जल

संरक्षण से ही सम्भव है समाधान

पानी का अगर हम प्राकृतिक संरक्षण बनाए रखते, बना लें या फिर बनाए रखने का प्रयास करें तो हमें पानी की कमी शायद ही खले

DTE Staff

रमन कान्त त्यागी

जीवन का पालना कहा जाने वाला पानी आज अपनी स्थिति आंसू बहा रहा है, क्योंकि पानी को लेकर हो रहे संघर्षों की ध्वनियाँ अब सुनाई देने लगी हैं। पिछले दिनों पानी के झगड़े को लेकर सहारनपुर के एक गांव में दंबंगों ने दूसरे परिवार के पांच लोगों को मरणासन्न स्थिति में पहंुचा दिया था। पानी के निजीकरण का रोग विश्व के देशों को अपनी चपेट में लेने को आतुर है। यही कारण है कि पानी का व्यापार करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों व विश्व निगमों के खिलाफ सामाजिक संगठन व किसान लामबंद होने लगे हैं।

आज प्याऊ लगाकर पानी पिलाने वाली संस्कृति का देश भारत कैम्पर, बोतल, पाउच व टैंकर आदि माध्यम से पानी खरीद रहा है। सीधे हैण्डपम्प का पानी देश के किसी भी शहर या कस्बे में शायद ही कोई पी रहा हो। हालात गांवों में भी बदतर हो चले हैं, यहां भी पानी के कैम्पर व टैंकर ने अपनी जगह सुनिश्चित कर ली है तथा ये गांव में तेजी से पानी बाजार बना रहे हैं। गांवों में होने वाले शादी-विवाह में पानी की बोतलें पहुंच चुकी हैं। वर्तमान में पानी को संरक्षित करने के नए-नए तरीके सुझाए व अपनाएं जा रहे हैं। इसके बेतहाशा होते र्दुउपयोग को रोकने के लिए लोगों को जागरूक किया जा रहा है। गोष्ठियों, सम्मेलनों, कार्यशालाओं, नुक्कड नाटकों, प्रदर्शनों, पोस्टरबाजी व नारेबाजी के जरिए पानी के प्रति जागृति लाने के प्रयास सरकारी व गैर-सरकारी दोनों स्तरों से लगातार जारी हैं।

पानी पर इस जगत का हर एक प्राणी जीवित है। पानी सबके जीवन का आधार है। आज के सूचना क्रान्ति तकनीकि जगत में भी वैज्ञानिक जब किसी दूसरे ग्रह पर जीवन की संभावनाएं तलाश रहे हैं, तो सबसे पहले वहाँ पानी के स्रोत ढूंढ रहे हैं। अगर पानी के स्रोत नजर आएंगे तो किसी हद तक मान लिया जाएगा कि वहां जीवन की संभवानाएं हैं। पानी का होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि पानी का काम पानी से ही चलेगा।

मंगल ग्रह पर जीवन होने की कुछ संभावनाएँ जताई जा रही हैं, क्योंकि वहाँ बर्फ जमी बताई जाती है, हालांकि इसके बारे में अभी कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है। हो सकता है कि मंगल कभी पानीदार रहा हो और वहाँ बसने वालों ने उसका भरपूर दोहन किया हो, जिस कारण से वहाँ पानी समाप्त हो गया हो। खैर, ये सब भूतकाल की बाते हैं जिनकी सच्चाई जानने व समझने में थोड़ा वक्त तो लगेगा ही। दूसरे ग्रहों पर पानी की यह तलाश कामयाब हो भी पाएगी या नहीं इस सवाल का जवाब भी भविष्य के गर्त में छिपा है।

विचारणीय विषय यह है कि आखिर पृथ्वी पर पानी, कहां से आया? पृथ्वी पर पानी के इतने स्रोत कैसे उत्पन्न हो गए? कैसे पृथ्वी का 70 प्रतिशत भाग जलमय है? इन सब सवालों के जवाब तलाशने के लिए हमें पृथ्वी के अतीत में लौटना होगा। अतीत के संबंध में वैज्ञानिक दृष्टि ने कुछ ऐसा आंकलन किया है कि जब सूर्य से टूटकर एक आग का गोला अलग हुआ तो उसी को आगे चल कर पृथ्वी कहा गया। सूर्य से अलग हुआ यह टुकड़ा एक भभकता हुआ लाल रंग का शोला था।

