जल

उत्तराखंड में जल स्रोत सूखने के कगार पर, जिम्मेवार कौन?

पहाड़ों से निकलकर शहरों तक पहुंचने वाले स्वच्छ और निर्मल पानी को मानो किसी की नजर लग गई है

Harish Chandra Andola

उत्तराखंड में सदियों से लोगों की प्यास बुझाते प्राकृतिक जल स्रोत अब खुद प्यासे हो रहे हैं। पहाड़ों से निकलकर शहरों तक पहुंचने वाले स्वच्छ और निर्मल पानी को मानो किसी की नजर लग गई है. हालात ए हैं कि जल स्रोत सूखने लगे हैं.

देश के कई राज्यों की प्यास बुझाने वाला उत्तराखंड अपने नागरिकों के गले ही तर नहीं कर पा रहा है. उत्तराखंड का पहाड़ी क्षेत्र अपने आप में अकूत जल संपदा संजोए हुए है। प्राकृमतिक जल स्रोत, सदानीरा नदी तंत्र, गाड़़-गदेरे अमूल्य धरोहर को समेटे हुए हैं, जिनसे उत्तर भारत की अधिकतम पेयजल एवं सिंचाई आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।

नवीकरणीय ऊर्जा आपूर्ति हेतु हाइड्रो प्रोजेक्ट से भरे पड़े इस क्षेत्र में इसके प्राकृतिक जल संपदा का कभी भी परोक्ष लाभ यहां के रैबासियों को नहीं मिल पाया है। पुराने समय से ही कहा जाता है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी कभी यहां के काम नहीं आई है और कुछ एक अपवादों को छोड़कर यह बात सत्य भी है।वर्तमान परिदृश्य में हो स्थिति और भी खतरनाक हो रही है। ग्लेशियर लगातार सिकुड़ रहे हैं, नदी गाड़ गदेरों में पानी कम होता जा रहा है।

अनियंत्रित विकास कार्यों का प्रभाव भूमिगत जल पर पड़ रहा है। पिछले 30 से 40 सालों में उत्तराखंड में करीब एक लाख प्राकृतिक जल स्रोत सूखने के कगार पर पहुंच गए हैं। प्राकृतिक जल स्रोतों के संरक्षण के लिए समुदाय पर आधारित जल स्रोत प्रबंधन केंद्र बनाए जाने की आवश्यकता है। इन प्रबंधन केंद्रों पर स्थानीय पंचायतों की भूमिका भी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

इन नौला धारों के दुर्दिनों के पीछे वर्तमान दो – तीन पीढ़ियों के असंवेदनशील क्रियाकलाप हैं। तीन पीढ़ी पहले के लोग इन धारों को ग्राम देवता के तत्व के रूप में पूजते थे, प्रत्येक गांव में एक दो अथवा अधिक धारे आसानी से मिल जाते थे। पेयजल आपूर्ति एवं सिंचाई का मुख्य साधन होने के साथ ही ए धार गांव की सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग होते थे और इसीलिए बिना किसी आधुनिक तकनीकी विशेषज्ञता के धारे सैकड़ों वर्षों तक केवल गांववासियों के स्थानीय सूझबूझ के संरक्षित रहे ।

लेकिन पिछली दो-तीन पीढ़ीयों ने भावनात्मक संवेदनशीलता के इतर इन्हें केवल और केवल पानी का स्रोत समझा, जिसका इस्तेमाल पीने के पानी और गर्मी के दिनों में नहाते हुए सेल्फी लेने के लिए ही किया जा सकता है, तभी से इन जलस्रोतों में कमी आई है, इसी के साथ अंधाधुंध और अनियोजित ढंग से पहाड़ों का कटान, पलायन, घर घर में स्टोरेज पानी की टंकियों ने धारा पंध्यारों के प्रति मानवीय भावनात्मक लगाव को कम करने में अहम भूमिका निभाई है।

नौले धारों के संरक्षण व संवर्धन के लिए राज्य में वन विभाग के नेतृत्व में बनी जल स्रोत प्रबंधन कमेटी की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में लगभग 4000 गांव जल संकट से गुजर रहे हैं। मोटे तौर पर राज्य में लगभग 510 जलस्रोत सूख गए हैं या सूखने की कगार पर हैं । अकेले अल्मोड़ा जनपद में सबसे अधिक 300 जलस्रोत सूख गए हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के प्राकृतिक जलस्रोतों के जल स्तर में साठ फीसदी कमी आई है इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वर्तमान में जो नौले धारे बचे भी हैं उनमें भी जल की मात्रा आधी हो गई है।

यह कमी आकस्मिक नहीं हुई है यह दो दशक से अधिक समय से गतिमान प्रक्रिया का कारण है जिसके लिए जहाँ नैतिक रुप से स्थानीय जनमानस जिम्मेदार है वहीं संवैधानिक व सामाजिक रूप से राज्य जनता व प्राकृतिक संसाधनों के प्रति उत्तरदायित्व निभाने में असफल हुए हैं।

