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विश्व जल दिवस पर विशेष-1: कैसे बुझेगी प्यास

22 मार्च को विश्व जल दिवस है। इसे देखते हुए डाउन टू अर्थ प्रस्तुत कर रहा है, पानी से जुड़ी विभिन्न रिपोर्ट्स की एक सीरीज-

Sushmita Sengupta

देश में शहरों का विस्तार जारी है। साल 2001 तक देश की आबादी का महज 28 प्रतिशत हिस्सा शहरों में रहता था, लेकिन दशक 2001-2011 में शहरी आबादी में वृद्धि की दर 30 प्रतिशत पहुंच गई है। अनुमानित है कि साल 2030 तक देश की आबादी का 40 प्रतिशत हिस्सा शहरों में रहने लगेगा।

आसान शब्दों में कहें, तो साल 2001 में शहरी आबादी 29 करोड़ थी, जो साल 2011 में बढ़कर 37.7 करोड़ हो गई और साल 2030 तक ये 60 करोड़ हो जाएगी। इनमें से कितनी आबादी को पानी व साफ-सफाई जैसी बुनियादी सेवाएं मिल पाएंगी, ये कल्पना से परे है। जल संकट ने शहरों को प्रभावित करना शुरू कर दिया है और पानी की गुणवत्ता की समस्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत में इतना पानी है कि शहरी और ग्रामीण आबादी की जरूरतें पूरी की जा सकें?

केंद्रीय जल शक्ति व सामाजिक न्याय व सशक्तिकरण राज्य मंत्री रतन लाल कटारिया ने मार्च, 2020 में जानकारी दी कि साल 2001 में देश में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1,816 घनमीटर थी, जो साल 2011 में घटकर 1,545 हो गई। साल 2021 में ये घटकर 1,486 घनमीटर और साल 2031 में 1,367 घनमीटर हो सकती है। यानी स्पष्ट है कि आबादी में इजाफा होने के साथ देश में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता घट रही है।

नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर के सहयोग से हाइड्रोलॉजिकल मॉडल और वाटर बैलेंस का इस्तेमाल कर सेंट्रल वाटर कमीशन (सीडब्ल्यूसी) ने 2019 में “रिअसेसमेंट ऑफ वाटर एवलेबिलिटी ऑफ वाटर बेसिन इन इंडिया यूजिंग स्पेस इनपुट्स” नाम की रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट से स्पष्ट पता चलता है कि देश जल संकट के दौर से गुजर रहा है। भू-जल का अत्यधिक दोहन एक और बड़ी चिंता है। अभी देश में पंप वाले कुएं 2 करोड़ से अधिक हैं, जिनमें सरकार द्वारा मुफ्त बिजली सप्लाई कराई जा रही है। इनके कारण भू-जल में कमी आ रही है।

सीडब्ल्यूसी की रिपोर्ट कहती है कि इसके कारण देश में हर साल पानी की मात्रा 0.4 मीटर घट रही है। वहीं, कई तटीय क्षेत्रों में समुद्र का खारा पानी घुस गया है, जिससे उपजाऊ कृषि भूमि खेती करने लायक नहीं बची। पानी से जुड़े बुनियादी ढांचों के विकास की रफ्तार काफी धीमी रही है और निवेश बहुत ज्यादा नहीं हुआ है। सीडब्ल्यूसी का कहना है कि खराब जल क्षेत्र विकसित होने के कारण पानी को लेकर तैयार ढांचों का संपूर्ण इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है जिसके कारण बड़े पैमाने पर मिट्टी का कटाव और गाद इकट्ठा हो रहा है।

केंद्रीय भू-जल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) भू-जल की उपलब्धता और निकासी को लेकर मूल्यांकन करता है। 31 मार्च 2013 के सीजीडब्ल्यूबी के एक मूल्यांकन के मुताबिक भारत में भू-जल (डायनमिक रिसोर्स) 443 वर्ग किमी में फैला हुआ है, जो साल 2011 के मूल्यांकन की तुलना में 14 वर्ग किमी बढ़ा है। वहीं, 2011 की तुलना में 2013 मंे भू-जल की निकासी (ड्राफ्ट) भी बढ़ी है। मूल्यांकन के मुताबिक 2013 में भू-जल की निकासी 8 घन किलोमीटर बढ़कर 253 घन किलोमीटर हो गई।

2011 की तुलना में 2013 में भूृ-जल क्षेत्र और निकासी बढ़ने के बावजूद सीजीडब्ल्यूबी मूल्यांकन में स्टेज ऑफ ग्राउंड वाटर डेवलपमेंट (एसओडी) 62 फीसदी और अति- दोहित इकाइयां 16 फीसदी (देश की कुल इकाइयों की) ही रहीं। एसओडी भू-जल की स्थिति बताता है जो एक गणितीय फॉर्मूले पर आधारित होता है, जिसका मान जितना कम हो भू-जल के जलाशयों यानी एक्विफर के लिए वह उतना ही बेहतर माना जाता है।

वहीं, सीजीडब्ल्यूबी ने अपने मूल्यांकन में ऊपरी सतह वाले भू-जल के रिजरवॉयर यानी जलभर (एक्विफर) को शामिल किया और गहरे एक्विफर को छोड़ दिया। इससे कुछ भ्रम भी पैदा होता है क्योंकि कुछ शोधार्थियों ने जब जीआरएसीई सैटेलाइट (नासा की सेटेलाइट) के आंकड़ों के जरिए भू-जल के दोहन का मूल्यांकन किया, तो पता चला कि भूजल का दोहन केंद्रीय भू-जल बोर्ड के अनुमान से ज्यादा हो रहा था।

