भारत के महानगरों और शहरों में निजी टैंकरों का बढ़ता दबदबा देश की जल आपूर्ति प्रणाली में मूलभूत चुनौतियों को रेखांकित करता है। अब वह वक्त आ गया है जब भारत को अपने केंद्रीकृत पाइप नेटवर्क की नए सिरे से परिकल्पना करनी चाहिए ताकि ये अधिक स्थानीय, समावेशी और कार्यकुशल बन सके। दिल्ली से सुष्मिता सेनगुप्ता और किरण पांडेय के साथ भागीरथ और विवेक मिश्रा, फरीदाबाद में राजू सजवान, बेंगलुरु में एम रघुराम, चेन्नई में शिवानी चतुर्वेदी, कोलकाता में जयंत बासु, लखनऊ में नीतू सिंह, हमीरपुर में अमन गुप्ता, लातूर में सिद्धांत वैजनाथ माने और जयपुर में माधव शर्मा का विश्लेषण
पाली गांव के तमाम लोगों के लिए उनके खेतों के नीचे का भूजल किसी सोने की खान से कम नहीं है। अरावली श्रृंखला की तलहटी में हरियाणा के फरीदाबाद जिले में बसा ये गांव पत्थर तोड़ने वाली इकाइयों, जहरीली हवा और बंजर हो चुकी जमीन के लिए जाना जाता है। फसलों की बजाए यहां के खेतों में बोरवेल ही बोरवेल उग आए हैं जो पानी के टैंकरों के फलते-फूलते कारोबार में हिस्सा ले रहे हैं।
पाली के निवासी जितेंद्र भड़ाना कहते हैं, “गांव में कम से कम 25 बोरवेल हैं जो दिन-रात चालू रहते हैं और कतार लगाते टैंकरों के लिए हरेक बोरवेल रोजाना 20,000 से 30,000 लीटर भूजल की निकासी करता है।” अभियान समूह अरावली बचाओ ट्रस्ट से जुड़े भड़ाना बताते हैं, “टैंकर संचालक आमतौर पर बोरवेल मालिकों को प्रति 3,000 लीटर पानी पर 300 रुपए चुकता कर उसे 600 रुपए में बेचते हैं।”
यह हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण द्वारा प्रति 1,000 लीटर पर जल शुल्क के रूप में वसूले जाने वाले 2.50 रुपए से लगभग 80 गुणा ज्यादा रकम है। आधिकारिक अनुमानों के अनुसार, फरीदाबाद की 40 प्रतिशत जनता तक पाइप के जरिए पानी सप्लाई की सुविधा नहीं पहुंच पाई है।
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) द्वारा 2023 में जारी की गई मल्टीपल इंडिकेटर सर्वे रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में रहने वाले करीब 38 प्रतिशत लोगों को पाइप के जरिए पानी की सुविधा हासिल नहीं है। यह एक ऐसी समस्या है जो हर साल गर्मियों में विकराल हो जाती है (देखिए “चौतरफा परेशानी”)।
भड़ाना कहते हैं कि पाली समेत पड़ोस के भाखरी और मोहब्बताबाद गांव से जल की निकासी करने वाले टैंकर फरीदाबाद की अनधिकृत कॉलोनियों और न्यू इंडस्ट्रियल टाउनशिप के लिए पानी के प्राथमिक स्रोत हैं।
शहर का दौरा करते हुए डाउन टू अर्थ को सड़कों से थोड़ी ही दूर खुले मैदानों में खुदे निजी बोरवेल से पानी निकालते कई टैंकर नजर आए, जिनमें से कुछ 24,000 लीटर क्षमता के थे। ऐसा ही एक बोरवेल वजीरपुर गांव में पेट्रोल पंप के बगल में है।
पहचान छिपाने और बोरवेल के मालिक के बारे में कोई जानकारी न देने की शर्त पर बोलने को तैयार वहां के निवासियों ने बताया कि यह बोरवेल प्रतिदिन 20 घंटे चलता है और इससे पानी की निकासी करने वाले टैंकर दिल्ली में सीमा पर बसी कॉलोनियों के साथ-साथ दूरदराज के इलाकों तक पानी की आपूर्ति करते हैं।
हर साल गर्मी का मौसम आते ही दिल्ली के विभिन्न इलाकों में निजी टैंकरों से पानी लेने के लिए हाथों में बाल्टी और डिब्बे लिए घंटों इंतजार करते लोगों की लंबी-लंबी कतारें आम तस्वीर बन जाती है। इस साल चिलचिलाती गर्मी के बीच हालात और विकराल हो गए। हिमाचल प्रदेश से ज्यादा पानी छोड़ने की मांग करने वाली दिल्ली सरकार को पानी की बर्बादी रोकने में नाकामी और तथाकथित “टैंकर माफिया” के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने के चलते 12 जून को सुप्रीम कोर्ट से लताड़ लगी।
