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अंग्रेजों ने बर्बाद कर दी तालाबों के रखरखाव की व्यवस्था

कुडिमरमथ एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें तालाबों के रखरखाव के लिए श्रमदान किया जाता था, लेकिन अंग्रेजों की नीतियों ने यह व्यवस्था बर्बाद कर दी

DTE Staff

तमिलनाडु में तालाबों के मरम्मत और रखरखाव की पारंपरिक समुदाय आधारित व्यवस्था कुडिमरमथ के पतन को एक अध्ययन ने रैयतवाड़ी बंदोबस्ती से जोड़ा है। दूसरे अध्ययन के मुताबिक, यह ग्रामीण समुदायों और अप्रत्यक्ष जमींदारी की प्रथा की मजबूती से जुड़ा है। एक और सिद्धांत यह है कि सिंचाई की देसी प्रणालियों का रखरखाव सामुदायिक सहभागिता से नहीं, बल्कि दादाओं की वजह से होता था। एक बार जब इन दादाओं को औपनिवेशिक शासन ने हटा दिया तो इस काम में उनकी दिलचस्पी खत्म हो गई।

कुडिमरमथ प्रणाली के विस्तृत अध्ययन “कुडिमरमथ कंट्रोवर्सी इन मद्रास प्रेसिडेंसी” के लेखक एस रामनाथन ने लिखा है कि 18वीं सदी के आखिर और 19वीं सदी के शुरू में मद्रास प्रेसिडेंसी में तीन अलग तरह के भूमि स्वामित्व प्रचलित थे- स्थायी पट्टा, रैयतवाड़ी बंदोबस्ती और ग्राम काश्तकारी। स्थायी पट्टा और ग्राम काश्तकारी दोनों के तहत काश्तकार से सिंचाई प्रणालियों के रखरखाव की अपेक्षा की जाती थी। लेकिन रैयतवाड़ी काश्तकारी में रैयतों और सरकार के बीच अलग-अलग बंदोबस्ती होती थी। इस बंदोबस्ती ने जमीन और दूसरे संसाधनों पर से समुदाय के नियंत्रण को धीरे-धीरे समाप्त कर दिया। तालाब जैसे साझे संसाधन सरकार के अधीन हो गए। 1865 तक औपनिवेशिक सरकार कई तालाबों को मालिक बन गई।

जिला कलेक्टरों को सहायता के लिए तालाब मरम्मत अधीक्षक का पहला कार्यालय 19वीं सदी के शुरू में स्थापित किया गया। एक और कार्यालय 1809 में बनाया गया जिसे 10 वर्ष बाद समाप्त कर दिया गया। 1822 में रैयतवाड़ी काश्तकारी लागू होने से सरकार ने सिविल इंजीनियरिग विभाग का काफी विस्तार किया और 1825 में इसे राजस्व बोर्ड के अधीन कर दिया। 1836 में लोक निर्माण विभाग बनाया गया, लेकिन इसमें सिविल इंजीनियरों की भूमिका प्रत्येक डिवीजन के विशाल क्षेत्र को देखते हुए कम ही थी। इसलिए 1838 में डिवीजनों को संख्या चार से बढ़ाकर आठ कर दी गई और सबको सिविल इंजीनियर के अधीन कर दिया गया। 1850 तक, 11 अस्थायी अफसरों के अलावा 24 कमीशंड अफसर तैनात कर दिए गए। सिविल इंजीनियर अनुमान का ब्यौरा तैयार करते थे और काम राजस्व विभाग करवाता था। ताल्लुक में तहसीलदार को सहायता के लिए एक मिस्त्री होता था, जो सभी तालाबों और नहरों की स्थिति पर नजर रखता था। यह मरम्मत आदि का काम भी करवाता था।

हर जिले में 1840 के दशक में मरम्मत अधीक्षक का नया पद बनाया गया जो सीधे कलेक्टर की देखरेख में संपन्न हुए कामों की जांच करता था और अक्सर बड़े और अहम काम करवाता था। लेकिन सिविल इंजीनियरिंग और राजस्व विभाग दोनों के पास वह तामझाम नहीं था जो प्रेसिडेंसी के इतने ज्यादा तालाबों का रखरखाव कर सके। जो व्यवस्था थी वह नहरों के रखरखाव पर ज्यादा ध्यान देती थी, क्योंकि ये तालाबों से कहीं ज्यादा राजस्व देती थी। लेकिन रैयतवाड़ी बंदोबस्ती की विशद प्रक्रिया के कारण तालाबों की बदहाली और उनके रखरखाव की जरूरत के प्रति जागरुकता बढ़ी।

