ंएक स्विच दबाते ही पानी का तेज बहाव एक गूंजती आवाज़ के साथ धरती के गर्भ से सतह पर आ जाता है। महज दो दशक पहले तक भन्हेड़ा खेमचंद गांव में जलस्तर बेहद उथला था। बस कुछ ही फुट नीचे।
लेकिन आज सहारनपुर के ननौता ब्लॉक के इस गांव के 68 वर्षीय किसान सोमपाल पुंडीर गहराते भूजल तक पहुंचने के लिए साल दर साल बोरवेल और गहरा करते जा रहे हैं। उनके मन में भी ये सवाल गूंजता है “लगातार घटते जलस्तर तक पहुंचने के लिए और कितना गहरा जाया जा सकता है?”
“वर्ष 1975-76 तक, जब सिंचाई के साधन सीमित थे, हम ज्वार, बाजरा, मक्का, उड़द समेत मोटे अनाज उगाया करते थे। क्योंकि उनमें पानी की कम जरूरत होती थी। लेकिन पिछले 20-25 वर्षों में जैसे-जैसे ट्यूबवेल समेत सिंचाई के साधन बढ़ते गए, हम गन्ना, धान और गेहूं जैसी फसले उगाने लगे। इनमें हमारी आमदनी निश्चित है।"
सहारनपुर, उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक भूजल दोहन करने वाले जिलों में से एक है। सोमपाल बताते हैं, "हमारे गाँव में जितने परिवार हैं, उतने ही ट्यूबवेल हैं।"
भूजल से जुड़े आंकड़ों की छह महीने की पड़ताल से पता चलता है कि देश में भूजल बेहद तेजी से घट रहा है। ताजे पानी के अंधाधुंध दोहन से हम उस स्थिति में पहुंच चुके हैं जहां से वापसी लगभग असंभव है। हमारा देश दुनिया में सबसे अधिक भूजल निकालने वाला देश है।
2023 में, दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत में धरती से सबसे अधिक ताजाजा पानी निकाला गया। इसके बाद चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका का स्थान है। किसान अपने खेतों में पानी की अधिक खपत वाली फसलें उगा रहे हैं और खेती में विविधता नहीं है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि ट्यूबवेल और बोरवेल से अंधाधुंध भूजल दोहन से धरती के भीतर जलभृत पर अत्यधिक दबाव है। यदि इसके लिए तत्काल प्रभावी उपाय नहीं किए गए तो स्थिति और भी बदतर होगी। एक गंभीर जल संकट पैदा होगा।
वर्ष 2023 में, भारत ने तकरीबन 241 अरब घन मीटर (बीसीएम) भूजल निकाला—पानी की इस मात्रा को अगर पूरे आगरा जिले में फैला दिया जाए तो यह ताजमहल की मीनार जितनी, लगभग 60 मीटर ऊंची बाढ़ ला सकता है। इस दौरान सिंचाई के लिए निकाले गए भूजल की कुल मात्रा लगभग 210 बीसीएम थी। यानी हर 10 लीटर भूजल में से 8 लीटर सिंचाई के लिए निकाला गया।
वर्ष 2023 में, अकेले उत्तर प्रदेश ने लगभग 46 बीसीएम भूजल निकाला। इस भूजल को यदि आगरा जिले में फैला दें तो यह तीन मंजिला इमारत की ऊंचाई के बराबर जलस्तर वाली बाढ़ ला सकता है।
उत्तर प्रदेश लगातार देश में सिंचाई के लिए सबसे अधिक ताजा पानी निकालने वाला राज्य बना हुआ है। 2013 और 2023 के बीच, इन दस वर्षों में राज्य ने कुल 238 बीसीएम पानी निकाला। पानी की ये मात्रा राज्य की घरेलू पानी की जरूरतों को लगभग 47 वर्षों तक पूरा करने के लिए पर्याप्त है। राज्य में पंप किये गये हर 10 में से 9 लीटर खेतों में सिंचाई की खातिर इस्तेमाल किये गये।
अत्यधिक भूजल दोहन उत्तर प्रदेश के आधे जिलों के लिए गंभीर खतरा