ये सब कुछ हैरान करने वाला है क्योंकि दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) दावा करता है कि राष्ट्रीय राजधानी के 93.5 प्रतिशत परिवारों को पाइप के जरिए जल आपूर्ति हासिल है। बोर्ड 14,355 किमी लंबे पाइपलाइनों के जाल के जरिए गंगा घाटी, यमुना उप-घाटी, सिंधु घाटी और आंतरिक जल स्रोतों से पानी जुटाता है। जल आपूर्ति प्रणाली में सुधार के लिए दिल्ली जल बोर्ड ने 60 जगहों पर वाटर एटीएम स्थापित करने के साथ-साथ 1,000 से ज्यादा टैंकर भी तैनात किए हुए हैं।
मध्य जून में जब उत्तर भारत झुलसाती गर्मी की चपेट में था, तब डाउन टू अर्थ ने पूर्वी दिल्ली की त्रिलोकपुरी कॉलोनी का दौरा किया। यह कॉलोनी दिल्ली जल बोर्ड के जल आपूर्ति नेटवर्क से जुड़ी हुई है। हालांकि लोगों की शिकायत है कि वे कभी-कभार ही इन नलों से पानी आता देखते हैं। त्रिलोकपुरी के इंदिरा कैंप में रहने वाले 24 साल के रोहित सीर्सवाल कहते हैं, “जल बोर्ड सरकारी टैंकरों के जरिए पानी मुहैया कराता है, लेकिन वो चार-पांच दिन में एक बार आते हैं। इसलिए हम महीने में कई बार पैसे इकट्ठा कर निजी टैंकरों से पानी खरीदते हैं जो 8,000 लीटर के बदले 2,000 से 2,500 रुपए वसूलते हैं।”
त्रिलोकपुरी कॉलोनी में ब्लॉक 2 के निवासी 58 वर्षीय माहा सिंह उन चंद खुशकिस्मत लोगों में से हैं जिन्हें जल बोर्ड की पाइपलाइन से सुबह 2 घंटे और फिर शाम को पानी मिलता है। हालांकि सिंह की शिकायत है कि पानी की गुणवत्ता खराब रहती है, उससे गंदे नाले की बदबू आती है और उसमें रेत और कीचड़ मिली होती है। उनका परिवार पीने और खाना पकाने के लिए 20 लीटर पानी वाले पांच से छह बोतलों पर प्रति बोतल 100-150 रुपए खर्च करता है।
दक्षिण पूर्वी दिल्ली में फरीदाबाद से सटा संगम विहार राजधानी की सबसे घनी आबादी वाली अनधिकृत बस्तियों में से एक है। 5 वर्ग किलोमीटर में फैले संगम विहार में 12 लाख लोग रहते हैं, जिनमें से ज्यादातर आर्थिक रूप से कमजोर तबके से हैं। तीन दशक से भी अधिक समय से इस कॉलोनी में रहते आ रहे ललित मौर्य कहते हैं कि यहां के लोगों को सालभर पानी की किल्लत से जूझना पड़ता है। लेकिन गर्मियां आते ही उनकी चिंताएं बढ़ जाती हैं और पानी पर होने वाला खर्च आसमान छूने लगता है।
मौर्य और के-2 ब्लॉक के उनके पड़ोसी पानी की अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए पूरी तरह से निजी टैंकरों पर निर्भर हैं। आमतौर पर वह हर सप्ताह एक टैंकर मंगवाते हैं। मई, जून और जुलाई के तपते महीनों में वह टैंकर के पानी पर औसतन 12,000 रुपए खर्च करते हैं। बाकी के महीनों में उनके परिवार की पानी की जरूरत कम हो जाती है और टैंकरों के दाम भी नीचे आ जाते हैं। इसके बावजूद पानी पर उनके सालाना कम से कम 30,000 रुपए खर्च हो जाते हैं।
वैसे तो जल बोर्ड ने कॉलोनी के लिए पाइपलाइन बिछाई है, लेकिन इससे हर ब्लॉक तक पानी नहीं पहुंचता। के-2 के एक और निवासी मुकेश कुमार कहते हैं कि जल बोर्ड के टैंकर भरोसेमंद नहीं होते और इससे उनकी जरूरतों का 10 प्रतिशत भी पूरा नहीं होता। भले ही मौर्य और कुमार निजी टैंकरों से पानी खरीदने में सक्षम हों लेकिन कॉलोनी के ज्यादातर लोगों में इतनी क्षमता नहीं है।