1850 के बाद औपनिवेशिक अधिकारी मद्रास प्रेसिडेंसी में सिंचाई के स्रोतों की स्थिति के बारे में ज्यादा अवगत हुए। रैयतवाड़ी बंदोबस्ती की विशद प्रक्रिया के कारण तालाबों की सूची और उनकी पृष्ठभूमि तैयार करने का काम शुरू हुआ जो 1880 के दशक तक चला। सिंचाई स्रोतों के पतन पर पहली रिपोर्ट 1837 में आर्थर कॉटन ने तैयार की थी। उन्होंने लिखा, “देश के लगभग सभी तालाब, तंजौर को छोड़ लगभग सभी नहरें और दूसरे जिलों की बड़ी नहरें, पहले के मुकाबले ज्यादा सूखी जमीन और कई जिलों से कुछ वर्ष पहले के मुक़ाबले आज हो रही राजस्व आय मेरी मान्यता को पुष्ट करती है।”

लोक निर्माण पर 1852 में बने आयोग ने निष्कर्ष दिया, “कुछ अपवादों को छोड़ देश के सभी निर्माण अपेक्षित स्तर से नीचे हैं।”

1869 में बने आयोग की रिपोर्ट में कहा गया, “लघु सिंचाई प्रणालियों को जिस हाल में होना चाहिए उस हाल में नहीं है।” 1870 तक और उसके बाद भी लघु सिंचाई प्रणालियों के पतन का अंदाज हरेक स्रोत से खेती और राजस्व आय के पिछले वर्ष के आंकड़े और चालू वर्ष के आंकड़े की तुलना से लगाया जा सकता है। पतन का ठीक पता 1880 के दशक में लगा जब हरेक तालाब की भौतिक विशेषताओं का ब्यौरा तैयार किया गया। लोक निर्माण पर 1852 में गठित आयोग के मुताबिक, पतन का मुख्य असर चिनाई आदि पर हुआ था।

यद्यपि तालाबों की आपूर्ति नहर जाम हो गई थी, तालाबों का किनारा काफी नीचा था या कमजोर था। 1869 तक मिट्टी के निर्माण में भारी पतन का पता चला। इंजीनियरों और राजस्व अधिकारियों ने सभी जिलों के तालाबों में मिट्ठी भरने की खबर दी जिसके कारण तालाबों की क्षमता घटी थी और बांध भी टूटे थे। 1852 की रिपोर्ट में वितरण नहरों की स्थिति का कोई उल्लेख नहीं था, लेकिन 1869 तक अधिकारी यह मानने लगे थे कि ग्रामीण समुदाय उनका अच्छी तरह रखरखाव कर रहे थे। 1852 की रिपोर्ट में कहा गया है कि देसी शासकों के राज में सिंचित भूमि के मालिक सिंचाई साधनों के रखरखाव के लिए विशेष कर ‘इरी मेराह’ देते थे। भूमि राजस्व के अलावा यह विशेष कोष सिंचाई साधनों के रखरखाव के लिए ही होता था।

औपनिवेशक राज में इस कर को भूमि राजस्व विभाग में मिला दिया गया और सरकार सिंचाई साधनों का रखरखाव नहीं करती थी। इस मद पर खर्च की जाने वाली वार्षिक रकम को इतना कम माना गया कि उससे किसी ठोस काम के होने की उम्मीद नहीं की गई।

मरम्मत आदि के संदर्भ में 1852 की रिपोर्ट ने सभी देसी चीजों में खोट बताई। राजस्व अधिकारियों को विज्ञान से कोई सरोकार नहीं था और काम के प्रति न तो उनमें कोई सम्मान था और न ही कोई जानकारी अथवा व्यावहारिक अनुभव। वे भारी घपले भी करते थे। इसे राजस्व विभाग की सहायता के लिए सिविल इंजीनियरिंग विभाग बनाकर ठीक किया गया। वास्तव में रिपोर्ट में सुझाव दिया गया कि सिविल इंजीनियरिग विभाग ने सिंचाई प्रणालियों की मजबूती को ही बदल दिया। उनमें अगर बाद में विज्ञान का प्रयोग न किया गया तो जिन प्रणालियों को हम उपयोग में देख रहे हैं वे अनुपयोगी हो चुकी होंगी। लेकिन रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि सिविल इंजीनियरिंग विभाग का निरंतर विस्तार किया जाना चाहिए और अलग लोक निर्माण विभाग बनाया जाना चाहिए।