उत्तर प्रदेश के लगभग आधे जिले भूजल का अत्यधिक दोहन कर रहे हैं। वर्ष 2023 में धरती में उपलब्ध हर 10 में से 7 लीटर भूजल निकाला गया। भूजल दोहन की इस रफ़्तार से भविष्य में राज्य को और भी गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ सकता है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में स्थिति खासतौर पर चिंताजनक है। यहां छह जिले भूजल का इतना अधिक दोहन कर रहे हैं कि वर्षा के माध्यम से इसकी प्राकृतिक भरपाई संभव नहीं हो पा रही है। घटते भूजल की चिंता ने ही इसकी निगरानी बढ़ा दी है और खबर अच्छी नहीं है।
वर्ष 2022 से पहले भूजल संसाधनों का आकलन अपेक्षाकृत लंबे अंतराल पर किया जाता था। लेकिन अब केंद्रीय भूजल बोर्ड और राज्य भूजल विभाग हर साल इसका आकलन कर रहे हैं। इस डेटा से पता चलता है कि धरती में कुल कितना भूजल उपलब्ध है। सिंचाई, औद्योगिक और घरेलू उपयोग के लिए कितना भूजल निकाला जा रहा है। साथ ही, हर साल वर्षा और सतही जल के रिसाव जैसे प्राकृतिक तरीकों से भरने वाला भूजल और इसकी खपत में कितना अंतर है।
मूल्यांकन इकाइयों (तालुका, ब्लॉक या मंडल) को भूजल दोहन के स्तर के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। ‘अत्यधिक दोहित’ इकाइयां वे होती हैं जहां वार्षिक पुनर्भरण क्षमता से अधिक भूजल निकाला जाता है।
जिन इकाइयों में दोहन 90-100 प्रतिशत के बीच होता है, उन्हें ‘गंभीर’ (क्रिटिकल ) श्रेणी में रखा जाता है। ‘अर्ध-संकटग्रस्त’ (सेमी-क्रिटिकल) इकाइयों में दोहन 70-90 प्रतिशत के बीच होता है। जबकि ‘सुरक्षित’ (सेफ) इकाइयों में यह 70 प्रतिशत से कम होता है।
उत्तर प्रदेश भूजल विभाग से सेवानिवृत्त वरिष्ठ भूजल वैज्ञानिक और ग्राउंड वाटर रेग्यूलेशन एक्ट, 2018 का मसौदा तैयार करने वाले आरएस सिन्हा चिंता जताते हैं, "भूजल संसाधन का आकलन अनुमान और तात्कालिक मानकों के आधार पर किया जाता है।
इसमें भूजल इस्तेमाल और निकासी से संबंधित विभिन्न आंकड़ों के कई सेट शामिल होते हैं। इसके जरिए पुनर्भरण और दोहन का अनुमान लगाया जाता है। लेकिन भूजल स्तर में लगातार हो रहे परिवर्तन को ध्यान में नहीं रखा जाता। यह तरीका भूजल संसाधनों की उपलब्धता दर्शाता है।"
नहरों का इस्तेमाल नहीं
सहारनपुर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उन जिलों में से एक है, जो अपने उपलब्ध भूजल का 100 प्रतिशत से अधिक दोहन कर रहा है। यानी एक साल में जितना पानी धरती में समाता है उससे ज्यादा निकाल लिया जाता है।
किसान सोमपाल खेत में लगभग 12 फीट गहराई में लगा मोटर दिखाते हैं। वह बताते हैं, "भूजल पंप करने के लिए ज्यादातर किसानों ने 200-250 फीट गहराई पर बोरवेल लगाया है और 70-80 फीट गहराई में सबमर्सिबल पंप लगाए हैं। हर साल भूजल दो-तीन फीट नीचे चला जाता है। हर दूसरे-तीसरे साल हमारे बोरवेल भी गहरे होते जाते हैं"।
सहारनपुर में नहरें भी मौजूद हैं लेकिन किसान इनका इस्तेमाल बेहद कम करते हैं। सोमपाल बताते हैं, "नहरों में पानी घटता-बढ़ता रहता है। जब हमें सिंचाई के लिए जरूरत होती है पानी नहीं मिलता। लेकिन बारिश के दिनों में पानी बढ़ जाता है। बोरवेल में हम अपनी सुविधा के अनुसार पानी निकाल लेते हैं।