ब्लॉक जे-3 में रहने वाले मोहम्मद अरमान को सामुदायिक बोरवेल से महीने में एक बार मिलने वाले पानी से ही गुजारा करना होता है। वह पानी को 5,000 लीटर क्षमता वाली टैंकियों में जमा कर लेते हैं और उसका सीमित मात्रा में इस्तेमाल करते हैं। कूरियर डिलिवरी कंपनी में काम करने वाले अरमान डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि कई बार पानी बचाने के लिए वह बिना नहाए भी रह जाते हैं। एफ-3 ब्लॉक में रहने वाले मधुर गौतम और तीन लोगों का उनका परिवार गर्मियों के महीनों में बस आधी-आधी बाल्टी पानी से ही स्नान करते हैं। उन्होंने छह कमरों वाले अपने मकान के तीन कमरे किराए पर दे रखे हैं और उनके किराएदार वॉशिंग मशीन या बर्तन धोने से निकले गंदे पानी से ही फर्श पर पोछा लगाते हैं।
दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) के एक ताजा सर्वेक्षण से पता चलता है कि संगम विहार के एक निवासी को सभी स्रोतों से औसतन 45 लीटर पानी मिलता है। यह केंद्र सरकार के केंद्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण इंजीनियरिंग संगठन द्वारा महानगर में रहने वाले व्यक्ति के लिए आदर्श रूप से उपलब्ध होने वाले पानी की मात्रा का महज 30 प्रतिशत है।
चाहे इसे पानी की अपर्याप्त आपूर्ति का नतीजा कहें या बढ़ती मांग का फायदा उठाने की होड़, मांग-आपूर्ति में भारी अंतर के चलते पानी के टैंकरों का बाजार बढ़ता ही जा रहा है। तेज रफ्तार शहरीकरण का गवाह बनते नगरों में पाइप से पानी की निरंतर और भरोसेमंद आपूर्ति अब भी एक सपना है। 2023 की एनएसएसओ रिपोर्ट के मुताबिक शहरी क्षेत्र की महज 58.2 प्रतिशत जनता को ही सालभर पाइप से पानी नसीब हो पाता है।
“चैलेंजेस इन अर्बन वाटर गवर्नेंस: इनफॉर्मल वाटर टैंकर सप्लाई इन चेन्नई एंड मुंबई, इंडिया” शीर्षक से फरवरी 2023 में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, मुंबई के 55 प्रतिशत प्रतिभागी अनियमित आपूर्ति, खराब गुणवत्ता और ऊंची लागत के चलते पानी की आपूर्ति से संतुष्ट नहीं हैं। नतीजतन इनमें से 52 प्रतिशत लोग पानी की आपूर्ति के लिए टैंकरों पर निर्भर रहते हैं। इसी अध्ययन से पता चला कि चेन्नई में 61 प्रतिशत लोग सरकारी आपूर्ति से संतुष्ट नहीं है और इनमें से 58 प्रतिशत निजी टैंकरों पर आश्रित हैं। वितरण नेटवर्क से 35 प्रतिशत की बर्बादी के चलते पानी का भरपूर भंडार होने के बावजूद कोलकाता शहर को पानी के टैंकरों पर निर्भर रहना पड़ता है।
नीदरलैंड की सरकार, अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए जर्मन एजेंसी (जीआईजेड) और छह शोध संस्थानों के गठजोड़ से संचालित वेबसाइट वाटर, पीस एंड सिक्योरिटी (डब्ल्यूपीएस) में प्रकाशित अध्ययन से भी पता चलता है कि लोग नियमित रूप से निजी बाजार से पानी के डिब्बे और बोतलबंद पानी खरीदते हैं।
पानी का गैर-राजस्व नुकसान यानी लीकेज, बर्बादी या चोरी के चलते बीच रास्ते में ही गुम हो जाने वाला पानी संकट की एक और वजह है। अध्ययनों का आकलन है कि वैश्विक स्तर पर वितरण नेटवर्क के लिए जुटाए और साफ किए गए जल का 30 प्रतिशत हिस्सा गैर-राजस्व पानी बन जाता है। यह आंकड़ा 126 अरब घन मीटर रोजाना का है, जो 8 करोड़ लोगों के लिए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 150 लीटर पानी के बराबर है। 2020 के अध्ययन पत्र के हवाले से नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स का प्रशिक्षण मैनुअल “एक्सटेंट ऑफ नॉन रेवेन्यू वाटर” बताता है कि शहरी हिंदुस्तान में गैर-राजस्व पानी के रूप में गायब हो जाने वाले पानी की मात्रा वैश्विक औसत से भी ज्यादा (38 प्रतिशत) है।