कुडिमरमथ शब्द सरकारी प्रयोग में 1870 के आसपास आया। यद्यपि कर्नल मुनरो ने 1803 में ही समुदाय द्वारा “प्रथा के तौर पर” कुछ मरम्मत आदि किए जाने का जिक्र किया था। 1858 में सरकार ने मद्रास कम्पलसरी लेबर एक्ट बनाया ताकि बाढ़ के समय टूट-फूट हो तो ग्रामीण समुदाय से कानूनन अनिवार्य श्रमदान कराया जा सके। एक्ट को धारा 6 “रस्मी श्रमदान” से संबंधित थी। इसमें कुडिरमथ शब्द का उपयोग नहीं किया गया था। 1869 में ही राजस्व अधिकारियों ने लिखा, “रैयतों ने छोटी-मोटी मरम्मत का अपना उतना भी फर्ज पूरा नहीं किया जितना रिवाज के मुताबिक करना चाहिए था।”

कुडिमरमथ के पतन के कारण अलग-अलग विभाग के अधिकारियों ने अलग-अलग बताए। लोक निर्माण विभाग के इंजीनियरों की शिकायत थी कि 1858 के कानून के अनुसार जिन राजस्व अधिकारियों को कुडिमरमथ करवानी चाहिए थी उन्होंने शायद ही कभी मदद की बल्कि विभाग बेगारों को लाने की कोशिश करता तो वे उसे रोकते। राजस्व अधिकारियों का मानना था कि लोक निर्माण विभाग बनाए जाने से कुडिमरमथ का पतन हुआ। एक कमिश्नर का कहना था कि समुदाय कुडिमरमथ को फिर से शुरू करने को तैयार थे, बशर्ते सिंचाई के साधन वापस राजस्व विभाग के अधीन किए जाएं। उसके मुताबिक, लोक निर्माण विभाग की केंद्रीयकृत व्यवस्था और “लोगों की पारंपरिक भावनाओं और रुझानों” के प्रति उसका परहेज कुडिमरमथ जैसी लोक संस्थाओं के लिए घातक था, जो “ग्राम प्रधानों और भूपतियों तथा देश की भूमि एजेंसी के प्रति छोटे रैयतों की विशाल आबादी की सद्भावना और प्रशासनिक जुड़ाव पर” निर्भर थी।

राजस्व अधिकारियों के मुताबिक, लोक निर्माण विभाग मरम्मत के काम पेशेवर ठेकेदारों को कम से कम एक काम देता था। इस तथ्य के बावजूद कि उत्तरी अर्काट जिले के एक गांव के मणियाकर ने विभाग से अनुरोध किया था कि तालाब और नहरों की वार्षिक सफाई का ठेका उसे दिया जाए, यह सफाई ठीक समय पर नहीं की जाती थी। 1860 के दशक के पूर्वार्द्ध में कुडिमरमथ को सरकारी दस्तावेजों में मृत या पतनोन्मुख मान लिया गया।

1869 में बनाए गए आयोग ने सरकारी अधिकारियों को प्रश्नावली भेजी और पूछा कि क्या मुफ्त श्रमदान का रिवाज है। जवाब यह मिला कि मुक्त श्रमदान तालाब के बांध की मरम्मत जैसे कामों में करवाया जाता था, जबकि नहरों की सफाई जैसे कामों में स्वयंसेवा की जाती थी। बेलारी जिले के कलेक्टर ने एक उदाहरण बताया कि लोक निर्माण विभाग ने एक तालाब की नहरों-नालों आदि की मरम्मत आदि पर हुआ खर्च किसानों से जबरन वसूला, क्योंकि नहर की आटी पर गांववाले बैलगाड़ी ले जाते थे। एक अधिकारी ने उदाहरण दिया कि कुंभम तालाब को मुख्य बड़ी नहर की सफाई पहले सरकार करवाती थी, मगर 1864 में उसे रस्मी श्रमदान के अधीन डाल दिया गया। लोक निर्माण विभाग ने ऐसी मनमानियों को और बढ़ाया। उसने 20 रुपए से कम मूल्य के काम को सामुदायिक काम के दर्ज में डाल दिया। एक अधिकारी ने बताया कि यह भारी मनमानी थी और कुडिमरमथ के तहत न आने वाले कार्यों को भी जबरन सामुदायिक श्रम का कार्य बना दिया गया।