सिंचाई की ये व्यवस्था हमारे लिए आसान और भरोसेमंद दोनों है”। वह बताते हैं कि लोगों ने खुद ही नहरों के रास्ते बंद कर दिए हैं क्योंकि उन्हें इसकी जरूरत ही नहीं है।
हरियाणा के ताजेवाला क्षेत्र में यमुना नदी से निकलने वाली पूर्वी यमुना नहर सहारनपुर समेत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रमुख जिलों मुज़फ्फरनगर, मेरठ और गाजियाबाद में सिंचाई के लिए बनाई गई थी। 197 किलोमीटर लंबी यह नहर 2,21,000 हेक्टेयर कृषि भूमि की सिंचाई कर सकती है। जिसमें खरीफ सीजन के दौरान 52 प्रतिशत और रबी सीजन के दौरान 39 प्रतिशत कृषि भूमि कवर हो सकती है।
हालांकि इस नहर में पानी की उपलब्धता पूरे साल एक समान नहीं रहती। मई और जून की गर्मियों में जब किसानों को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है, नहर में पानी का स्तर बेहद कम हो जाता है।
सहारनपुर जिले के सिंचाई कार्यवृत्त के अधीक्षण अभियंता ओम प्रकाश वर्मा बताते हैं, "मानसून में जुलाई से अक्टूबर तक नहर में पानी रहता है। लेकिन सर्दियों में पानी फिर कम हो जाता है।" सहारनपुर में ऊपरी गंगा नहर भी कुछ हिस्सों को कवर करती है।
क्षेत्र के ज्यादातर किसान बताते हैं कि वे नहरों की तुलना में भूजल पर अधिक निर्भर रहते हैं। भन्हेड़ा खेमचंद गांव के ही एक अन्य किसान राजकुमार सिंह बताते हैं, "जब हमें पानी की ज़रूरत होती है, नहर में पानी बहुत कम रहता है और जब हमें ज़रूरत नहीं रहती तब पानी होता है। ट्यूबवेल हमारे लिए बेहतर विकल्प हैं क्योंकि हमें जब भी जरूरत होती है, पानी मिल जाता हैं,"
कई खेतों में बोरवेल के लिए किए गए गढ्ढे भी देखे जा सकते हैं। ये गड्ढे डीजल पंपिंग सेट्स के लिए बनाए गए हैं। जब बिजली कटौती होती है तो किसान डीज़ल पंपिंग सेट के ज़रिये भूजल निकालते हैं।
इस गांव के बाहर 11 किलोमीटर लंबी एक उप-नहर (रजवाहा) भी है। लेकिन भन्हेड़ा खेमचंद गांव के ज्यादातर किसान अब इसके पानी का इस्तेमाल नहीं करते।
विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि भूजल का अनियंत्रित इस्तेमाल भविष्य में किसानों के लिए संकट पैदा करेगा। सहारनपुर जिले की भूजल परिषद के सदस्य डॉ. उमर सैफ कहते हैं, "हमें भूजल दोहन को नियंत्रित करने की जरूरत है। इसकी न तो कोई निगरानी है और न ही प्रबंधन। किसानों को अब ट्यूबवेल चलाने के लिए बिजली बिल भी नहीं देना होता है क्योंकि सरकार उन्हें 100 प्रतिशत सब्सिडी दे रही है।
अपने तात्कालिक फायदे के लिए किसान बेहिसाब पानी निकाल रहे हैं। अगर यही स्थिति रही तो भविष्य में किसानों को ही इसका नुकसान उठाना पड़ेगा”।
वह आगे कहते हैं, “पहले हर 4-5 साल में दोबारा बोरिंग करनी पड़ती थी, लेकिन अब पानी का स्तर जिस तेजी से नीचे गिर रहा है तकरीबन हर साल ही रि-बोरिंग करानी पड़ रही है।"
भूजल से जुड़े कार्यों के लिए सरकारी स्तर पर कई विभाग और समितियां हैं, लेकिन एक समन्वित और प्रभावी प्रबंधन रणनीति का अभाव है। सहारनपुर में भूजल विभाग के नोडल अधिकारी और कार्यकारी अभियंता आशीष कुमार सिंह चौधरी के मुताबिक "उत्तर प्रदेश एक बड़ा राज्य है। यहां अनगिनत घर और किसान भूजल पर ही निर्भर करते हैं।
