जल

अंग्रेजों को भी हैरान करने वाली सिंचाई प्रणाली

बंगाल में पूरी तरह विलुप्त हो चुकी आप्लावन नहरों की सिंचाई व्यवस्था ने अंग्रेजों को भी चकित कर दिया था

DTE Staff

बंगाल में कभी आप्लावन नहरों की अद्भुत व्यवस्था थी। मिस्र और इराक में काम कर चुके अंग्रेज सिंचाई विशेषज्ञ सर विलियम विलकॉक्स इस इलाके में मौजूद बाढ़ से सिंचाई की पुरानी व्यवस्था से काफी प्रभावित हुए थे। पर यह पूरी प्रणाली ही विलुप्त हो चुकी थी। 1920 के दशक में एक भाषण श्रृंखला में विलकॉक्स ने जोर देकर कहा था कि बंगाल की पुरानी प्रणाली ही इस इलाके के सबसे अनुकूल बैठती है और यहां के लोगों की जरूरतें पूरी करती है, इसलिए इसे ही पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। विलकॉक्स ने इसका इतिहास बताते हुए कहा कि दो सदी पहले तक ऐसी नहरें मौजूद थीं। इन नहरों के माध्यम से खेतों तक सिर्फ पानी ही नहीं, उपजाऊ मिट्टी और खूब सारी मछलियां भी पहुंचती थीं, जो झीलों और पोखरों में पहुंचकर जम जाती थीं और मच्छरों के अंडों को चट करके इस इलाके को मलेरिया की चपेट से भी बचाए रखती थीं।

विलकॉक्स के अनुसार, आप्लावन नहरों वाली प्रणाली हजारों वर्ष तक चली थी। दुर्भाग्य से 18वीं सदी के अफगान-मराठा युद्ध और उसके बाद भारत पर अंग्रजों के कब्जे वाले उथल-पुथल के चलते यह सिंचाई प्रणाली उपेक्षित हो गई और इसे पुनर्जीवित नहीं किया जा सका। विलकॉक्स बताते हैं, “गंगा के डेल्टा क्षेत्र में कम बरसात नहीं होती। जब सभी नदियों में बाढ़ होती है, तब भी 50 से 60 इंच बरसात होती है। गंगा तथा दामोदर की बाढ़ के पानी का पूरा उपयोग करने के लिए बंगाल के कुछ पुराने शासकों ने आप्लावन नहरों वाली प्रणाली विकसित की थी और गंगा तथा दामोदर की बाढ़ ने बंगाल को सैकड़ों वर्षों तक समृद्ध और स्वस्थ रखा। यहां बरसात का पानी कम नहीं होता, पर उसमें न पोषक तत्व होते हैं, न अच्छी मिट्टी। यह प्रणाली बंगाल की विशिष्ट जरूरतों के लिए एकदम अनुकूल बैठती है।”

विलकॉक्स ने पाया कि जून से अक्टूबर तक मॉनसून की काफी बरसात वाले बंगाल की मुख्य विशेषता धान की खेती है। यह खेती आप्लावन सिंचाई के बिना भी संभव थी, लेकिन बाढ़ का पानी इसकी मिट्टी को ज्यादा उपजाऊ बनाता था और मलेरिया का नाश करता था। विलकॉक्स को वह दृश्य बहुत पसंद था जब धान के खेतों में बरसात का पानी भरता जाता था और उधर नदियां भी उफनती रहती थीं। फिर यह पानी जब खेतों में पहुंचता था और बरसाती पानी से मिलता था तब खेतों को उपजाऊ मिट्टी मिलती थी। उनको लगता था कि अगर नदियों को तटबंधों से घेर दिया जाता तो यह इलाका मलेरिया का स्थायी निवास बन जाता और खेत भी कमजोर होते।