वायुमण्डल में उपस्थित हाइड्रोजन व ऑक्सीजन के अंशों ने आपस में क्रिया करके पानी का निर्माण किया और वह पानी उस आग के गोले पर आकर गिरा। जैसे ही आग पर पानी गिरा तो वह पानी वाष्प बनकर पुनः वायुमण्डल में चला गया। हाइड्रोजन व ऑक्सीजन के अंश पुनः क्रियाशील हुए और पानी बनते ही पृथ्वी पर गिरे तथा फिर वाष्प बनकर उड़ गए। यही क्रम लगातार तब तक चलता रहा जब तक पानी की पृथ्वी को शांत करने की जिद पूरी न हो गई और पृथ्वी शांत व खुशहाल न बन गई। पानी के बरसने का क्रम आज भी कुछ अवरोधों के बावजूद लगातार जारी है। पानी ने ही झीलें व नदियां बनाईं, समुन्द्र व पहाड़ बनाए, पानी के कारण ही ताल-तलैयों आदि जल स्रोतों का निर्माण हुआ।

एक बार प्रख्यात वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक जे. बी. एस. हाल्डेन (1892-1964) ने हंसी-मजाक में कैंटबरी के आर्चबिशप को कहा था कि वे भी 65 प्रतिशत पानी हैं। उनकी यह बात सौ फीसदी सत्य थी, क्योंकि हमारे दिमाग, रक्त व दिल आदि में अधिकतर हिस्सा पानी का ही होता है। पानी का हमारे दैनिक जीवन में उपयोग का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है क्योंकि हम रसोई में, बाथरूम में, टाॅयलेट में, घर की साफ-सफाई व कार आदि की सफाई में पानी का ही प्रयोग करते हैं। पानी में बढ़ते प्रदूषण के कारण 80 प्रतिशत बीमारियाँ जल-जनित होने लगी हैं।

विश्व स्वास्थ संगठन के अनुसार विश्व में प्रति वर्ष 50 लाख लोग जल-जनित बीमारियों के कारण काल के ग्रास बनते हैं। पानी के संबंध में ये कुछ आँकडे़ बताते हैं कि हम पानी के बगैर कुछ भी नहीं हैं। पानी ही हमें बताता है कि किस तरह जीना है। पानी के लिए होते संघर्ष व मचती आपा-धापी बताती है कि पानी हमारी जीविका के लिए कितना महत्वपूर्ण है। ग्रीष्म ऋतु प्रारम्भ होते ही देश के कुछ राज्यों में पानी के लिए मारामारी शुरू हो जाती है।

सूखा अपना रूप अख्तियार कर लेता है, लोग पानी न मिलने के कारण पलायन के लिए मजबूर होने लगते हैं, खेतों की नमी भूली-बिसरी याद बन जाती है, लोगों के हल्क सूख जाते हैं तथा सूखा राहत राशियाँ वितरित करने की योजना पर कार्य प्रारम्भ होने लगता है। पिछले वर्ष जहां भारत का पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण शहर शिमला व चैन्नई पानी की कमी से जूझते दिखे तो वहीं दक्षिण अफ्रीका का सम्पन्न शहर केपटाउन का पानी समाप्त होने पर वहां आपातकाल जैसे हालात बन गए थे। सूखे का रूप देखकर नदियों के पानी को लेकर तनाव पैदा होने लगा। कुछ परिवार पानी या मौत मांगने पर मजबूर भी हुए। सरकारों को पानी का इंतजाम करने में पसीने छूट गए।

पानी के लिए यज्ञ, हवन, पूजाओं व प्रार्थनाओं का दौर प्रारम्भ हो हुआ, लेकिन वर्षा कोई हमारा बनाया हुआ नियम नहीं जो हमारे अनुसार चले। हम जब चाहें बंद हो व जब चाहें बरसे। पानी का बरसना या न बरसना प्राकृतिक नियम है। जिसे हमने स्वार्थवश होकर तोड़ने का प्रयास किया है तथा कर रहे हैं। चीन में गत वर्ष कृत्रिम वर्षा कराई गई तथा भारत के भी कुछ शहरों में कृत्रिम वर्षा कराने पर माथापच्ची हुई। प्रकृति के नियमों की धज्जियाँ हमने खूब उड़ाई हैं तथा अभी भी उड़ा रहे हैं तभी तो पानी होते हुए भी हम प्यासे हैं।