समुदाय से क्या काम करवाए जाते थे या किन कामों की उम्मीद को जाती थी? 1861 में सरकार ने आठ ऐसे कार्य गिनाए थे जिन्हें राजस्व बोर्ड के आदेश में शामिल किया गया था। ये काम थे तालाब के बांध और नहरों के गड्ढों को भरना, तालाब के मुंह की सफाई करना, छोटी और शाखा नहरों की सफाई और मिट्टी संबंधी काम करना, नहरों से मिट्टी साफ करना, आपूर्ति नहरों की मरम्मत, बरसात में बांधों पर नजर रखना, जहां दरार हो वहां गोल बांध बनाना और खेती के मौसम में तालाब को मजबूत करना।

कुछ अधिकारियों का कहना था कि केवल बरसात या नदी पर निर्भर रहने वाले गांवों पर कुडिमरमथ वाली शर्तें लागू नहीं की जा सकतीं। मसलन तिरुचिरापल्ली में केवल चार तालाब समुदाय की जानकारी में थे। तंजौर जिले में समुदाय का योगदान काफी स्पष्ट था। लोक निर्माण के गठन के बाद पांच में से चार तालाब उसके अधीन किए गए। 1869 के आयोग ने जिले के चार मिरासीदारों से जाना था कि वे किस तरह के 14 कार्यों को खुद करते हैं। उनमें से तीन काम गांव के बाहर होते थे।

1869 के आयोग में अधिकारियों के बीच बड़ी बहस यह चली कि स्थायी आदेश में उल्लेखित पहले तीन काम कुडिमरमथ में आते हैं या नहीं। उन्होंने माना कि समुदाय नहरों का तो ठीक से रखरखाव कर रहे थे, मगर तालाबों का तब तक नहीं जब तक जबरन कुडिमरमथ नहीं कराया जाता था। एक अधिकारी का कहना था कि समुदायों से नहरों के साथ-साथ तालाब के रखरखाव की अपेक्षा करना ठीक नहीं है। दो अन्य अधिकारियों का कहना था कि समुदाय तालाब के रखरखाव से अक्सर मना कर देते हैं, क्योकि उनका मानना था कि तालाब सरकार के अधीन हैं। मसलन, तिरुनेलवेली जिले में कुल पैदावार में से प्रति कोटाह दो से पांच मरकल धान इरी मेराह के लिए दिया जाता था और चूंकि इसे राजस्व मांग में जोड़ दिया गया, इसलिए यह मान लिया गया कि तालाब के रखरखाव की जिम्मेदारी सरकार की है।

तिरुनेलवेली के एक राजस्व अधिकारी ने राजस्व मांग के खातों की जांच में पाया कि इसमें इरी मेराह भी शामिल है, इसलिए स्पष्ट है कि रैयत कुडिमरमथ की उनसे अपेक्षा के बदले भुगतान कर रहे हैं और यह पट्टे की आय में दर्ज किया जा रहा है। इसलिए इस जिले पर 1858 के कानून के अनुच्छेद एक की धारा 6 लागू नहीं होती, क्योंकि कुडिमरमथ की एवज में कर वर्तमान पर निर्धारण में शामिल कर लिया गया है और उसे पूरा वसूला जा रहा है। इसलिए रैयत तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त हैं।”

एक अधिकारी ने कहा कि वह “ताल्लुके के कई बुजुर्गों की बातों से सहमत है कि मुगलों के राज में भी मुफ्त मजदूरी का कानून नहीं लागू किया गया था, सिवाय छोटी नहरों और बांध को दरारों की मरम्मत आदि के कामों के। एक मणियाकार का कहना है कि तालाबों को आपूर्ति नहरों के रखरखाव या बड़ी मरम्मत के काम करने की कोई जवाबदेही उन पर नहीं है। उनकी जिम्मेदारी तालाब की कभी-कभार छोटी-मोटी मरम्मत और बाढ़ के दौरान तालाब पर निगरानी रखने की है। तंजौर के कलेक्टर ने बताया कि तालाबों की मरम्मत और दरारों को बंद करना कई जिलों के कुडिमरमथ के अंतर्गत आता था, मगर तंजौर में इन्हें “सरकारी मरम्मत” माना जाता था। दरारों को पाटने के बारे में मुनरो ने 1803 में एक दिलचस्प बात कही थी- “फसल जब काफी तैयार हो जाती है और तालाब में उफान आता है तो रैयत अपनी पुरानी मेहनत बचाने की खातिर, जो दरार तुरंत न पाटी जाने की स्थिति में बेकार चली जाएगी, मिल जुलकर उसे ठीक करते हैं। मगर फसल बुआई से पहले ऐसा हो तो वे कोई हरकत नहीं करते और आमिलदार से उसे सरकारी खर्च पर ठीक करने का अनुरोध करते हैं।”

