22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस मौके पर पूरी दुनिया पानी की महत्ता और उसे बचाने के उपायों पर बात करती हैं। इस विशेष आयोजन से पूर्व डाउन टू अर्थ द्वारा पानी से जुड़े विभिन्न मुद्दों से संबंधित रिपोर्ट्स की सीरीज प्रकाशित की जा रही है। इस सीरीज की पहली कड़ी में आपने पढ़़ा भारत में किस तरह पानी की मात्रा घट रही है। दूसरी कड़ी में पढ़ें कि कैसे भूजल स्तर को कम होने से बचाया जा सकता है । जल संरक्षण को महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत खासी तवज्जो दी गई है। इसकी हकीकत जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने 15 राज्यों के 16 गांवों का दौरा किया। पढ़ें, पहले गांव की कहानी-
नािदया गांव में 15 साल पहले करीब 70 प्रतिशत खेत बेकार पड़े रहते थे, अब 90 प्रतिशत पर खेती होती है टीकमगढ़ का नादिया गांव जल संरचनाओं के कार्यों से पिछले 15 सालों में काफी हद तक बदल गया है। गांव में रहने वाले केशवदास कुशवाहा मानते हैं, “मेरे दोनों बच्चे 26 किलोमीटर दूर जिला मुख्यालय के प्राइवेट स्कूल में पढ़ रहे हैं और साल में 40 हजार रुपए उनकी पढ़ाई पर खर्च होते हैं। खेती से आय में वृद्धि नहीं हुई होती तो दोनों बच्चों को अच्छी शिक्षा देना संभव नहीं था। वे आज गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ रहे होते। मनरेगा न होता तो हम अब भी दाने-दाने को मोहताज होते।” 45 वर्षीय केशवदास कुशवाहा उन लोगों में शामिल हैं जिनकी जिंदगी मनरेगा ने बदल दी है। कभी गरीबी और कर्ज के भंवरजाल में फंसे केशवदास का परिवार अब काफी हद तक संकटों से उबर चुका है।
सूखे की मार झेलने वाले उनके खेत अब लहलहा रहे हैं। वह बताते हैं, “2007 में गांव में मनरेगा से काम शुरू होने के बाद जल संरक्षण का काम बड़े पैमाने पर किया है, जिससे सूखी जमीन को पानी मिला और किसानों की आय में जबर्दस्त सुधार हुआ।” केशवदास की आय पिछले छह सालों के दौरान करीब 300 प्रतिशत तक बढ़ गई है। केशवदास के परिवार के हिस्से में कुल 15 एकड़ खेत हैं जो सात, पांच और तीन एकड़ में बंटे हैं। सात एकड़ वाले खेत में उनका एक निजी ट्यूबवेल और कुआं है, जबकि 5 एकड़ वाले खेत में 2015 में मनरेगा से कुआं बना। अब केवल तीन एकड़ के खेत में फिलहाल सिंचाई की व्यवस्था नहीं है। इस खेत को उन्होंने पशुओं के चरने के लिए छोड़ दिया है। केशवदास बताते हैं कि मनरेगा से बनी तलैयों से उनके निजी कुएं और ट्यूबवेल को पर्याप्त पानी मिलने लगा और मनरेगा से एक नया कुआं खुदने से पांच एकड़ वाले खेत में भी पानी की समस्या खत्म हो गई। उनके कुल 12 एकड़ के खेतों को अब नियमित पानी मिलने लगा है और वह साल में एक के बजाय दो फसलें करने लगे हैं। सिंचाई की व्यवस्था से पहले वह केवल चने की फसल लगाते थे लेकिन अब गेहूं, मटर, उरद, सोयाबीन, मूंगफली आदि उगा रहे हैं। कुएं में पूरे साल पानी रहता है। उनके जिस खेत में मनरेगा से कुआं बना है, वह खेत उन्हें एक लाख रुपए की आय दे रहा है। कुएं से पहले उनकी उपज अधिक से अधिक 30 हजार रुपए में बिकती थी। वह मानते हैं कि उनके पांच एकड़ वाले खेत से ही आय तीन गुणा से अधिक हो गई।