पानी का अगर हम प्राकृतिक संरक्षण बनाए रखते, बना लें या फिर बनाए रखने का प्रयास करें तो हमंे पानी की कमी शायद ही खले। हमारी गलतियों का ही परिणाम हैं कि जहां कर्नाटक के कुछ क्षेत्रों में भू-जल का स्तर 800 फीट की गहराई तक जा पहुँचा है वहीं बनासकांठा में भू-जल स्तर 1500 फीट की गहराई तक खिसक चुका है। दो वर्ष पूर्व ही महाराष्ट्र के लातूर में रेलगाड़ी से पानी पहुंचाना पड़ा था।

आधुनीकिकरण के नाम पर विकसित हुए गुड़गांव का भू-जल स्तर एक अध्ययन के अनुसार पिछले 20 वर्षों में 16 मीटर नीचे खिसक चुका है तथा प्रतिवर्ष एक से डेढ़ मीटर की दर से नीचे ही गिरता जा रहा है। गंगा व यमुना जैसी दो नदियों के बीच बसा व हरित क्रांति का बड़ा केंद्र रहा पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी आज पानी का सही प्रबंधन न होने के कारण उसकी कमी से जूझ रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में इक्कीसवीं शताब्दी की सब कुछ वस्तुएं उपलब्ध हैं लेकिन पीने के लिए अपना पानी नहीं है। दिल्ली अपनी प्यास बुझाने के लिए अपने पड़ोसी राज्यों उत्तर प्रदेश व हरियाणा से पानी मांग रही है। पानी को संग्रहित करने के पुराने तौर-तरीके तालाब, जौहड़, बावड़ी, कुन्डी, आहर पाइन व झीलें आदि स्वार्थवश समाप्त कर दिए गए हैं, मिटा दिए हैं।

इस समय भारत सहित विश्व के अधिकतर देशों के सामने पानी से संबंधित दो समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। पहली पानी की कमी व दूसरी उसका प्रदूषण। पानी की कमी के लिए हरित क्रांति के बाद से अत्यधिक भूजल दोहन का प्रारम्भ, कृषि व उधोगों में पानी का बेतहासा उपयोग, प्राकृतिक जल स्रातों की बदहाल स्थिति व कम वर्षा को होना प्रमुख कारण हैं। भूजल प्रदूषण के कारणों में बेलगाम उधोगों का तरल गैर-शोधित कचरा, बेतरतीब कस्बों व शहरों का गैर-शोधित तरल कचरा व कृषि बहिस्राव प्रमुख हैं।

उद्योगों व शहर-कस्बों ने नदियों को प्रदूषित किया और नदियों ने भूजल को। यही कारण रहा कि जो समाज कभी शीलत-निर्मल जल की अधिकता के कारण नदियों के किनारे बसा-पला-बढ़ा और विकसित हुआ वह आज वहां से उजड़ने के कगार पर खड़ा है। उस समाज में तरह-तरह की जानलेवा बीमारियां पनप रही हैं। एक-एक परिवार के चार-चार सदस्य हेपेटाइटस या कैंसर जैसी बीेमारी की जकड़ में हैं। ईलाज में अपना सब कुछ गवां बैठे हैं। भू-जल प्रदूषण के कारण कृषि मिट्टी व खाद्यान्न में भी कीटनाशकों के अंश शामिल हो चुके हैं।

भारत सरकार ने वर्ष 2024 तक देश के प्रत्येक परिवार को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने का लक्ष्य निर्धारित किया है, जोकि स्वागत योग्य कदम है। इस कार्य को पूरा करने के लिए आवश्यक है कि जहां स्वच्छ पेयजल की आवश्यकता है उसका समाधान वहीं खोजा जाए लेकिन अगर उसका निदान कहीं दूर से करने के प्रयास किए गए तो वे स्थाई नहीं होंगे, क्योंकि जिस प्रकार से देश की बड़ी नदियों में पानी लगातार कम हो रहा है उससे संभव नहीं लगता कि सभी को नदियों या नहरों से पानी पहुंचाया जा सकेगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देश के सरपंचों से जो वर्षाजल संरक्षण की अपील की गई है एक मात्र वही समाधान है। जितना भी वर्षाजल हमें प्राप्त हो उसे रोककर भूगर्भ में पहुंचाना ही समाधान है। इससे जहां भूजल स्तर में बढ़ोत्तरी होगी वहीं भूजल प्रदूषण भी धीरे-धीरे कम होगा। वर्षाजल का संरक्षण ही हमें जल प्रदूषण व उसकी कमी से निजात दिला सकता है।

लेखक नीर फाउंडेशन के निदेशक है