इतनी बड़ी आबादी की निगरानी बेहद मुश्किल है। भूजल निकासी के लिए ट्यूबवेल या बोरवेल पंजीकरण को लेकर अभी लोगों में बहुत जागरूकता नहीं है। हालांकि कुछ नए किसान बोरवेल के लिए पंजीकरण कराते हैं और नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट (एनओसी) लेते हैं।"
साथ ही, वह कहते हैं, "भूजल विभाग का कार्य इसका संरक्षण नहीं है। हम केवल एक निगरानी संस्था हैं। हम मौजूदा भूजल स्तर का डेटा इकट्ठा करते हैं, चाहे वे घट रहे हों या बढ़ रहे हों। इसके संरक्षण से जुड़े कार्यों को लेकर हम हस्तक्षेप नहीं कर सकते।"
धान की बढ़ती खेती से भूजल पर दबाव
उत्तर प्रदेश के अधिकांश किसान पानी की अधिक खपत वाली फसलें जैसे धान, गेहूं और गन्ने की खेती करते हैं। ये फसलें पहले ही संकट का सामना कर रहे भूजल संसाधन पर दबाव बढ़ा रही हैं। ख़ासतौर पर धान भूजल संकट को गहरा रहा है।
उत्तर प्रदेश, देश का दूसरा सबसे बड़ा चावल उत्पादन करने वाला राज्य है। पिछले दशक (2013 से 2023) के दौरान राज्य में लगभग 154 मिलियन टन चावल उत्पादन हुआ। और जिन खेतों में धान नहीं उगाया जा रहा था, वहां पानी की अधिक खपत वाली अन्य फसलें उगाई जा रही थीं।
उत्तर प्रदेश में एक किलोग्राम चावल उगाने के लिए 649 लीटर भूजल की आवश्यकता होती है—जो राष्ट्रीय औसत 452 लीटर से लगभग 1.5 गुना अधिक है। वहीं, मिलेट्स उगाने के लिए महज पांच लीटर पानी की जरूरत होती है। फिर भी इनकी खेती बहुत कम होती है।
यहां धान दूसरी सबसे अधिक उगाई जाने वाली फसल है। राज्य के लगभग हर चार में से एक खेत में धान उगाया जाता है। गेहूं और गन्ने के साथ मिलकर ये तीनों फसलें कुल कृषि क्षेत्र के तीन-चौथाई हिस्से पर कब्जा जमाए हुए हैं।
भूजल दोहन करने वाले शीर्ष पांच जिलों में धान, गेहूं और गन्ने का क्षेत्र सबसे अधिक है। इन जिलों में आधी से अधिक कृषि भूमि में यहीं फसलें उगाई जाती हैं।
पानी की अधिक खपत वाली फसलें उगाने के लिए मजबूर किसान
हालांकि किसानों को पता है कि धान जैसी फसलें बहुत पानी मांगती हैं और कई क्षेत्रों की मिट्टी इनके लिए उपयुक्त नहीं है। फिर भी आर्थिक वजहों से वे इनकी खेती करते हैं। जिससे उनके जल स्रोतों पर दबाव बढ़ रहा है और पैदावार भी बहुत अच्छी नहीं है।
सोमपाल बताते हैं, “धान की खेती में पानी की खपत बहुत अधिक होती है। बुवाई के बाद हमें खेतों को कम से कम 60 दिनों तक लगातार पानी में डुबाकर रखना पड़ता है”। उनका अनुमान है, “चार एकड़ (1.62 हेक्टेअर) धान की फसल छह महीने में जितना पानी लेती है, उतना ही पानी आठ एकड़ (3.24 हेक्टेअर) गन्ने की फसल को दो साल में लगता है”।
किसान निश्चित आमदनी के लिए धान उगाते हैं। सोमपाल कहते हैं, "गन्ना लंबे समय तक आजीविका देता है जबकि धान और गेहूं हमारी नकदी फसलें हैं। बाजरा और दूसरी फसलें उगाने की लागत कम है लेकिन उनमें आय को लेकर निश्चितता नहीं है।
एक हेक्टेयर में हम करीब 87 से 100 क्विंटल धान उगाते हैं। जो बाज़ार में 2,000 से 2,500 रुपये प्रति क्विंटल के भाव में बिकता है। धान बेचने के लिए हम सरकारी खरीद प्रक्रिया का इंतजार भी नहीं करते। जब तक सरकारी खरीद शुरू होती है, हम अपना धान निजी बाजार में बेच चुके होते हैं।"