दो कलक्टरों ने मरम्मत का खर्च तब समुदाय पर डालने के औचित्य पर सवाल उठाया, जबकि सरकार सिंचित फसल पर ज्यादा कर ले रही थी और सिंचाई प्रणालियों से लाभ उठा रही थी। एक कलेक्टर ने कहा, “किसी को यह बताना कि पानी उसे पैसा देने पर मिलेगा, उससे कीमत वसूलना और जिस पानी के लिए उसने पैसा दिया है उसे लाने के लिए उसे नहर खोदने पर बाध्य करना और यह कहना कि उसकी मजदूरी निशुल्क है, अन्याय ही है।”

1880 के अकाल आयोग ने भी निष्कर्ष दिया कि कुडिमरमथ को पुनर्जीवित करने के पीछे का स्वार्थ अच्छी तरह प्रमाणित हो चुका है। आयोग के मुताबिक तालाबों की सुरक्षा और छोटी-मोटी मरम्मत रैयतों की जिम्मेदारी है, क्योंकि इंजीनियरों को कुडिमरमथ कराने का अधिकार नहीं है। आयोग के मुताबिक, कुडिमरमथ कराने से संबंधित 1838 का कानून अस्पष्ट था। आयोग ने कुडिमरमथ पर श्रम के बदले कर लगाने का समर्थन नहीं किया, क्योंकि उसका मानना था कि जरूरत पैसे की नहीं, श्रम की है।

दो सौ एकड़ से ज्यादा की सिंचाई करने वाले सभी तालाबों को सरकार की जिम्मेदारी बताने का पहला फैसला आयोग ने किया। उसके अनुसार, इनकी मरम्मत आदि लोक निर्माण विभाग से कराई जानी चाहिए और बाकी प्रणालियां समुदाय के जिम्मे की जानी चाहिए। मदुरै जिले के पेरयाकुलम माइनर बेसिन के रैयतों ने, जहां इस फैसले को पहली बार लागू किया गया, वहीं पेश की गई शर्तों पर तालाबों का जिम्मा लेने से मना कर दिया और प्रस्तावित वित्तीय सहायता में गड़बडी और सरकार की ओर से कोई रियायत न दिए जाने की शिकायत की।

इस बीच, प्रेसिडेंसी में कुडिमरमथ को पुनर्जीवित करने के लिए अकाल आयोग ने जो विधेयक सुझाया था, उसे 1884 में इस आधार पर रद्द कर दिया गया कि यह दमनकारी और प्रतिगामी है। जुलाई 1889 में मद्रास सरकार ने लघु प्रणालियों को रैयतों को सौंपने की योजना भी रद्द कर दी। उसने यह भी घोषणा की कि सरकार तालाबों के रखरखाव का काम यथासंभव कम खर्च में करने का प्रबंध करेगी। लेकिन भारत सरकार ने उन सिचाई प्रणालियों पर पैसा खर्च करना बेकार माना जिन्हें ग्रामीणों ने देखने से मना कर दिया था और जिन्हें लोक निर्माण विभाग भी ठीक-ठाक नहीं रख पाया था। उसने 50 एकड़ से कम सिंचाई करने वाले तालाबों को रैयतों को सौंपने का सुझाव दिया, जबकि बाकी के रखरखाव की जिम्मेदारी लोक निर्माण विभाग पर डाली। लेकिन करीब 19,000 तालाबों को इस तरह छोड़ देने के सुझाव का राजस्व बोर्ड ने भारी विरोध किया। मद्रास सरकार इस पर सहमत हुई और सभी तालाब सरकार के अधीन रहे।

