हम पिछले कई सालों से इस कोशिश में लगे हैं कि हमारी नदियां प्रदूषित न हों, हमारे शहरों के सीवेज को बहाए जाने से पहले उसका उपचार किया जाए और यह कि उद्योग प्रदूषण न फैलाएं। इस क्षेत्र में हमें अब तक कोई खास सफलता नहीं प्राप्त हुई है।
जलवायु परिवर्तन के इस जोखिम वाले इस समय में, हमें एक चुनौती की तात्कालिकता को पहचानने की आवश्यकता है। वह यह कि पानी की कमी होने वाली है, क्योंकि वर्षा अधिक परिवर्तनशील और अनिश्चित हो जाएगी। इससे उपजे तनाव को कम करने के दो तरीके हैं, पहला वर्षा जल का संरक्षण करना और दूसरा यह सुनिश्चित करना कि पानी की एक भी बूंद प्रदूषित न होने पाए।
अच्छी खबर यह है कि नदियों से संबंधित नीतियां हमारी पूर्व विफलताओं से सबक लेकर विकसित की गई हैं। नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा का यह मानना है कि नदी के प्रदूषण में कमी तब तक संभव नहीं है, जब तक कि हम प्रत्येक भारतीय को एक शौचालय मुहैया करा दे। और ये शौचालय मानव मल को सुरक्षित रूप से निपटाने वाली प्रणालियों से जुड़े हों, ताकि ये प्रदूषण और बीमारी का स्रोत न बन जाएं। इसलिए यह एजेंडा केवल शौचालय बनाने के बारे में नहीं है, बल्कि सभी के लिए सस्ती स्वच्छता प्रणालियों के निर्माण के बारे में भी है। विकास तभी टिकाऊ हो सकता है जब वह किफायती और समावेशी हो। यही है हमारी असली चुनौती।
यह चुनौती चीजों को अलग तरह से और अधिक प्रभावी ढंग से करने का अवसर प्रदान करती है। अब तक, शहरी स्वच्छता का पैराडाइम (आदर्श) महंगा रहा है। लेकिन विभिन्न शहरों के मलमूत्र का औसत या जिसे हम शहर का “शिट-फ्लो” का नक्शा कहते हैं, यह दर्शाता है कि स्थिति गंभीर है। हमारे शहर मानव मल के बड़े हिस्से का उपचार या सुरक्षित रूप से निपटान नहीं करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम अक्सर शौचालयों को स्वच्छता से जोड़ने की भूल कर बैठते हैं।
असली मुद्दा यह है कि शौचालय में केवल अपशिष्ट जमा होते हैं, जब हम पानी बहाते हैं या पानी डालते हैं, तो अपशिष्ट एक पाइप के माध्यम से नाले में बह जाता है। यह नाला सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) से जुड़ा हुआ हो सकता है, हालांकि इसकी संभावना काफी कम है। एसटीपी चालू है या नहीं, यह अलग मुद्दा है।
इसका मतलब यह है कि मानव मल (और हमारे घरेलू अपशिष्ट) के अधिकांश भाग का सुरक्षित रूप से निपटान नहीं किया जाता। इसे बिना उपचार के निकटतम नदी, झील या नाले में बहा दिया जाता है। यह गंदा पानी प्रदूषण के बढ़ते स्तर के लिए जिम्मेदार है, जिसके कारण बीमारियों के खतरे में भी इजाफा होता है।
लेकिन, जैसा कि मैंने कहा, यहां एक अवसर है। भूमिगत सीवर नेटवर्क महंगा होने के साथ-साथ वहन योग्य नहीं है। अतः उसके निर्माण की प्रतीक्षा करने के बजाय मल के प्रवाह के लिए दूसरा मार्ग तलाशना होगा। आज, भारत के अधिकांश परिवार जो स्वच्छता सेवाओं का लाभ उठा रहे हैं, वे सेप्टिक टैंक से जुड़े हैं।
