टेशन तटबंधों के बहार हैं।

बघौर निवासी चंचल कुमार सिंह कहते हैं, “हमारी जिंदगी ऐसे है जैसे बत्तीस दांतों के बीच में जीभ। कहीं भी जाने के लिए हमें नदी पार करनी पड़ती है, जो बरसात में ढाई किलोमीटर चौड़ी हो जाती है। यहां के पानी में इतना आयरन है कि आप पी नहीं सकते। इस पानी से आप कपड़े धोएंगे तो कपड़े भी पीले पड़ जाएंगे।”


चंचल हमें दिखाते हैं कि कैसे वे पानी को साफ करते हैं। उन्होंने एक स्टील के ड्रम में रेत और चारकोल भर दिया है और इसके निचले सिरे पर एक नल लगा दिया है। “इससे एक दिन में 40 लीटर पानी साफ हो जाता है।”

हम पास के बिरवार गांव पहुंचते हैं। वहां भी विस्थापन के वही किस्से, वही पीड़ा। यहां से पास के घाट तक जाने के लिए हमें तीन छोटी धाराएं पार करनी हैं। हम अपने जूते हाथ में लेते हैं, पतलून की टांगें ऊपर चढ़ाते हैं और गाद भरे उथले पानी में पैर डाल देते हैं। घाट पर दो दर्जन लोग नाव का इंतजार कर रहे हैं। बीच नदी में नाव रूक जाती है। यहां पानी उथला है। चार लोग तुरंत पानी में कूद पड़ते हैं और नाव को धक्का लगाकर गहरे पानी में ले आते हैं।

तटबंध पर वापस आने के बाद हम दक्षिण की तरफ चलते हैं। कुछ ही किलोमीटर दूर तटबंध के बाहर की तरफ कुछ औरतें एक भरी हुई नाव पर चढ़ने की जल्दबाजी कर रही हैं। यहां एक धारा कोसी में मिलती थी, जिसका रास्ता तटबंध ने रोक दिया है। ये औरतें इस धारा के पार बेलवारा पुनर्वास गांव जाना चाहती हैं। इस गांव में लोगों को तटबंध के भीतर से बाहर लाकर बसाया गया था। इस धारा को नदी में बहने के लिए जो स्लूस गेट बनाया गया था, वह 1984 की बाढ़ के दौरान पानी के वेग से ध्वस्त हो गया। झा कहते हैं, “ये तटबंध बम की तरह हैं। कहीं भी फट सकते हैं।”

ऐसा आठ बार हो चुका है, जब तटबंध टूटने से बाढ़ आई है। सुपौल में नेपाल सीमा के समीप कुशवाहा ने मुझे वो जगह दिखाई जहां से होकर कोसी ने  2008 में, नेपाल में तटबंध तोड़ने के बाद बहना शुरू कर दिया था। उस जगह को देखकर लगता था मानो किसी ने हरे-भरे खेतों और जंगलों में तीन किलोमीटर चौड़ा बेलन चला दिया हो। रास्ते में जितने भी पेड़ पौधे आए कोसी ने सब उखाड़ दिए और रेत बिछा दी।


मिश्र का कहना है,“सबसे बड़ी क्षति यह है कि आपने नदी का धर्म भ्रष्ट कर दिया है। नदी का धर्म है, अपने आसपास के इलाके के पानी को निकास देना।” कोसी पर लिखी अपनी किताब ‘दुई पाटन के बीच में’ में वे लिखते हैं कि जलभराव और दोनों तटबंधों के बीच की जमीन मिलाकर 426,000 हेक्टेयर होगी। यानी बाढ़ से जितनी जमीन की सुरक्षा के लिए कोसी तटबंध बने थे, अब उससे दुगनी जमीन को इन तटबंधों से खतरा है!

इरादों का पुल

दक्षिण की तरफ बढ़ते हुए हम खगरिया जिले के बेलदौर ब्लॉक में प्रवेश करते हैं। आगे बढ़ने के लिए हमें नदी पार करनी है, पर डुमरी घाट पर बने दोनों पुल ध्वस्त हैं। पहला पुल 1991 में बनाया गया था। इस पुल के बनने से पहले बागमती नदी यहां से एक किलोमीटर की दूरी पर बहती हुई कुछ दूर आगे जाकर कोसी में मिलती थी। लेकिन शायद पुल का खर्च कम रखने के लिए पुल की लंबाई छोटी रखी गई और बागमती को डुमरी पर ही कोसी में मिलने को विवश कर दिया गया। दोनों नदियों का वेग साल 2010 में पुल के कई स्तम्भ बहा कर ले गया। तब सरकार ने एक और पुल बनवाया। इसे लोहे से मजबूत किया गया। लेकिन 2012 में यह भी ध्वस्त हो गया।

ऐसे में बेलदौर के कुछ नाविकों को सूझा, क्यों न अपनी बड़ी-बड़ी नावें जोड़कर एक पुल बनाया जाए जिससे सहरसा और खगरिया के बीच संपर्क बना रहे। फिर क्या था, उन्होंने ट्रक जितनी लंबी-चौड़ी नावें जोड़ी और उन पर बांस की सड़क-सी बिछा दी। इस पर से वाहन पार होने लगे। यह पुल पानी घटने पर जनवरी में तैयार किया जाता है और बरसात से पहले मई में हटा दिया जाता है।

हम इस पुल को तो नहीं देख पाए लेकिन हमारी मुलाकात उन दो नाविकों—बजरंग सैनी और कारे सैनी—से हुई जिन्होंने पुल निर्माण की अगुवाई की थी। बजरंग सैनी चैक का कुर्ता और लूंगी पहने हुए हैं। कंधे पर अंगौछा है। वे बताते हैं उन्होंने आसपास के नाविकों को इकट्ठा करना शुरू किया जो गंगा में नाव चलाया करते थे। अधेड़ उम्र के बजरंग सैनी ने सारी उम्र फरक्का तक नाव चलाई है, इसलिए कई नाविकों को जानते है। वे कहते हैं, “पहले साल हमने 42 नावों को चार फीट की दूरी पर जोड़कर पुल बनाया। हमे लगा ये दूरी कुछ ज्यादा है, सो अगली बार हमने दुगनी नावें एक फुट की दूरी पर जोड़ी।”

पुल बनाने की यह कहानी सुनने के बाद हमने अपनी स्कौर्पियो गाड़ी डीजल इंजन से चलने वाली विशाल नाव पर चढ़ाई और नदी पार की। अब हम यात्रा के अंतिम पड़ाव कुर्सेला की तरफ चलते हैं, जहां लगभग 700  किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद कोसी चुपचाप गंगा में समा जाती है।

यहां सामाप्त यह यात्रा अंतर्मन में जारी रहेगी!