1901 के सिंचाई आयोग ने किसी तरह यह मान लिया कि कुडिमरमथ को पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता। उसने सुझाव दिया कि अगर किसी क्षेत्र में कुडिमरमथ की प्रथा मर चुकी है या समुदाय ऐसा चाहता है तो श्रम के बदले में कर लगाया जा सकता है और उसका प्रशासन पंचायत पर छोड़ा जा सकता है। फिर भी उसने कुडिमरमथ को पुनर्जीवित करने की जरूरत दोहराई। इसके लिए जरूरी हो तो कानून भी बनाया जाए। सिंचाई आयोग की सिफारिशों के आधार पर कुडिमरमथ को लागू करने या कर लगाने के लिए कानून बनाने के कई प्रयास किए गए। लेकिन 1906, 1922, 1924, 1928 और 1954-56 के सिंचाई विधेयक नाकाम साबित हुए। 1917 में मद्रास, मालाबार, दक्षिण कनारा, नीलगिरी और आंजेंगो को छोड़ बाकी सभी जिलों के कलेक्टरों से कुडिरमथ को स्थिति के बारे में रिपोर्ट देने को कहा गया। उपरोक्त जिलों में यह चलन नहीं था। यह पाया गया कि 21 में से नौ जिलों में यह व्यवस्था संतोषजनक ढंग से काम कर रही है।

चेंगलपटूटू जिले में यह प्रथा पहले से थी, पर यहां 1858 के कानून को लागू करने का प्रतिरोध और इस काम से बचने की प्रवृत्ति साफ दिख रही थी। दक्षिण अर्काट के किसान मानते थे कि अब सारी जिम्मेदारी सरकार की है। कोयंबटूर के किसान इस प्रणाली को लेकर वहुत नाराज भी नहीं थे तो उनके मन में उपेक्षा भाव जरूर था। 1917 की रिपोर्ट बताती है कि प्रायः सभी जिलों में खेती तक पानी पहुंचाने वाली नालियों की सफाई तो किसान स्वेच्छा से करते थे, पर झाड़-फूस निकालने और मरम्मत का काम जोर देकर ही कराना पड़ता था ।

1946 में अधिक अन्न उपजाओ अभियान के तहत सरकार ने आदेश जारी किया कि वह अपने खर्च पर कुडिमरमथ करा सकती है, पर वहीं जहां सिंचाई व्यवस्था काफी खराब हो गई है, और जहां इनको सुधारने से अन्न की पैदावार काफी बढ़ने की उम्मीद है। तीन साल बाद यह आदेश आया कि चूंकि रैयत यह काम मन से नहीं कर रहे हैं, इसलिए उचित यही है कि सरकार धीरे- धीरे यह काम अपने खर्च पर कराने लगे और रैयतों को इस बोझ से मुक्ति दे दी जाए। कुडिमरमथ के खर्च की वसूली के लिए अलग से उपकर लिया जा सकता है।

1869 में उत्तरी अर्काट और तिरुचिरापल्ली जिलों में कोरांबु (कच्चे बांध) बनाना प्रमुख काम था। कावेरी, कोलेरुन और अमरावती नदियों पर पक्के अनिकट बनाने की जगह ऐसे बांध खूब बनाए गए। 1896 में अकेले कावेरी पर ऐसे 18 बांध डाले गए। आय्यण बांध से करीब 66 गांवों के खेतों की सिंचाई होती थी, जबकि पेरावला बांध से करीब 97 गांवों की। इनसे नहरें निकालने के काम में अकेले लालगुडी राव से 1,000 लोगों ने काम किया जिनमें से 125 को स्थायी तौर पर इसी के लिए रख लिया गया। 89 गांवों को सींचने वाली वाय्याकोंडन नहर के लिए भी 1,000 मजदूर भेजे गए। इनमें से 326 को स्थायी तौर पर रख लिया गया, जिनमें से 39 गोताखोर थे।

1857 के कानून के आधार पर लोक निर्माण विभाग ने उपकर वसूले, पर इनसे सिर्फ व्यवस्था का खर्च ही चलता था और स्थानीय समुदायों को अभी भी श्रमदान करना होता था। तिरुचिरापल्ली जिले के कुछ इलाकों से सन 1900 तक इस उपकर की वसूली की गई। पर उस साल सरकार ने कोरांबु के रखरखाव के लिए 25,000 रुपए का अनुदान दिया और लगान वसूली बढ़ने का अनुमान होने से इस उपकर की वसूली रोक दी गई। सरकार ने घोषणा कर दी कि अब से कावेरी की बड़ी नहरों के लिए कुडिमरमथ नहीं चलेगा और रैयतों को सिर्फ छोटी नहरों और खेती तक पानी लाने वाली नालियों का रखरखाव करना होगा।