केशवदास के अतिरिक्त गांव के अन्य 25 लोगों के खेतों में मनरेगा से कुओं का निर्माण हुआ है। इन कुओं ने ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति सुधारने में अहम भूमिका निभाई है। ग्रामीण रंजीत यादव बताते हैं कि लोग 2005 तक कुओं का महत्व भूल गए थे। जल की उपलब्धता के लिए लोगों की निर्भरता ट्यूबवेलों पर थी लेकिन गांव में मनरेगा के काम शुरू होने के बाद कुओं को नया जीवन मिला और लोगों को इसका महत्व फिर समझ में आने लगा। वह बताते हैं, “पिछले पांच सालों में करीब 12-13 कुओं का निर्माण किया गया है। शेष कुएं मनरेगा के बाद और इस पंचवर्षीय के पहले बने।”
गांव के उप सरपंच रूप सिंह ने अपने गांव में मनरेगा से हुए जल संरक्षण के प्रयासों को करीब से देखा है। वह बताते हैं, “2006-07 में मनरेगा के लागू होने के बाद गांव की किस्मत बदलने लगी। 2006 के बाद से नादिया गांव में मनरेगा से अलग-अलग आकार की कुल 63 तलैयों (छोटे तालाब अथवा अर्धन बांध ) का निर्माण कराया गया है।” एक तलैया से करीब 10 एकड़ खेत की सिंचाई हो जाती है। रूप सिंह के अनुसार, 15 साल पहले करीब 70 प्रतिशत खेत बेकार पड़े रहते थे लेकिन अब 90 प्रतिशत जमीन पर खेती हो रही है। मनरेगा से बनी तलैयों में दिसंबर-जनवरी तक पानी रहता है और इस समय तक अधिकांश पानी खेतों की सिंचाई में उपयोग कर लिया जाता है और बरसात में फिर भर जाती हैं। हालांकि पिछले साल बारिश बहुत कम हुई जिस कारण तलैयां नहीं भर पाईं लेकिन कुओं में अब भी पानी है।
गांव में तलैयों के निर्माण और कुओं में पानी आने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि जो भूमि परती रहती थी, उनमें खेती होने लगी। केशवदास बताते हैं कि सूखा प्रभावित क्षेत्र होने के कारण गांव की अधिकांश आबादी दो वक्त की रोटी के लिए शहरों में पलायन कर जाती थी लेकिन अब स्थितियां काफी अनुकूल हो गई हैं। गांव और खेत में पानी की उपलब्धता बढ़ने से उन खेतों में भी फसलें होने लगी हैं जो पूरे साल खाली पड़े रहते थे। मौजूदा समय में करीब 90 प्रतिशत खेतों में फसलें उगाई जा रही हैं और उनकी सिंचाई तलैयों या कुओं के माध्यम से हो रही है। रूप सिंह भी मानते हैं कि खेतों को पानी मिलने से गांव से पलायन काफी हद तक रुक गया है। पहले गांव में केवल बुजुर्ग ही नजर आते थे लेकिन जब लोगों ने देखा कि उनके खेतों को पानी मिल सकता है तो वे लौट आए हैं। अब केवल 10 प्रतिशत ग्रामीण ही बाहर हैं। उनका कहना है कि नादिया दलित बहुल गांव है। यहां कुल 1,600 की आबादी में करीब 50 प्रतिशत दलित हैं। मनरेगा का सबसे अधिक फायदा इन दलितों को ही पहुंचा है।
गांव में बनी तलैयों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उपज बढ़ाने में मदद की है।