डाउन टू अर्थ ने अपने विश्लेषण में पाया कि कुछ महानगरों में गैर-राजस्व जल नुकसान की दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। 490 मीटर की ऊंचाई तक पानी पंप करने और फिर इसे तकरीबन 100 कमी दूर तक ले जाने के लिए अपनी महत्वाकांक्षी कावेरी जल आपूर्ति योजना का विस्तार कर रहे बेंगलुरु में पानी का भारी-भरकम 50 प्रतिशत नुकसान दर्ज किया जाता है। दिल्ली (58 प्रतिशत) और फरीदाबाद (51 प्रतिशत) में भी नुकसान इसी तरह से काफी ज्यादा है। कोलकाता में वितरण नेटवर्क के जरिए होने वाली क्षति 35 प्रतिशत है और अधिकारी इसे ही पानी के समृद्ध भंडार वाले इस शहर की निजी पानी टैंकरों पर निर्भरता का कारण बताते हैं (देखिए “बर्बादी की गाथा”)।
कोलकाता नगर निगम के अधिकारी डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि 2,180 मिलियन लीटर रोजाना (एमएलडी) जल उत्पादन के साथ यह शहर केंद्र सरकार के 150 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन के पैमाने को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी जुटा लेता है। हालांकि पहचान छिपाने की शर्त के साथ एक अधिकारी बताते हैं, “भारी बर्बादी और वितरण में असमानता के चलते हमें प्रतिदिन टैंकरों के जरिए पेय जल की आपूर्ति करनी पड़ती है।”
फिर कुछ ऐसे इलाके हैं जहां या तो पानी के कम दबाव या जल की खराब गुणवत्ता की वजह से पाइप से जल आपूर्ति की सुविधा नहीं पहुंची है। ऐसे में उन्हें थोड़े-थोड़े अंतराल पर टैंकर से आपूर्ति की आवश्यकता पड़ती है। अधिकारी स्वीकार करते हैं कि गरीब बस्तियों और अनधिकृत कॉलोनियों में रहने वाले लोगों को इसकी सबसे ज्यादा मार झेलनी पड़ती है। ऐसी बस्तियों में रहने वाली 50 लाख की आबादी के लगभग एक तिहाई हिस्से तक पानी की पाइपलाइन नहीं पहुंची है और ये शहर भर में फैले 21,000 ठिकानों से पानी जुटाते हैं।
निगम के एक और अधिकारी का कहना है, “हालांकि सरकार घरेलू उपयोगकर्ताओं से शुल्क नहीं लेती है लेकिन पानी की किल्लत झेल रहे इलाकों में अक्सर गरीब और अमीर, दोनों तरह के लोग अवैध आपूर्तिकर्ताओं को भुगतान करते हैं। कोलकाता नगर निगम द्वारा उपलब्ध कराए गए पानी की एक बड़ी मात्रा को शहर के कुछ हिस्सों में “साजिश के तहत” बर्बाद कर दिया जाता है, जहां स्थानीय लोग पानी को मोड़कर या अवैध रूप से उसकी निकासी करके ऊंची कीमतों पर उसका विक्रय करते हैं।”
मध्य महाराष्ट्र के शुष्क जलवायु वाले मराठवाड़ा क्षेत्र के अधिकारी निजी टैंकरों पर लोगों की निर्भरता के लिए भरपूर सिंचाई की आवश्यकता वाले गन्ने की फसल और जलवायु परिवर्तन समेत तमाम अन्य कारणों की दुहाई देते हैं। राज्य के जल संसाधन विभाग के कार्यपालक अभियंता अमर पाटील डाउन टू अर्थ से कहते हैं, “लातूर और धाराशिव जिलों को तेरणा नदी पर बने तेरणा और मंजरा नदी पर बने मंजरा डैम से पानी मिलता है। आमतौर पर इन डैमों से साल में 9 महीने पानी की आपूर्ति होती है। लेकिन अब बढ़ती गर्मी के चलते दोनों तटबंधों से पानी तेजी से सूख जाता है।” लातूर में भूजल सर्वेक्षण और विकास एजेंसी के एक वरिष्ठ अधिकारी गन्ना उगाने के लिए भूजल के अंधाधुंध दोहन पर ठीकरा फोड़ते हैं। गौरतलब है कि मराठवाड़ा इलाके में लातूर में ही सबसे ज्यादा क्षेत्रफल में गन्ने की खेती होती है।
हालांकि अधिकारी यह बताने में नाकाम रहते हैं कि अगर इस क्षेत्र के जलाशयों या जमीन के भीतर पर्याप्त पानी नहीं है तो फिर टैंकरों को कैसे और कहां से पानी मिल जाता है?