भन्हेड़ा खेमचंद गांव में लगभग 1,500 हेक्टेयर कृषि भूमि है। यहां ज्यादातर किसान 60 प्रतिशत खेतों में गन्ने की खेती करते हैं, जबकि बाकी 40 प्रतिशत कृषि भूमि पर धान और गेहूं उगाया जाता है।
उत्तर प्रदेश में लाखों लोगों के लिए भूजल एक अदृश्य जीवनरेखा है। इसकी अहमियत तब और बढ़ गई जब भारत को गंभीर खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ा था। 1960 के दशक में जब देश में खाद्यान्न संकट गहराया, उस दौरान राज्य भी भारी खाद्य संकट से जूझ रहा था।
भूखमरी से निपटने के लिए सरकार ने हरित क्रांति की शुरुआत की और किसानों को गेहूं और धान जैसी जल-गहन फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इन फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी और भूजल पंपिंग के लिए सब्सिडी वाली बिजली दी गई। इस बदलाव ने पारंपरिक फसलों की व्यवस्था को तेजी से बदल दिया और भूजल रसातल को ओर बढ़ता रहा।
"न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) भी गेहूं और धान उगाने के किसानों के फैसले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भले ही मात्र 7-8 प्रतिशत किसान अपनी उपज एमएसएपी पर बेचते हैं, लेकिन ये बाजार मूल्य के लिए एक मानक तय करता है। उदाहरण के लिए अगर सरकार गेहूं का एमएसपी 2,500 रुपये प्रति क्विंटल तय करती है, तो खुले बाजार में इसकी कीमत आमतौर पर इसी के आसपास बनी रहती है।
यह स्थिरता किसानों को इन फसलों की खेती के लिए प्रेरित करती है," स्वतंत्र कृषि विशेषज्ञ एसपी सिंह इन फसलों को उगाने के सामाजिक और आर्थिक कारणों की ओर ध्यान खींचते हैं। वह फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन और विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ विभिन्न कृषि परियोजनाओं पर काम कर चुके हैं।
वह कहते हैं कि राज्य में छोटे जोत वाले खेत समस्या को और तीव्र बना रहे हैं, "उत्तर प्रदेश में 90 प्रतिशत से अधिक लघु और सीमांत किसान हैं। ये किसान धान और गेहूं जैसी निश्चित आमदनी वाली फसलों को प्राथमिकता देने के लिए मजबूर हैं।"
सहारनपुर में कृषि विभाग के उप निदेशक राकेश कुमार मौर्य कहते हैं, "यहां धान, गेहूं और गन्ना तीन मुख्य फसलें हैं। किसान यह नहीं देखते कि कोई फसल पानी की अधिक खपत वाली है या नहीं। वे अपनी आर्थिक स्थिति को प्राथमिकता देते हैं। अगर कोई फसल आर्थिक रूप से फायदेमंद है, तो वे उसे उगाएंगे, अगर नहीं है तो नहीं उगाएंगे।"
गंभीर जल संकट के बावजूद उत्तर प्रदेश के किसान धान और गन्ने जैसी पानी की अधिक खपत वाली फसलों को ही प्राथमिकता दे रहे हैं। धान के सिंचित क्षेत्र में मामूली बढ़त हुई है। पहले हर 25 में से छह खेत धान के हुआ करते थे जो अब बढ़कर सात हो गए हैं, जबकि गन्ने का रकबा 2.5 से बढ़कर तीन खेतों तक पहुंच गया है, वहीं, गेहूं के सिंचित खेत 12 से घटकर 11 हो गये हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिले खेतों में सिंचाई के लिए भूजल का सबसे अधिक दोहन करते हैं। इसके उलट, सबसे अधिक धान उत्पादन गैर-पश्चिमी जिलों—शाहजहांपुर, खीरी, बाराबंकी, आजमगढ़ और सिद्धार्थ नगर में होता है, जजहां जल संसाधन धान की खेती के लिए अधिक उपयुक्त हैं।