विलकॉक्स ने पाया कि बंगाल में कभी भी मॉनसून नहीं चूकता। हां, कभी-कभार बरसात समय से पहले खत्म हो जाती है। अगर धान के खेत सिर्फ बारिश के पानी से सिंचित हों तो अक्टूबर में उनको पानी की जरूरत फिर से पड़ती है। बरसात कम होने से तब नदियों में कम पानी होता है और उसे निकालकर सिंचाई करना बहुत महंगा पड़ता था। लेकिन बरसाती पानी के साथ ही धान को अगर बाढ़ का पानी भी मिल जाता था तो खेतों में नमी और नई मिट्टी की ताकत धान की फसल को बाद की मुश्किलों से लड़ने में सक्षम बनाती थी। विलकॉक्स के अनुसार, “शुरुआती महीनों में नदी की बाढ़ का पानी सोने जैसा होता है।”

विलकॉक्स ने किसानों के साथ भी कुछ वक्त गुजारा और बुजुर्गों से आप्लावन नहरों के बारे में सुना कि ये कितनी चौड़ी होती थीं। इनमें इतना पानी आता था कि जमींदारी वाले बांधों को काटकर पानी लिया जाता था। इसी से उनको अंदाजा लगा कि इस पुरानी प्रणाली की जगह जमींदारी बांध सिंचाई किस तरह आई। उन्होंने लिखा, “मैंने इन लोगों से जाना है कि उनके मन में उस पुराने वक्त के लिए इतनी तरसन क्यों है जब धान के खेतों, पोखरों और झीलों में मछलियां भरी होती थीं। बर्नियर (पहले आया अंग्रेज यात्री) ने भी कहा था कि यहां बहुत मछलियां होती थीं। लेकिन किसान आज मछलियों के लिए तरसते हैं, जबकि पहले गरीबों का पेट इसी से भरता था।

आज उन्हें शायद ही कभी मछली खाने को मिलती हैं।” वह आगे लिखते हैं, “नदियों में पानी भरना उसी मॉनसून के साथ शुरू हो जाता है जो खेतों को बीज डालने और रोपनी लायक बनाते हैं। बरसात बढ़ने के साथ ही शुष्क और खाली पड़ी जमीन नम होने लगती है, जहां- तहां पानी भरने लगता है और लाखों की संख्या में मच्छरों के अंडे इन पर तैरते हैं, तभी बाढ़ का कीचड़ भरा पानी आता है और कई तरह की मछलियों और इनके अंडे भी आते हैं। पुराने दिनों में, जब आप्लावन सिंचाई होती थी और जिसे बर्नियर ने 17वीं सदी तक देखा था, तब मछलियों के ये अंडे नहरों से होकर उपनहरों, खेतों और पोखरों तक पहुंचते थे। जल्दी ही अंडों से नन्हीं मछलियां निकलती हैं और मच्छरों के अंडों-बच्चों को चट कर जाती हैं। बाढ़ के बाद नदी-नालों, पोखर-गड्ढों और खेतों तक में मछलियां ही मछलियां हो जाती थीं। इस प्रकार आप्लावन सिंचाई मलेरिया पर अंकुश रखती थी, भरपूर मछलियां लाती थी, मिट्टी को उपजाऊ बनाती थी और नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को बनाए रखती थीं।”



मलेरिया पर रोक वाले पहलू पर अखबारों के कुछ दिलचस्प उद्धरणों को विलकॉक्स ने अपनी रिपोर्ट में शामिल किया था। 2 दिसंबर 1907 के इंडियन मिरर के अनुसार, “ईस्ट इंडिया रेलवे का निर्माण 1853-54 में हुआ था और 1855 में इसने काम करना शुरू कर दिया। इस रेल लाइन को दामोदर की बाढ़ से बचाने के लिए नदी के पूर्वी तरफ बर्दवान से आगे एक ऊंचा तटबंध बनाया गया। जहां कहीं भी तटबंध बने हैं, पोखरों और कृत्रिम झीलों में जलकुंभी जैसे फालतू खर-पतवार भर गए हैं और खेतों को नई मिट्टी न मिलने का प्रभाव फसल पर भी पड़ा है। अकाल और तंगी बहुत आम होने लगे हैं और बुखार के मामले काफी बढ़ गए हैं।