पानी टैंकरों के कारोबार की पड़ताल के लिए डाउन टू अर्थ के संवाददाताओं ने देश भर के नौ शहरों का दौरा किया। दिल्ली से फरीदाबाद और चेन्नई से बेंगलुरु तक तमाम शहरों में ऐसे आरोप सुनने को मिले कि स्थानीय नेताओं और जल विभाग के अफसरों के साथ मिलीभगत करके टैंकर मालिक अपना धंधा चला रहे हैं। दिल्ली के संगम विहार में डाउन टू अर्थ को दो ऐसे अवैध बोरवेल दिखे जिनस निरंतर पानी निकालकर टैंकर के जरिए बेचा जा रहा था। एक बोरवेल करीब 1.5 लाख लीटर पानी की अवैध बिक्री हो रही है। टैंकर संचालकों के सभी राजनीतिक दलों से संपर्क होते हैं। स्थानीय निवासी कहते हैं कि सरकार बदलने यह धंधा बेरोकटोक चलता रहे, इसलिए टैंकर माफिया भी पाला बदल लेते हैं।
सिटिजन एक्शन ग्रुप बेंगलोर वाटर वारियर्स से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता एल संदीप कहते हैं कि भारत के सिलिकॉन वैली में पानी उनके लिए हमेशा उपलब्ध है जो इसका खर्च उठा सकते हैं। संदीप कहते हैं, “टैंकर संचालकों ने एक समानांतर व्यवस्था खड़ी कर दी है जो शहर की कमजोरियों का फायदा उठाती है। ये कई लोगों की कीमत पर चंद लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए मांग और आपूर्ति में छेड़छाड़ का सटीक उदाहरण है।”
बेंगलुरु वाटर सप्लाई एंड सीवरेज बोर्ड (बीडब्ल्यूएसएसबी) के एक अधिकारी नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि वह राजनीतिक नेताओं, टैंकर मालिकों, बीडब्ल्यूएसएसबी और बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका (बीबीएमपी) में पानी की आपूर्ति का जिम्मा संभाल रहे अधिकारियों के बीच हुई बैठकों में शिरकत कर चुके हैं।
वह कहते हैं, “ऐसी बैठकें महज दिखावा होती हैं। टैंकर मालिकों को तमाम वार्डों में जल आपूर्ति अधिकारियों पर नियंत्रण करने के लिए खुली छूट दी जाती है। पाइपलाइनों के वाल्व का संचालन कर रहे लोगों को या तो तीन दिनों में एक बार पानी छोड़ने या महज 30 प्रतिशत वाल्व खोलने के निर्देश दिए जाते हैं ताकि भूमिगत टैंक या छत पर बनी टंकियों को भरने के लिए पानी का पर्याप्त प्रवाह न हो।” इससे वहां के लोग टैंकर बुलाने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
संदीप बेंगलुरु में नल से जल के गायब होने का एक विचित्र रुझान बताते हैं। व्हाइटफील्ड, राममूर्ति नगर, हेब्बल, राजराजेश्वरी नगर, केंगेरी सैटेलाइट टाउनशिप और ऊंची इमारतों वाले कुछ और संभ्रांत इलाकों में पानी की आपूर्ति लगभग एक ही वक्त पर थम जाती है। यही वो इलाके हैं जहां के लोग टैंकरों को मोटी रकम चुकाने से गुरेज नहीं करते।
इसके बाद यशवंतपुरा, राजाजीनगर, विजयनगर, जयनगर, मल्लेश्वरम, हनुमंत नगर और बासवनागुडी जैसे पुराने बेंगलुरु नगर पालिका के इलाकों का नंबर आता है। यहां लोग अपने-अपने मकानों में रहते हैं और उन्हें पानी की हलकी या सीमित प्रकार की समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। संदीप कहते हैं “इससे जाहिर हो जाता है कि बीडब्ल्यूएसएसबी का परिचालन ऐसे ढंग से होता है जिससे टैंकर माफिया को फायदा हो।”