पिछले दस वर्षों में उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में सर्वाधिक 6.55 मिलियन टन धान का उत्पादन हुआ। इसके उलट, सर्वाधिक भूजल दोहन करने वाले जििलों में से एक, सहारनपुर में इस अवधि में केवल 1.5 मिलियन टन धान का उत्पादन हुआ।
गैर-पश्चिमी जिले जैसे औरैया, शाहजहांपुर, पीलीभीत, चंदौली और कानपुर देहात धान की उत्पादकता में आगे हैं। औरैया जिले की उत्पादकता 3.26 टन प्रति हेक्टेयर है। वहीं अत्यधिक भूजल दोहन के बावजूद पश्चिमी जिले गाजियाबाद में अपेक्षाकृत कम 2.66 टन प्रति हेक्टेयर उपज रही।
ये स्पष्ट है कि अधिक उत्पादन का अर्थ हमेशा अधिक उत्पादकता नहीं होता। शाहजहांपुर को छोड़कर, अन्य उच्च धान उत्पादक जिलों में प्रति हेक्टेयर उत्पादन अपेक्षाकृत कम है।
कृषि विशेषज्ञ एसपी सिंह बताते हैं, "पूर्वी उत्तर प्रदेश में बाढ़ के चलते जलभराव एक स्थायी समस्या बनी रहती है, इसलिए वहां धान की खेती बेहतर विकल्प है। लेकिन ज्यादातर खेती के लिए भूजल पर निर्भर करने वाले राज्य के पश्चिमी हिस्से में वैकल्पिक फसलों को अपनाने के लिए किसानों को प्रोत्साहन किया जाना चाहिए।"
भविष्य के लिए भूजल
भविष्य के जल संकट को ध्यान में रखते हुए करीब एक दशक पहले प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना शुरू की गई थी। पानी की कम खपत वाली सिंचाई तकनीक माइक्रो-इरिगेशन अपनाने में उत्तर प्रदेश अन्य राज्यों की तुलना में काफी पीछे है। जबकि कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों ने सिंचाई दक्षता में महत्वपूर्ण प्रगति की है।
अगस्त 2024 तक कर्नाटक 1.68 मिलियन हेक्टेयर कृषि भूमि के साथ देश का सबसे बड़ा सूक्ष्म-सिंचाई उपयोगकर्ता बनकर उभरा है— जो देश की कुल कृषि भूमि का 22 प्रतिशत है। 11 प्रतिशत खेतों में सूक्ष्म-सिंचाई तकनीक के इस्तेमाल के साथ महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर है। उत्तर प्रदेश में केवल चार प्रतिशत खेतों में ही सूक्ष्म-सिंचाई का इस्तेमाल होता है।
तीन प्रमुख भूजल दोहन करने वाले राज्य—उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब ने सूक्ष्म-सिंचाई प्रथाओं को अपनाने में बहुत कम प्रगति की है। डेटा के विश्लेषण से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में केवल 100 खेतों में से दो खेतों में ही सूक्ष्म-सिंचाई की सुविधा है, जबकि मध्य प्रदेश में चार खेतों में यह पद्धति अपनाई जा रही है।
राजस्थान में थोड़ी बेहतर प्रगति देखने को मिली है, जहां 100 खेतों में से 11 खेतों में सूक्ष्म-सिंचाई का उपयोग हो रहा है, लेकिन पंजाब में इसे नाम मात्र ही अपनाया गया है।
उत्तर प्रदेश के शीर्ष भूजल दोहन करने वाले जिलों के किसानों ने सूक्ष्म-सिंचाई प्रथाओं को अपनाने में बहुत कम रुचि दिखाई है। गाजियाबाद में केवल 100 खेतों में से चार खेतों में सूक्ष्म-सिंचाई की सुविधा है। जबकि गौतम बुद्ध नगर, फिरोजाबाद, शामली और सहारनपुर में 100 में से केवल दो खेतों में ही सूक्ष्म-सिंचाई का इस्तेमाल किया जा रहा है।