उनकी रिपोर्ट के अनुसार, “बर्दवान और हुगली जिले में असंख्य कृत्रिम झीलें और बड़े पोखर हैं। दामोदर की बाढ़ हर साल इनमें नया पानी और खूब सारी मछलियां भर देती थीं। इस पानी को लोग पीते भी हैं। लोगों का स्वास्थ्य अच्छा था और गांव में समृद्धि भी थी। पर दामोदर पर तटबंध बनने के साथ ही यह सब बदल गया। अगर हमारे पाठक इन दो जिलों में जाने का कष्ट उठाएं तो वे खुद देख सकते हैं कि पोखर और झील अपने पुराने आकार के आधे रह गए हैं और उनमें भी जलकुंभियों और दूसरी खर-पतवारों ने डेरा डाल लिया है। पानी का रंग काला हो गया है। इससे बदबू आती है। गांवों में मृत्यु दर बढ़ गई और गांव उजड़े नजर आते हैं।

लोगों के मकान यूं ही खड़े नष्ट हो रहे हैं। लोग खुद भी कंकाल से दिखते हैं। मेडिकल का छात्र होने के चलते यह लेखक दावे से कह सकता है कि कलकत्ता से चागदा तक के गांवों में पहले मलेरिया नहीं होता था। बरसात के बाद कुछ लोगों को बुखार होने के मामले होते थे, लेकिन मलेरिया नहीं होता था। पिछले तीस सालों से जो दृश्य दिखता है वह तो पहले कभी होता ही नहीं था। कलकत्ता के लोग पहले खुर्दा बैरकपुर, नवाबगंज, हालीशहर जैसी जगहों पर हवा बदलने के लिए जाते थे। तटबंध बनने के साल भर के अंदर ही यहां मलेरिया का प्रकोप हुआ, क्योंकि पूर्व की तरफ पानी का प्राकृतिक प्रवाह रुक गया। रेल मार्ग में पानी को निकासी देने के लिए पर्याप्त पुल या दूसरी व्यवस्थाएं नहीं की गई हैं। सरकार को धर्मार्थ दवाखाने खोलने चाहिए।”

विलकॉक्स के अनुसार, इस सिंचाई प्रणाली की विशेषताएं थीं। नहरें चौड़ी और कम गहरी थीं और नदियों की बाढ़ का ऊपरी पानी ही लेकर चलती थीं जिसमें बारीक मिट्टी तो घुली होती थी, पर मोटा रेत नहीं होता था। नहरें लंबी, समांतर और निरंतर आगे बढ़ने वाली थीं। दूरी का हिसाब सिंचाई के हिसाब से तय किया गया था। नहरों के बांध काटकर सिंचाई की जाती थी और बाढ़ गुजर जाने पर इनको भर दिया जाता था। विलकॉक्स के अनुसार, “नहरों को काटते वक्त इंजीनियर, जानकार लोग मौजूद रहा करते थे। फिर इसे स्थानीय परिषदों के हवाले कर दिया जाता था और किसानों की मदद से वे यह व्यवस्था करते थे कि हर खेत को पानी मिल जाए।”

बांध के इन कटावों को भागलपुर में कनवा कहा जाता था। भागलपुर जिला गजेटियर में सिंचाई से जुड़े जो 30 शब्द दिए गए हैं, कनवा उनमें से एक है। कनवा शब्द फारसी के कान से बना है जिसका मतलब होता है खोदना। दामोदर क्षेत्र में अनेक जल मार्गों को काना नदी बोलते हैं। हुगली जिले में काना दामोदर, कुंती नदी और किंतुल नदी के अलावा भी तीन काना नदियां हैं। विलकॉक्स ने लिखा था कि यह नाम तब पड़ा था जब इनमें पूरा पानी जोशो-खरोश के साथ बहता था। आज ये भले ही खड़े पानी का गड्ढा-सा बन गई हैं जिनमें मलेरिया के मच्छर अंडे देते रहते हैं, पर अब भी उनको काना या कानी कहा जाता है।”