अगर संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के अनुसार प्रकृतिक संसाधनों को संरक्षित करना सरकार का कर्तव्य है सरकारी तंत्र की घोर लापरवाही से भी धारों की दुुुर्दशा गतिमान है। सरकार को कठघरे में खड़ा करना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि जल संरक्षण के नाम पर पिछले बीस वर्षों में बजट पानी की ही तरह बहाया गया पर पानी का स्रोत नहीं बचाया जा सका।

इसका मुख्य कारण इन स्रोतों के संवर्धन एवं संरक्षण के लिए जिम्मेदार विभागों, राज्य के भीतर की तरह बने गैर सरकारी संघठन व स्थानीय आम जनमानस में कभी भी आपसी समन्वय स्थापित ही नहीं हुआ। धरातल पर कभी यह जानने की कोशिश ही नहीं की गई की जलस्रोतों में लगातार गिरावट क्यों हो रही है?

बल्कि मानकों का हवाला देकर प्रत्एक स्रोत के पीछे कुछ एक कारणों को फिट कर एक ही डंडे से हांकने की कोशिश की जाती रही है जबकि धरातलीय परिस्थितियों के साथ -साथ स्थानीय कारणों को ध्यान में रखकर इच्छाशक्ति के साथ नवीन तकनीकी का उपयोग कर जमीनी स्थल पर यथोचित प्रयास करने की आवश्यकता की है। उत्तराखंड का उदाहरण है कि तेजी से प्राकृतिक जल स्रोत सूख रहे हैं।

राज्य में 461 जल स्रोत ऐसे हैं, जिनमें 76 प्रतिशत से अधिक पानी सूख चुका है। दिनोंदिन बढ़ती इस गंभीर स्थिति पर नीति आयोग कह चुका है कि हिमालय क्षेत्र के राज्यों में 60 फीसद से अधिक जल स्रोत सूख गए हैं। केंद्रीय भूजल बोर्ड के आंकड़ों में भी बताया गया है कि देश के 700 जिलों में 256 ऐसे हैं, जहां भूजल का स्तर अतिशोषित हो चुका है।

तीन-चौथाई ग्रामीण परिवारों के पास पीने योग्य पानी की पहुंच नहीं है। वे असुरक्षित स्रोतों पर निर्भर हैं। इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा भूजल दोहन करने वाला देश बन गया है, जो कुल जल का 25 फीसद है। देश में 70 फीसद जल स्रोत दूषित हैं जिसके कारण लोग तरह-तरह के रोगों से ग्रसित हैं। प्रमुख नदियां प्रदूषण के कारण मृतप्राय हैं।

जिस तरह दुनिया का पहला जलविहीन शहर दक्षिणी अफ्रीका का केपटाउन बन गया है, उसी तरह की स्थिति हिमालय से लेकर मैदानी क्षेत्रों में रह रहे अनेक गांव और शहरों में है, जिसके संकेत दिखाई दे रहे हैं।जल निकायों की गणना में चौंकाने वाली बात है कि इनमें 78 फीसदी मानव निर्मिंत हैं, और 22 फीसद यानी 5,34,077 जल निकाय प्राकृतिक हैं। इसका अर्थ है कि प्राकृतिक स्रोत तेजी से गायब हो रहे हैं। कुल जल निकायों की क्षमता के संबंध में बताया गया है कि 50 फीसद जल निकायों की भंडारण क्षमता 1000 से 10,000 क्यूबिक मीटर के बीच है।

वहीं 12.7 फीसद यानी 3,06,960 की भंडारण क्षमता 10,000 क्यूबिक मीटर से ज्यादा है। रिपोर्ट कहती है कि 3.1 फीसद का क्षेत्रफल 5 हेक्टेयर से ज्यादा है जबकि 72.5 फीसद का विस्तार 0.5 हेक्टेयर से कम है। जल निकायों की इस गणना के बाद सुनिश्चित होना चाहिए कि देश के नीति-निर्माता उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर भविष्य में जल संसाधनों के सही नियोजन, विकास और उपयोग की दिशा में कदम बढ़ाएं। जल, जंगल, जमीन की एकीकृत नीतियां बनानी पड़ेंगी।

चुनावी घोषणा पत्रों में स्वच्छ जल वापसी का मुद्दा शामिल किया जाए। राज समाज के बीच ऐसी जीवन शैली बने कि जिसमें जल सरंक्षण के लिए पर्याप्त स्थान हो। ऐसी योजनाएं बिल्कुल न चलाई जाएं जहां जल का अधिक दोहन-शोषण होता है, और बाजार द्वारा बंद बोतलों का पानी गांव तक पहुंचया जा रहा है। कोशिश हो कि प्रकृति और मानव के बीच में जल ही जीवन के रिश्ते की डोर बनी रहे। इस प्रयास को इस गणना के बाद राज-समाज को मिलकर करना होगा। महकमा दावे जरूर कर रहा है, लेकिन आंकड़ों के पीछे जो भयानक मंजर है, वो तो जस का तस है।

लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके व्यक्तिगत हैं