यदि ये सेप्टिक टैंक अच्छी तरह से बनाए जाएं तो वे स्लज को जमा करके एक सोख गड्ढे के माध्यम से तरल का निर्वहन करेंगे। इस फीकल स्लज को निकालकर उपचार के लिए भेजा जा सकता है। यह प्रणाली तभी काम करेगी अगर सेप्टिक टैंक मानकों के अनुरूप बनाया गया हो।
मानव मल (फीकल स्लज) के संग्रह की प्रणाली को विनियमित करने और इस प्रकार एकत्र किए गए स्लज को उपचार के द्वारा पुन: उपयोग के लिए सुरक्षित बनाना इस प्रक्रिया का अगला चरण है।
यह स्लज पोषक तत्वों से भरपूर होता है। हम पोषक तत्वों से भरपूर मानव मल को जलाशयों में फेंक देते हैं, जिसके परिणामतः वैश्विक नाइट्रोजन चक्र बाधित हो रहा है। हम मानव मल को वापस भूमि को लौटाकर, इसे उर्वरक के रूप में उपयोग कर सकते हैं और नाइट्रोजन चक्र को उलट सकते हैं।
फीकल स्लज को उपचार के बाद किसानों में बांटा जा सकता है और जैविक खाद के रूप में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अलावा इसका उपचार करके इसे अन्य जैविक कचरे के साथ मिश्रित किया जा सकता है। जैसे कि रसोई का कचरा और इस मिश्रण का इस्तेमाल बायोगैस के लिए या फ्यूल पैलेट्स अथवा इथेनॉल के निर्माण के लिए किया जाता है।
हमें प्राचीन रोम और ईदो (जिस शहर से टोक्यो विकसित हुआ) से सीखना चाहिए। रोमन लोग अपनी बस्तियों में पानी लाने के लिए दसियों किलोमीटर तक चलने वाले विशाल जलसेतुओं का निर्माण करते थे। कई विशेषज्ञों ने सावधानीपूर्वक नियोजित जल आपूर्ति प्रणाली के लिए रोमनों की प्रशंसा की है।
लेकिन, नहीं, ये जलसेतु बुद्धि नहीं बल्कि महान रोमनों के पूर्ण पर्यावरणीय कुप्रबंधन का उदाहरण हैं। रोम टाइबर नदी पर बसाया गया था और इस शहर को किसी भी जलसेतु की जरूरत नहीं थी। लेकिन चूंकि रोम के कचरे को सीधे टाइबर में डाल दिया जाता था जिसके कारण नदी प्रदूषित हो गई थी और पानी को लंबी दूरी से लाना पड़ा था।
परिणामस्वरूप पानी के साधन कम थे और अभिजात वर्ग ने दासों की एक प्रणाली का उपयोग करके इन्हें विनियोजित किया। इसके विपरीत, पारंपरिक जापानी समाज ने कभी भी अपना अपशिष्ट नदियों में नहीं डाला। इसके बजाय उन्होंने कचरे से कम्पोस्ट बनाकर उसका इस्तेमाल खाद के तौर पर किया। ईदो शहर में जल के कई साधन थे और जल आपूर्ति समतावादी थी।
जल और संस्कृति का परस्पर का संबंध है। इसलिए पानी की कमी केवल बारिश की विफलता के बारे में नहीं है। यह अपनी जल निधि की रक्षा और उसे साझा करने में समाज की विफलता के बारे में है।
लब्बोलुआब यह है कि हम अपनी नदियों का स्थायी प्रबंधन तब तक नहीं कर सकते जब तक कि हम अपशिष्ट प्रबंधन की अपनी प्रणाली को ठीक नहीं करते। हमारा जल भविष्य न केवल हमारे जल ज्ञान पर निर्भर करता है, बल्कि हमारे अपशिष्ट ज्ञान पर भी निर्भर करता है।