हिंदी के काणा या काना शब्द से मेल के चलते इस नाम के बारे में बड़ी गफलत पैदा हो गई है। विलकॉक्स ने माना कि काना नदी मतलब बंद पड़ी या अंधी नदी है। उनके अनुसार, “निराशावादी लोग मध्य बंगाल की सभी पुरानी नहरों को मुर्दा नदियां कहते हैं। पर असलियत यही है कि ये मुर्दा या अंधी नहरें पूरे बंगाल की एकमात्र जीवित और सब कुछ देखने-सुनने वाली सिंचाई प्रणाली हैं। वे न तो मृत हैं, न अंधी और उनमें जीवित होने की क्षमता विद्यमान है।”

दक्षिण की तरफ जाने वाली हर नहर, चाहे वह भागीरथी की तरह नदी बन गई हो या माथभंगा की तरह नहर ही रह गई हो, मूलतः जल मार्ग थीं। ये एक-दूसरे के समांतर थीं। जब विलकॉक्स ने बंगाल के देहातों के लिए सिंचाई नहर की प्रणाली विकसित करने की योजना पर काम शुरू किया तो वे यह देखकर दंग रह गए कि मुख्य नहरों वाली सारी संभावित जगहों पर यही कानी नदियां मौजूद थीं। काफी लंबी दूरी तक समांतर चले इन जल मार्गों में वह जटिल और उलझन भरी नालियां भी नहीं थीं जो फरीदपुर में दिखती हैं। विलकॉक्स को लगता था कि दामोदर का मूल मार्ग बर्दवान, राणाघाट, कृष्णनगर के दक्षिण और जेस्सोर होगा और उसके डेल्टा प्रदेश इससे उत्तर और दक्षिण में होंगे।

पश्चिम से आने वाली अजाई जैसी सभी छोटी नदियों का भी पश्चिम से पूर्व वाली ढलान पर अपना-अपना डेल्टा प्रदेश है। उत्तर में गंगा को रामपुर बोआलिया, बाराल बांध और हार्डिंग पुल से घेर लिया गया है। गंगा में बहकर आगे वाली मिट्टी बारीक और कम होती है। यह इलाका मुर्शिदाबाद, नादिया और उत्तरी फरीदपुर का है, जहां की मिट्टी इसी गाद से बनी होने के चलते आसानी से बह जाने और जल्दी सूख जाने वाली है। इसलिए इसे गंगा के पानी जरूरत होती है ताकि सिंचाई की जरूरत पूरी की जा सके। उसके पानी के साथ उपजाऊ मिट्टी भी आती है। यह गंदला पानी मलेरिया को भी रोकता है तथा साथ ही खतरनाक कंस घास का फैलाव रोकता है। यह घास खेत को बंजर बना देती है।

विलक्षण विरासत

विलकॉक्स इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने इस इलाके का इतिहास भी छान मारा। उन्होंने लिखा, “जब बंगालियों ने डेल्टा क्षेत्र पर बसना शुरू किया तो मुर्शिदाबाद-नादिया और उत्तरी फरीदपुर भर गया और अब कुशलता से गंगा को दक्षिण की तरफ खिसकाया जा सकता था। ऐसा लगता है कि पवित्र गंगा के बारहमासी जल को पुराने दामोदर की मुख्य धारा पर स्थित एक पवित्र स्थान तक भागीरथी या भागीरथी और जलांगी के माध्यम से पहुंचाना पुराने समय के महान सार्वजनिक कार्यों में एक था।”

वह बताते हैं कि रामायण में गंगा के बारहमासी पानी की धारा मोड़ने का जिक्र है। इस काम को राजा की 50,000 प्रजा पूरा नहीं कर पाई तब उनके पोते भागीरथ ने अपने कौशल का प्रयोग किया। हुगली में (जो भागीरथी और जलांगी के गंगा में मिलने के बाद गंगा का नया नाम है) गंगा का पानी साल भर आता रहे, इसके लिए दामोदर को ही नियंत्रित करना जरूरी था। सो जमालपुर के पास से, जहां नदी 90 डिग्री पर मुड़ती थी, वहीं उसे पूरी तरह बांध दिया गया। फिर इसकी बायीं तरफ काफी मजबूत और ऊंचा तटबंध बनाया गया, जिससे दक्षिणी बर्दवान, हुगली और हावड़ा के धान के खेत सुरक्षित रहें। इस उर्वर जमीन को सींचने के लिए अब सात नहरें निकाली गईं और इनमें एक नए डेल्टा प्रदेश का निर्माण हुआ।