क्योंकि कई स्तरों के एक्विफर वाले सिंधु-गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानी इलाकों के मामले में ये बड़ा सच है। कई ऐसी जगहें भी हैं, जहां निकटवर्ती उथले एक्विफर में मौजूद संसाधनों का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है, जबकि गहरे एक्विफर के संसाधन का खूब दोहन हो रहा है और इसमें कमी की प्रवृत्ति दिख रही है। ये मैदानी इलाकों के शहरी क्षेत्रों में स्पष्ट तौर पर दिख रहा है, जो लगभग पूरी तरह से एक्विफर पर निर्भर हैं। केंद्रीय भूजल बोर्ड के पूर्व सदस्य दीपांकर साहा ने कहा कि भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया नेशनल एक्विफर मैपिंग एंड मैनेजमेंट प्रोग्राम एक बार पूरा हो जाता है, तो इस मुद्दे का हल निकल सकता है।

शहरी आबादी की प्यास बुझाने के लिए अब दूर के जलस्रोतों से पानी लाया जा रहा है। दिल्ली शहर के लिए 300 किलोमीटर दूर हिमालय के टिहरी बांध से पानी लाया जाता है। सॉफ्टवेयर की राजधानी कहे जाने वाले हैदराबाद के लिए 116 किलोमीटर दूर कृष्णा नदी के नागार्जुन सागर बांध से और बंगलुरू के लिए 100 किलोमीटर दूर कावेरी नदी से पानी लाया जाता है। रेगिस्तानी शहर उदयपुर के लिए जयसमंद झील से पानी खींचा जाता है, लेकिन ये झील सूख रही है और नई आबादी की प्यास बुझाने में नाकाफी साबित होगी। ऐसी पहलों का मतलब है कि शहरों में जलसंकट गहरा रहा है।

शहरों और किसानों के लिए राज्यों में नदियों के पानी को लेकर लड़ाइयां हो रही हैं। गांव के लोग अपने क्षेत्र के पानी पर पड़ोसी शहरों के अधिकारों को चुनौती दे रहे हैं। शहर से सटा इलाका जो चारों तरफ से गांवों से घिरा हुआ है, वहां पानी की अत्यधिक निकासी के कारण फसलों का उत्पादन घट रहा है। बहुत सारे किसान पानी बेच रहे हैं, जिससे भू-जल स्तर में गिरावट आ रही है। गांव के पानी को शहर की तरफ मोड़ने से ग्रामीण इलाकों में रोष पनप रहा है। सदाबहार जल स्रोतों की कमी और अनिश्चित मानसून ने शहरों में जल संकट को और बढ़ा दिया है। चेन्नई शहर के पानी की जरूरत के लिए जब वीरानाम झील में गहरी बोरिंग की गई थी, तो भी किसानों ने इसके खिलाफ प्रदर्शन किया था। गुस्साए किसानों ने पम्पिंग सेट और पानी की सप्लाई के लिए लगाए गए पाइपों को क्षतिग्रस्त कर दिया था।

किसानों की नाराजगी के कारण यह योजना वापस ले ली गई। साल 2009 की गर्मी में मध्य प्रदेश के कुछ शहरों में जल संकट इतना बढ़ गया था कि पानी की सप्लाई करने के लिए राशन दुकानों से कूपन बांटना पड़ा था। जब भी शहरों में सूखा आता है, तो ग्रामीण क्षेत्रों के पानी की याद आ जाती है। मध्य प्रदेश के सिहोर शहर में जब ये समस्या आई थी, तो शहर में पानी की सप्लाई करने के लिए प्रशासन ने 10 किलोमीटर के दायरे में आने वाले सभी ट्यूबवेल्स को अपने अधिकार में ले लिया था। देवास में तो 122 किलोमीटर लंबी वाटर सप्लाई पाइपलाइन को किसानों से बचाने के लिए कर्फ्यू लगाना पड़ा। पानी की जरूरतें और उनकी प्रकृति में बदलाव आ रहा है। कृषि क्षेत्रों की जरूरतों को पूरा करने के बजाए इस वक्त विस्तार पाते शहर और औद्योगिक क्षेत्रों की पानी की जरूरतों पर ही ध्यान केंद्रित है। ऐसा लग रहा है कि जल अर्थव्यवस्था को एक रैक पर बांध दिया गया है और उसे खींचा जा रहा है।

समस्या है कि “असंगठित” जल अर्थव्यवस्था जो कृषि पर निर्भर आबादी की जरूरतों को पूरा करता है, अब भी अस्तित्व में है। भारत अब भी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से उत्पादन-सेवा क्षेत्र संचालित अर्थव्यवस्था में तब्दील नहीं हुआ है। मौजूदा संकट ग्रामीण भारत के लोगों को भोजन और आजीविका की सुरक्षा के लिए पानी उपलब्ध कराना है। साथ ही साथ ही शहरी-औद्योगिक भारत की जरूरतों को भी पूरा करना है। ऐसे में सवाल है कि क्या पानी के इस्तेमाल के लिए एक अलग आदर्श प्रतिमान हो सकता है? ऐसा लगता है कि कल के शहरों को भविष्य में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए पुराने तौर-तरीकों को सीखने की जरूरत है।