ऐसा लगता है कि इसी एकाधिकार की वजह से पानी टैंकर संचालक मनमानी कीमत वसूलते हैं। डाउन टू अर्थ के विश्लेषण से पता चलता है कि टैंकर के 1,000 लीटर पानी की लागत 70 से 1,000 रुपए के बीच होती है जो कई जगहों पर सरकारी जल निकायों द्वारा वसूली जाने वाली रकम से 1,400 गुणा तक ज्यादा है। टैंकरों द्वारा वसूली जाने वाली दर स्थान और मौसम के हिसाब से भी बदलती रहती है।
चेन्नई में फेडेरेशन ऑफ ओल्ड महाबलीपुरम रोड (ओएमआर) रेजिडेंट एसोसिएशंस के सह-संस्थापक हर्ष कोडा कहते हैं, “8,000 लीटर टैंकर की लागत 1,200 रुपए है। चूंकि हरेक अपार्टमेंट में रोजाना करीब 450 लीटर पानी की खपत होती है जो हर महीने तीन टैंकर पानी के बराबर हो जाता है। अनुमान है कि इस इलाके में टैंकर के पानी पर हर साल कुल मिलाकर 1,000 करोड़ रुपए की रकम खर्च होती है।”
लंबे समय से पानी की किल्लत झेलता आ रहा ओएमआर आईटी पार्कों, गगनचुंबी रिहाइशों और व्यावसायिक केंद्रों का फलता-फूलता संसार है, जो पानी टैंकरों के विवादास्पद और जबरदस्त मुनाफा देने वाले गोरखधंधे का केंद्र बनकर उभरा है। पानी की गुणवत्ता गहरी चिंता का एक और विषय है।
टैंकर संचालक अक्सर नियमों को ताक पर रखकर पानी की निकासी करते हैं और कई बार तो अवैध नलकूपों से भी पानी निकाल लेते हैं। कोडा के अनुसार, इस पानी की शायद ही कभी जांच होती है या इसे ट्रीट किया जाता है, जिससे उपयोगकर्ताओं के स्वास्थ्य पर गंभीर खतरे पैदा हो जाते हैं।
केंद्रीय भूमि जल प्राधिकरण के 2020 के शासनादेश के अनुसार, भूजल निकासी और निजी टैंकरों के जरिए जल आपूर्ति के लिए उसका इस्तेमाल करने वाले उपयोगकर्ताओं के लिए प्राधिकरण से अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल करना अनिवार्य है। प्राधिकरण का कहना है कि आपूर्ति किए गए पानी को भारतीय मानक ब्यूरो का भी पालन करना चाहिए।
इन नियमनों के बावजूद हालात जस के तस हैं। 2023 में केरल उच्च न्यायालय ने एक आदेश पारित कर कहा था कि टैंकरों के माध्यम से पानी बेचने के लिए भूजल की निकासी करने वाले उपभोक्ता, भूजल के उपयोगकर्ता हैं और उनके लिए केरल भूजल (नियंत्रण और नियमन) अधिनियम, 2002 के खंड 9 के अंतर्गत निबंधन हासिल करना बाध्यकारी है।
लखनऊ के आशियाना मोहल्ले की एक अलसाई दोपहरी में डाउन टू अर्थ ने छह टैंकरों के मालिक हरि प्रसाद से मुलाकात की। वह बताते हैं, “मैं पिछले 15 वर्षों से पानी की सप्लाई का कारोबार कर रहा हूं। जब जल विभाग पानी की आपूर्ति करने में नाकाम रहता है, तब लोग हमसे संपर्क करते हैं और हम उनको यहां से पानी भेजते हैं। वे हमें एक टैंकर के बदले 400 रुपए अदा करते हैं। हरेक टैंकर में 4,000 लीटर पानी की ढुलाई होती है।”
इस कारोबार के लिए लाइसेंस, परमिट या किसी प्रकार की मंजूरी हासिल करने की जरूरत के बारे में ब्योरा मांगे जाने पर उनके जवाब से “जीएसटी (वस्तु और सेवा कर) नंबर” के अलावा किसी और आधिकारिक मंजूरी का कोई इशारा नहीं मिलता। अधेड़ उम्र के प्रसाद बताते हैं, “पानी सप्लाई करने के कारोबार में प्रवेश करने के लिए किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं है। मई और जून के तपते महीनों में पानी की मांग सबसे ज्यादा होती है। यही वह समय होता है जब हम सबसे ज्यादा मुनाफा कमाते हैं।”