विलकॉक्स इस काम के आकार-प्रकार और आप्लावन सिंचाई से अचंभित थे। इस व्यवस्था से सत्तर लाख एकड़ जमीन की सिंचाई होती थी। उनका मानना है कि उस दौर में दुनिया के किसी भी अन्य देशों की बड़ी सिंचाई परियोजनाओं से यह उन्नीस नहीं थी। वे इस बात से प्रभावित थे कि नहरों का सर्वेक्षण और डिजाइन एकदम ठोस सिद्धांतों पर आधारित था। इसीलिए यह सैकड़ों वर्षों तक काम करता रहा और गृह युद्ध तथा सैनिक टकराहटों वाले दौर में इसे बर्बाद किया गया।

सन् 1660 तक बर्नियर दो बार बंगाल गए और मुगल साम्राज्य के बिखरने और लंबे मराठा-अफगान युद्ध से इस प्राचीन सिंचाई व्यवस्था को हुए नुकसान के बारे में लिखा। उन्होंने अपने एक वृतांत में लिखा है, “बंगाल के अपने दो दौरों से मुझे जो जानकारियां मिली हैं, उनसे मैं विश्वास करने लगा हूं कि यह क्षेत्र मिस्त्र से भी ज्यादा समृद्ध था। यहां से बड़े पैमाने पर कपास, रेशम, चावल, चीनी और मक्खन बाहर भेजा जाता था। यह अपनी जरूरत के लायक गेहूं, अनाज, सब्जियां खुद उगा लेता था। यहां बकरियों-भेड़ों और सूअरों को भी बड़े पैमाने पर पाला जाता था। हर तरह की मछलियों की बहुतायत थी। राजमहल से समुद्र तक असंख्य नहरें थीं, जिन्हें बड़े परिश्रम से सिंचाई और जल परिवहन के लिए बनाया गया था। भारतीय लोग गंगा जल को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।”

मराठा-अफगान युद्ध के बाद 1794 में कई अंग्रेजों ने एक मसौदा तैयार किया, जो 1803 और 1806 में छपा। इसके अनुसार, “हर साल आप्लावित होने वाले इलाकों में बाढ़ सुरक्षित बस्तियां, जो काफी ऊंचाई वाली जगहों पर बसाई गई थीं, इस काम में बड़े धीरज के साथ लगे श्रम को दर्शाती थीं।”

आप्लावन रोकने के लिए छोटा बांध, जलाशय और निकास मार्ग थे। बर्नियर ने पाया कि सिंचाई वाले पहलू पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता था। उन्होंने लिखा है, “धान की फसल के लिए बांध विस्तृत मैदान पर ही पानी घेर लेते थे या फिर निचली जमीन पर बनी झीलों में इन्हें भर लिया जाता था, जिसे जरूरत पड़ने पर बाद में उपयोग किया जा सकता था। इन दोनों में से किसी भी काम में जल की आपूर्ति व्यवस्थित करने के लिए जबरदस्त कौशल की जरूरत होती थी।”