एक जिले में 1869 में मुख्य नहरों में कुडिमरमथ का काम दबाव में चला था, जबकि सात अन्य में जैसे-तैसे चला था। लेकिन इस काम से संबंधित 1937 की सूचना सिर्फ एक जिले वाली ही है। कहा जाता है कि 1847 में मुख्य नहरों के लिए श्रमदान हुआ था, पर गांव के अधिकारियों की देखरेख में ही। 1869 में अनेक अधिकारियों ने माना था कि वैसे तो यह काम सस्कार का है पर अक्सर स्थानीय समुदाय के मत्थे डाल दिया जाता है। जैसे कर्नूल जिले के कुंभम तालाब को मुख्य नहरों का रखरखाव ग्रामीण समुदाय के मत्थे मढ़ दिया गया और ऐसा फैसला करने से पहले कुडिमरमथ की मनमानी व्याख्या की गई। दूसरी तरफ उत्तर अर्काट में नदियों से निकलने वाली मुख्य नहरों की सफाई का भार हर गांव के बटाईदारों के मत्थे डाल दिया गया।

1869 में तंजौर जिले में मुख्य नहरों की सफाई गांव के लोगों ने ही की पर अधिकारियों की देखरेख में और सरकार ने लगान में कमी करके इसका खर्च चुकाया। 1937 को रिपोर्ट में, इस काम के लिए स्थानीय लोगों को किसी किस्म का भुगतान देने का उल्लेख नहीं है। अधिकारियों ने इस काम की पहल की हो, इसका भी उल्लेख नहीं है। गाद निकालने का काम अनेक गायों के मिरासीदारों ने कराया था। वही दिन और काम का बंटवारा तय करते थे। यह सफाई हर 10 से 15 वर्ष में होनी चाहिए और इसमें नहर का लाभ लेने वाले हर गांव के लोगों को भागीदारी करनी चाहिए। पर रिपोर्ट के अनुसार अक्सर सिर्फ नहर के आखिरी छोर पर रहने वाले ही इस काम के लिए आगे आते थे, क्योंकि गाद भरने से उनके खेतों तक पानी नहीं जा पाता था।

दिलचस्प तथ्य है कि 1869 की तुलना में 1917 में दस जिलों में आपूर्ति नहरों की सफाई श्रमदान से की जाने लगी थी। पहले ऐसा सिर्फ चार जिलों में होता था। वितरण नहरों और खेतों की नालियों की सफाई तो स्वैच्छिक ढंरा से किसान करते ही थे। उत्तर अर्काट जिले के कावेरी पाक गांव में तालाब के फाटक से लेकर खेती तक की नालियों की सफाई के लिए करीब 3,000 मजदूरों की जरूरत होती थी। इस तालाब पर आश्रित 22 गांवों के लोग अपने पाडियलों को इस काम के लिए भेजा करते थे।

1869 में उत्तर अर्काट और तिरुनेलवेली जिलों में बरसात के समय बांधों की देखरेख किसान खुद करते थे। लेकिन 1917 तक उत्तर अर्काट, गोदावरी, अनंतपुर, नेल्लोर और रामनाड-अर्थात पांच जिलों में यह काम शुरू हो गया। कावेरी पाक के बांधों को 2-2 गांव के हिसाब से बांध दिया गया था और हर भाग को निगरानी के लिए उस गांव के लोग अपने टोटी भेजते थे। औपनिवेशिक शासकों ने भले ही कुडिमरमथ के बारे में पहले भी और बाद में भी गलत निष्कर्ष निकाले पर यह प्रथा कभी मरी भी नहीं थी। किंतु तकनीक, आर्थिक और कानूनी बदलावों के चलते यह प्रथा क्यों सुस्त पड़ी, इस बारे में विस्तार से अध्ययन किए जाने की जरूरत है।

(एस रामनाथन की किताब 1989 ‘कुडिमरमथ कंट्रोवर्सी इन मद्रास प्रेसिडेंसी’ के अंश। बूंदों की संस्कृति पुस्तक से साभार)