ग्रामीण लखन अहिरवार के चार एकड़ खेत को अब खेत के पास बनी एक तलैया के बदौलत पानी मिल रहा है। उनके खेत में एक कुआं है जो उन्होंने मनरेगा लागू होने से पहले 2005 में खुदवाया था। उनकी पूरे खेत की सिंचाई इसी कुएं पर टिकी है। 2007 के बाद जब गांव में तलैयों का निर्माण हुआ तो एक तलैया उनके खेत के पास भी बनी, जिससे अक्सर सूख जाने वाले उनके कुएं को पर्याप्त पानी मिलने लगा। मनरेगा से गांव में बनी तलैया थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बनाई गई हैं। एक तलैया भरने पर पानी दूसरी तलैया में चला जाता है। इस तरह बरसात का एक बूंद पानी भी बहकर गांव से बाहर नहीं निकल पाता। जिले में मनरेगा के जल संरचनाओं के निर्माण का कार्य 2005-06 में शुरू हुआ और इस वर्ष कुल 10 संरचनाएं बनीं। तब से लेकर 2020-21 तक 20,864 जल से संबंधित संरचनाएं बनाई गईं। इन कार्यों पर कुल 524.5 करोड़ रुपए व्यय हुए। इन निर्माण कार्यों से 2.57 करोड़ से अधिक मानव दिवस सृजित किए गए।
नादिया गांव में मनरेगा से जल संरक्षण के कार्य 2007-08 में शुरू हो गए थे। शुरुआती वर्ष में कुल 10 काम हुए। इस साल कुल छह नए तालाब बनाए गए और एक पुराने तालाब का जीर्णोद्धार किया गया। 2008-09 में दो तालाब और 6 कुओं का निर्माण हुआ। गांव में मनरेगा से जल संरक्षण व संचयन के कार्य शुरू होने के बाद से अब तक कुल 77 कार्य हुए हैं। अधिकांश काम तालाबों के निर्माण से संबंधित रहे। यही वजह है कि आज गांव में तालाबों का एक जाल-सा बिछ गया है। इन तालाबों ने ही गांव को जल संसाधन से समृद्ध बना दिया है। 2014-15 और 2017-18 को छोड़कर एक भी वर्ष ऐसा नहीं बीता जिसमें मनरेगा से तालाब ने बनवाया गया हो।
गांव में पानी की उपलब्धता के कारण ग्रामीण सोनू यादव जैसे ग्रामीण खेती में प्रयोग करने में सक्षम हो पाए हैं। गांव में पिछले दो साल से वह एक एकड़ के खेत में सहजन की खेती कर रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने सब्जियां भी उगाई हैं। सहजन से उन्हें हर छह माह के अंतराल पर नियमित आय हासिल हो रही है। जून 2019 में सहजन लगाने के छह महीने बाद उन्होंने करीब 3 क्विंटल सहजन 6 हजार रुपए में बेचा। अगले छह महीने बाद 1.5 क्विंटल सहजन बेचा। इस बार भाव ठीक मिलने के कारण उन्हें 10 हजार रुपए हासिल हुए। अगले छह माह बाद फिर उन्होंने करीब 3 क्विंटल सहजन 20 हजार रुपए में बेचा। इस समय सहजन की चौथी खेप तैयार होने वाली है। सोनू को उम्मीद है कि इस बार करीब 3 क्विंटल सहजन आसानी से निकल जाएगा। सोनू अपने खेतों की सिंचाई पास में बने एक तालाब से करते हैं जो मनरेगा के तहत ही बनवाया गया है। उनका कहना है कि पानी की उपलब्धता सुनिश्चित होने के बाद उनकी आय तीन से चार गुणा तक बढ़ गई है। रूप सिंह बताते हैं कि मनरेगा से बने तालाब आमतौर पर कुछ सालों पर बेकार हो जाते हैं लेकिन गांव का कोई भी तालाब अब तक बेकार नहीं पड़ा है।
नादिया गांव में चेकडैम के निर्माण का भी महत्वपूर्ण काम हुआ है। गांव के कुल 7 चेकडैम में से 5 मनरेगा से बनाए हैं। गांव के दोनों तरफ से होकर गुजरने वाले बरसाती नाले में बने चेकडैम से भी ग्रामीणों को पानी उपलब्ध हुआ है। यह नाला आगे जाकर बारगी नदी में मिल जाता है। जब चेकडैम नहीं बने थे, जब सारा पानी बहकर नदी में पहुंच जाता था, लेकिन अब चेकडैम के माध्यम से रोककर सिंचाई में उपयोग किया जा रहा है। साथ ही भूजल स्तर बढ़ाने में भी यह मददगार साबित हो रहे हैं।
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