वह खुलासा करते हैं कि उनके गांव के तकरीबन दर्जन भर लोगों के पास 50 टैंकर हैं और वे नजदीकी इलाकों में पानी की आपूर्ति करते हैं। ज्यादातर टैंकर मालिकों ने पानी की निकासी के लिए अपने घरों में सबमर्सिबल मोटर लगवा रखे हैं। आगे और बातचीत से पता चला कि पानी की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए वो कोई खास इंतजाम नहीं करते। कुछ टैंकर मालिकों ने डाउन टू अर्थ को बताया कि वे भरने से पहले टैंकर को सिर्फ धो लेते हैं, तो कुछ अन्य लोगों ने उसमें ब्लीचिंग पाउडर मिलाने की बात कही।
नीदरलैंड्स की वैगेनिंगेन यूनिवर्सिटी में विकास और परिवर्तन समाजशास्त्र के सहायक प्राध्यापक सुमित विज द्वारा 2029 में संयुक्त रूप से तैयार अध्ययन कई शहरों में पानी विक्रेताओं द्वारा भूजल संरक्षण कानूनों के उल्लंघन की पड़ताल करता है। हैदराबाद में पानी विक्रेता और स्थानीय राजनेता आपस में सांठगांठ कर आंध्र प्रदेश जल, जमीन और वन अधिनियम, 2002 (डब्ल्यूएएलटीए, ये तब लागू हुआ था जब हैदराबाद एकीकृत आंध्र प्रदेश का हिस्सा था) के तहत लागू भूजल नियमों को बिना किसी प्रतिरोध या जुर्माने के ठेंगा दिखा देते हैं।
पंचायत और नगर प्रशासन जैसे स्थानीय प्रशासकीय निकायों पर डब्ल्यूएएलटीए को लागू करने की जिम्मेदारी है लेकिन व्यावहारिक तौर पर वह खुद टैंकरों के जरिए सप्लाई होने वाले पानी के बाजार में हिस्सेदार बन बैठे हैं। इस बीच, दिल्ली, हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे शहरों में पानी के विक्रेता स्थानीय राजनेताओं के समर्थन से औपचारिक आपूर्ति नेटवर्क का एक हिस्सा बन चुके हैं। यह न सिर्फ शहरी गरीबों की जरूरतों का निपटारा करना चाहते हैं बल्कि साझा भंडार वाले संसाधन से मुनाफा भी कमा रहे हैं। हालांकि अध्ययन के मुताबिक अक्सर टैंकरों से मिलने वाले पानी की गुणवत्ता और मात्रा सवालों के घेरे में रहती है।
बेंगलुरु स्थित निजी संगठन बायोम एनवायरमेंटल ट्रस्ट के सलाहकार एस विश्वनाथ के मुताबिक, निजी टैंकरों को औपचारिक जल आपूर्ति प्रणाली से दूर नहीं किया जा सकता। चूंकि सरकारें स्वच्छ और नियमित जलापूर्ति सुनिश्चित करने में विफल हो रही हैं इसलिए टैंकर आपूर्ति की जरूरत बरकरार है। हालांकि उनका नियमन किया जा सकता है। यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि वे टिकाऊ स्रोत- जैसे वे स्थान जहां झीलें भूजल को रिचार्ज कर रही हों- से ही पानी निकासी करें।
विज कहते हैं कि शहरों में जल से जुड़ी सेवाएं मुहैया कराने के तौर-तरीकों में तत्काल नई सोच लाने की जरूरत है। पिछली दो सदियों में तमाम शहर चौबीसों घंटे जल आपूर्ति उपलब्ध कराने के लिए पाइप संबंधी और केंद्रीकृत नेटवर्क को लेकर बुनियादी ढांचा खड़ा करने के प्रयास करते आ रहे हैं। भले ही ग्लोबल नॉर्थ (विकसित दुनिया) के शहर इस लक्ष्य को पूरा करने में कामयाब रहे हैं, लेकिन ग्लोबल साउथ (अल्पविकसित और विकासशील दुनिया) में ऐसी कवायद शहरी गरीबों के लिए पानी की पहुंच सुनिश्चित करने में असफल रही है। नगर निकायों की विशाल, केंद्रीकृत जल प्रबंधन प्रणालियों की ऐसी खामियों के चलते टैंकर का उपयोग करने वाले छोटे पैमाने के जल विक्रेता पानी की मांग-आपूर्ति की खाई को पाटने में योगदान देने वाले किरदार के तौर पर उभर रहे हैं।