विशालकाय बांध पानी को उफनकर बाहर निकलने से तो नहीं रोक सकते थे, पर अचानक पानी बढ़ने पर रोक लगा देते थे। बहुत सोच-विचार से बनाए गए बांध काफी बड़े-बड़े इलाके की सिंचाई कर देते थे। अंग्रेजों के इस मसौदे से पता चलता है कि तब पोखर, जलाशय, जल मार्ग और बांधों में सुधार की जगह गिरावट आ रही थी। 1875 में एक अन्य अंग्रेज यात्री हैमिल्टन बर्दवान, हुगली और हावड़ा (जो इलाके पहले बर्दवान राज के अंतर्गत आते थे) से होकर गुजरा। उसने भी इस इलाके की समृद्धि और उर्वरता के बहुत गुण गाए हैं। उन्होंने पाया “अपने आकार के हिसाब से खेती की पैदावार में बर्दवान पूरे हिंदुस्तान में सबसे अव्वल है। इसके बाद तंजौर का नंबर आता है।” यह कथन काफी कुछ बताता है। तब अफगान-मराठा युद्ध ने गंगा से जुड़ी सिंचाई वाली जटिल प्रणाली को तहस-नहस कर दिया था और दामोदर की सुगम सिंचाई से भी यह स्थिति थी।

हैमिल्टन को लगा कि 1815 तक मध्य बंगाल के जमींदारों और जोतदारों ने नहरों की सफाई, बांधों की मरम्मत, जिसे युलबंदी कहा जाता था, का काम छोड़ दिया था। यह उपेक्षा मराठा-अफगान युद्ध के समय ही शुरू हुई थी और फिर जीतकर आए अंग्रेजों ने स्थिति को बदतर ही बना दिया। व्यापारी और समुद्र यात्री अंग्रेजों को सिंचाई का कोई ज्ञान भी न था। लंबे युद्वों के बाद अनेक जल मार्गों और नहरों को उपेक्षित पड़ा देख उन्हें लगा कि इनका उपयोग यातायात के लिए ही किया जा सकता है। सिंचाई की बात उनकी सोच के दायरे में नहीं थी।

बांधों की बर्बादी

इस उपेक्षा के चलते मध्य बंगाल का स्थान सन 1660 के आसपास स्वर्णिम नहीं रहा, जब बर्नियर ने इसे देखा था। 1815 तक मध्य बंगाल में गिरावट शुरू हो चुकी थी। बाद में बर्दवान भी इसी श्रेणी में आ गया, क्योंकि वहां भी नहरों की सफाई पर ध्यान नहीं दिया गया। फिर तो नहरों में मिट्टी भरती गई और वे दामोदर से दिन-ब-दिन कम पानी लेती गईं। अधिकांश पानी, तीखी ढलान, तेज जल प्रवाह के चलते अब दामोदर नदी इस पूरे इलाके के लिए आतंक बन गई। अब फिर से दामोदर के किनारे बांध डालना महत्वपूर्ण हो गया जिसे जमींदारी बांध कहा जाता था। जब इनके उमड़ पड़ने का खतरा टल जाता था या कहीं और बांध टूट जाते थे, तब किसान बांध काट डालते थे। इस प्रकार पुरानी नहरों में भी पानी भरता था और सिंचाई के काम आता था।

यह प्रणाली जमींदारी बांध प्रणाली कहलाती थी, पर आप्लावन सिंचाई को आखिरी मार अब पड़ी। यह माना जाता था कि जमींदारी बांध सिर्फ बाढ़ से सुरक्षा के लिए है। बांध को काटना (जिसे कनवा कहा जाता था) या पुरानी नहरों में भरे पानी का सिंचाई के लिए उपयोग करना खास गिनती में नहीं आता था। पुरानी बड़ी नहरों को मृत ही माना जाता था या कहीं नाला कह दिया जाता था, पर इन सबसे कहीं भी सिंचाई शब्द नहीं जुड़ा था। पर इनसे जमींदार और जोतदार सिंचाई करते रहे, बांध को चुपचाप काटकर या पानी लेकर। इन कटावों को सरकार बाढ़ से टूटा मानती रही और फिर उसे लगा कि बेमतलब मरम्मत के झमेले को खत्म ही कर दिया जाए। ऐसा किसान करते हैं, यह माना ही नहीं जाता था। पर एक बड़े बांध में कैसे 40-50 कटाव हो जाएंगे, इस पर कभी गौर नहीं किया गया।

(बूंदों की संस्कृति पुस्तक से साभार)