सहारनपुर के बेहट तहसील के अबाबकरपुर गांव के किसान, 80 वर्षीय किसान कामेश्वर प्रसाद शर्मा, माइक्रो-इरिगेशन अपनाने वाले गिने-चुने किसानों में से एक हैं। लुधियाना के पंजाब विश्वविद्यालय में कृषि वैज्ञानिक रह चुके शर्मा ने दिसंबर 2022 में अपने लगभग छह हेक्टेयर कृषि भूमि में सूक्ष्म-सिंचाई अपनाई।
वह बताते हैं, "मैं सिंचाई के तीन तरीकों का इस्तेमाल करता हूं—बाढ़ सिंचाई ( फ्लड इरिगेशन), भूमिगत पाइप प्रणाली, और सूक्ष्म-सिंचाई। तीनों ही तरीके भूजल पर निर्भर करते हैं।"
"सिंचाई के लिए पहला बोरवेल मैंने करीब 150 फीट पर खुदवाया था। जब इसने पानी देना बंद कर दिया, तो वर्ष 2021 में 200 फीट पर दूसरा बोरवेल खुदवाया। दिसंबर 2022 में दूसरे बोरवेल पर ड्रिप और स्प्रिंकलर सिस्टम लगाने से बड़ा फर्क आया।
मैं गेहूं और सब्जियां उगाता हूं। साथ ही आम के बगीचे भी हैं। माइक्रो इरिगेशन से पिछले दो वर्षों में मेरे खेतों में भूजल स्तर नहीं घटा है। हालांकि, जैसे-जैसे मेरे बाग बढ़ेंगे, मुझे जल्द ही बाढ़ सिंचाई की जरूरत होगी। और 200 फीट का बोरवेल इसके लिए पर्याप्त नहीं होगा। इसलिए मैं 300 फीट पर तीसरा बोरवेल खुदवाने की योजना बना रहा हूं।"
केपी शर्मा का अनुभव है कि माइक्रो इरिगेशन अपनाने से पानी की बचत और फसल की उत्पादकता दोनों बढ़ी है। वह उत्साह से बताते हैं, "पहले फ्लड इरिगेशन में एक बीघा (1 बीघा = 0.25 हेक्टेयर) में दो क्विंटल गेहूं उत्पादन होता था।
माइक्रो इरीगेशन तकनीक से ये बढ़कर तीन क्विंटल प्रति बीघा हो गया है। ये सीधा फायदा है। साथ ही भूजल स्तर भी नहीं घटा। इस तकनीक से मैंने 30 से 40 प्रतिशत पानी की बचत की है। पानी खींचने के लिए मोटर कम चलाने से बिजली की बचत भी हुई।"
कुशल सिंचाई प्रबंधन के उद्देश्य से उत्तर प्रदेश का बागवानी विभाग 'प्रति बूँद अधिक फसल' योजना के तहत सूक्ष्म-सिंचाई प्रणालियाँ स्थापित कर रहा है।
सहारनपुर के जिला उद्यान अधिकारी गमपाल सिंह बताते हैं, "किसान आपस में एक-दूसरे को देखकर सूक्ष्म-सिंचाई अपना रहे हैं। जब एक किसान को इसका लाभ होता है, तो उसका पड़ोसी भी आकर्षित होता है। हमारी सबसे बड़ी चुनौती किसानों के बीच इसके लाभ के बारे में जागरूकता फैलाना और उन्हें तकनीकी रूप से सक्षम बनाना है। अगर सूक्ष्म-सिंचाई को पूरी तरह से लागू किया जाए तो गिरते भूजल स्तर में सुधार शुरू हो जाएगा।"
नवंबर 2024 तक, सहारनपुर के कुल 3,63,791 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र में से केवल 1,500 हेक्टेयर में सूक्ष्म-सिंचाई तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा था। उद्यान अधिकारी का कहना है कि इस वित्तीय वर्ष का लक्ष्य 1,840 हेक्टेयर भूमि को सूक्ष्म-सिंचाई के तहत लाना है।
वहीं, उत्तर प्रदेश के बागवानी विभाग के निदेशक विजय बहादुर द्विवेदी कहते हैं कि किसानों में माइक्रो इरिगेशन को लेकर दिलचस्पी तेजी से बढ़ी है। वह बताते हैं, “राज्य ने वित्त वर्ष 2024-25 में माइक्रो इरीगेशन के तहत किसानों के पंजीकरण के लक्ष्य को पार कर लिया है।
4 लाख से अधिक किसान इसके लिए पंजीकरण करा चुके हैं। जो कि निर्धारित 1,36,000 के लक्ष्य से कहीं अधिक है। जिसमें से 1,00,000 माइक्रो इरिगेशन सिस्टम पहले ही स्थापित किए जा चुके हैं। अब किसान जल की बचत और उत्पादकता में सुधार जैसे फायदों को समझने लगे हैं।”