हालांकि विज खबरदार करते हुए कहते हैं कि छोटे पैमाने के पानी विक्रेता आपूर्ति के लिए हमेशा वैधानिक स्रोतों का उपयोग नहीं करते हैं। वे अर्द्ध-शहरी और ग्रामीण इलाकों में संसाधनों, जैसे भूजल स्रोतों पर निर्भर करते हैं। इस तरह की निकासी से सिंचाई और घरेलू उपभोग के लिए भूजल पर निर्भर रहने वाले किसानों और स्थानीय समुदायों को पानी की किल्लत का सामना करना पड़ता है। अध्ययनों से पता चला है कि नई दिल्ली और बेंगलुरु के अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में भूजल में कमी के चलते शहरों में भी पानी की कटौती हुई है।
विज चेतावनी देते हुए कहते हैं, “ये बेहद चिंताजनक है क्योंकि बदलती जलवायु में अपर्याप्त और अनिश्चित बरसात के साथ-साथ बढ़ते शहरी बुनियादी ढांचे, निर्मित वातावरण के कंक्रीट में तब्दील होने और पेड़ों की कटाई के कारण भूजल का रिचार्ज और भी ज्यादा मुश्किल हो गया है। हालांकि अपने तमाम दुष्प्रभावों और फायदों के बावजूद पानी के टैंकरों और विक्रेताओं की भूमिका हाल के समय में बढ़ी है। औपचारिक पाइप नेटवर्क की निरंतर विफलता और ताकतवर किरदारों द्वारा समानांतर नेटवर्क खड़ा कर देने के चलते ऐसा देखने को मिला है। इसके बावजूद बड़े महानगरों में जल की आपूर्ति से जुड़े विमर्श में पाइप के जरिए जल की आपूर्ति पर ही जोर दिया जाता है।”
विज कहते हैं, “दरअसल, सरकारी स्वामित्व वाली जल आपूर्ति व्यवस्था में खासतौर से शहरी गरीब के लिए पाइप और गैर-पाइप टेक्नोलॉजी दोनों ही आवश्यक हैं। नगर प्रशासन के अधिकारी मांग-आपूर्ति प्रबंधन और जलवायु परिवर्तन से जल स्रोतों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को अच्छी तरह से समझने में नाकाम रहते हैं।” उनका आगे कहना है, “शायद, यही समय है जब हम अनौपचारिक पानी टैंकर प्रणाली की अहमियत स्वीकार करें और पानी जुटाने और उसके संरक्षण के लिए स्पष्ट नियम तय करें। हमें ग्लोबल नार्थ के बुनियादी ढांचा आदर्श की महज नकल उतारने से ध्यान हटाकर भारतीय शहरों के अनोखे संदर्भ को समझना होगा। सैकड़ों किलोमीटर दूर स्थित जलाशयों और अन्य आधारभूत संरचनाओं पर निर्भर रहने की बजाए हमें शहर के स्तर पर पानी का जुगाड़ करने और उसका संरक्षण करने के उपायों पर विचार करना होगा।”
यही वजह है कि विज “मध्यमार्गी” रुखों को ज्यादा राजनीतिक महत्व देने की वकालत करते हैं जो विचारों, प्रौद्योगिकी और किरदारों का ऐसा मिश्रण हो जिसे स्थानीय रूप से शासित, किफायती और आसानी से आगे बढ़ाए जाने वाले तकनीकी समाधान का दर्जा दिया जा सके। इससे शहरों में जल संरक्षण के लिए विकल्प विकसित किए जा सकेंगे और मौजूदा और भावी चुनौतियों का समाधान, खासतौर से जलवायु परिवर्तन के चलते पैदा होने वाली चुनौतियों का निपटारा हो सकेगा। विज के मुताबिक ये समाधान समुदाय के भीतर समावेशन और स्वामित्व के विचारों से बंधे हैं।