वह बताते हैं, “चूंकि किसानों की दिलचस्पी इस योजना में बढ़ी है, हम केंद्र सरकार से इसका लक्ष्य बढ़ाने का अनुरोध करेंगे, क्योंकि यह सब्सिडी बजट से जुड़ा हुआ है।”
मिलेट्स से उम्मीद
भूजल संकट से निपटने का एक और समाधान है जो बहुत मुश्किल नहीं। लेकिन ये खेतों में पानी की खपत को बहुत कम कर सकता है। जैसे-जैसे धान और गन्ने की खेती बढ़ती गई, किसान जौ-बाजरा, मंडुवा जैसे मोटे अनाजों को भूलते चले गए और इन्हें उगाना बेहद कम कर दिया। हालांकि धान के खेतों में मंडुवे और बाजरा की फसल को लहलहाते देखने की राह में कड़ी चुनौतियां हैं।
1 किलो चावल उगाने के लिए 649 लीटर पानी की जरूरत होती है, जबकि इतना बाजरा मात्र 5 लीटर पानी में उगाया जा सकता है। अगर उत्तर प्रदेश के किसान अपने धान के सिंचित खेतों के केवल 10 प्रतिशत हिस्से में बाजरे की खेती करें तो राज्य लगभग 993 मिलियन घन मीटर पानी की बचत कर सकता है। ये पानी लखनऊ जिले की घरेलू पानी की जरूरतों को वर्तमान दर पर अगले 75 वर्षों तक पूरा करने के लिए पर्याप्त होगा।
ये अनुमान दोनों फसलों के ब्लू वॉटर फुटप्रिंट (ताजे पानी की खपत) से जुड़े आंकड़ों के विस्तृत आकलन पर आधारित है। जिसमें सिंचाई क्षेत्र, उत्पादन मात्रा और प्रति हेक्टेयर पानी के उपयोग जैसे तथ्यों को ध्यान में रखा गया है। 10 प्रतिशत धान के खेतों को बाजरे में बदलने से होने वाले पानी की बचत का अनुमान इस संभावित बदलाव को मॉडल करके निकाला गया है।
हालांकि, किसानों जैसे सोमपाल पुंडीर को फसलों में विविधता लाने में कई चुनौतियाँ आ रही हैं। वे बताते हैं, "पिछले साल, हममें से कुछ किसानों ने उड़द और ज्वार उगाने की कोशिश की, लेकिन नीलगाय और खुले पशुओं ने हमारे खेतों पर हमला कर दिया। हमें अपने खेतों को इन जानवरों से बचाने के लिए दिन-रात पहरा देना पड़ा।
वैसे तो मोटे अनाज की पैदावार कम होती है, लेकिन उनकी कीमत अच्छी मिलती है। पशुओं के नुकसान के बाद हमने यह तय किया कि धान, गेहूं और गन्ना उगाना ही सुरक्षित है। अगर सरकार पशुओं द्वारा फसल को होने वाले नुकसान पर मुआवजा या खेतों की चारदीवारी के लिए सहायता करे, तो हम फिर से बाजरे जैसी फसलें उगाने का प्रयास कर सकते हैं।"
एसपी सिंह और आरएस सिन्हा जैसे विशेषज्ञों का मानना है कि किसानों को पानी की अधिक खपत वाली फसल से शिफ्ट करने के लिए आर्थिक और संरचनात्मक प्रोत्साहन देने की जरूरत है। इसके बिना बदलाव संभव नहीं। वहीं, घटते भूजल भंडार को बचाने और संरक्षित करने के लिए नवाचारी समाधान और लक्षित नीतियों की जरूरत है।
भूमिगत जल संसाधनों ने किसानों को धान जैसी जल-गहन फसलें उगाने में मदद दी। सोमपाल पुंडीर डरते हैं, "अगर इसी तरह भूजल का अंधाधुंध इस्तेमाल जारी रहा तो धरती सूख जाएगी। और किसानों को अपने घरों को छोड़कर शहरों की ओर मजदूरी के लिए पलायन करना पड़ेगा।"
(Reporting for this story was supported by the Environmental Data Journalism Academy- a program of Internews’ Earth Journalism Network and Thibi)