जल

जल संकट से जूझ रहे क्षेत्रों में हुआ है आधे से अधिक सिंचाई का विस्तार, 36 फीसदी के लिए जिम्मेवार भारत

इंसानों के पीने योग्य जल का 90 फीसदी से अधिक उपयोग सिंचाई के लिए किया जा रहा है

Shagun, Lalit Maurya

वैश्विक स्तर पर सिंचाई में हुआ आधे से अधिक यानी 52 फीसदी विस्तार उन क्षेत्रों में दर्ज किया गया जो वर्ष 2000 में पहले ही जल संकट की समस्या से जूझ रहे थे। आंकड़ों की मानें तो भारत इसके 36 फीसदी के लिए जिम्मेवार है।

इसमें कोई शक नहीं कि वैश्विक स्तर पर कृषि पैदावार में इजाफे के लिए सिंचाई की भूमिका महत्वपूर्ण है। लेकिन एक नए अध्ययन में सामने आया है कि कैसे पर्यावरण को ताक पर रख सिंचाई में हुआ बेतहाशा विस्तार हानिकारक रहा है। इस वृद्धि के चलते प्रकृति और अन्य मानव आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। यह अध्ययन अमेरिका, जर्मनी, फिनलैंड और चीन के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है, जिसके नतीजे जर्नल नेचर वाटर में प्रकाशित हुए हैं।

आंकड़ों की माने तो मौजूदा समय में इंसानों के उपभोग के काबिल 90 फीसदी से अधिक जल का उपयोग सिंचाई के लिए किया जा रहा है। कृषि भूमि के करीब 24 फीसदी हिस्से पर सिंचाई की व्यवस्था है, जो दुनिया का करीब 40 फीसदी खाद्य उत्पादित कर रहा है।

आठ मार्च 2024 को प्रकाशित इस अध्ययन में सामने आया है कि 2000 से 2015 के बीच वैश्विक स्तर पर सिंचाई की व्यवस्था वाले क्षेत्र में 11 फीसदी (3.3 करोड़ हेक्टेयर) की वृद्धि हुई है। गौरतलब है कि जहां 2000 में 29.7 हेक्टेयर कृषि भूमि पर सिंचाई की व्यवस्था थी, वहीं 2015 में यह क्षेत्र बढ़कर 33 करोड़ हेक्टेयर पर पहुंच गया था।

शोधकर्ताओं ने इस बात की बारीकी से जांच की है कि 21वीं सदी की शुरूआत से सिंचाई की व्यवस्था वाली कृषि भूमि में कैसे बदलाव आया है।

इनमें एक तरफ जहां उत्तर-पश्चिम भारत और उत्तर-पूर्व चीन जैसे क्षेत्र शामिल हैं जहां सिंचित क्षेत्र में पर्याप्त विस्तार हुआ है, वहीं रूस जैसे क्षेत्र भी शामिल हैं जहां इसमें गिरावट आई है। आंकड़ों के अनुसार जहां एशिया के सिंचित कृषि क्षेत्र में इस दौरान 2.8 करोड़ हेक्टेयर का इजाफा हुआ है। वहीं दक्षिण अमेरिका में भी इसमें 56 लाख हेक्टेयर की वृद्धि दर्ज की गई है। 

रिसर्च के मुताबिक वैश्विक स्तर पर सिंचित क्षेत्र में सबसे ज्यादा शुद्ध विस्तार चीन में दर्ज किया गया है, जो करीब 1.28 करोड़ हेक्टेयर है। इसके बाद भारत में सिंचाई की व्यवस्था वाले कृषि क्षेत्र में 85 लाख हेक्टेयर की शुद्ध बढ़ोतरी हुई है। इसके पीछे का एक प्रमुख कारण खाद्य आत्मनिर्भरता को बनाए रखने के लिए सिंचाई परियोजनाओं में बढ़ता निवेश है।

यह जानने के लिए की वो कौन से क्षेत्र थे जो पहले ही पानी की कमी से जूझ रहे थे और इसके बावजूद उन क्षेत्रों में सिंचाई में वृद्धि हुई है, शोधकर्ताओं ने वहां बारिश के साथ-साथ सतह और भूजल पर उपलब्ध जल संसाधनों से जुड़े आंकड़ों का अध्ययन किया है। चूंकि यह क्षेत्र पहले ही पानी की समस्या से त्रस्त थे ऊपर से सिंचाई के लिए नदियों और भूजल का होता दोहन इन क्षेत्रों में जल संसाधनों पर दबाव को कहीं ज्यादा बढ़ा देगा।

रिसर्च में शोधकर्ताओं ने उन क्षेत्रों को जल संकट से जूझ रहे क्षेत्रों के रूप में वर्गीकृत किया है, जिनमें पहल वो क्षेत्र हैं जहां फसलों की पैदावार के लिए हो रही बारिश पर्याप्त नहीं होती है। ऐसे में वहां सिंचाई की कोई दूसरी व्यवस्था करनी पड़ती है। वहीं दूसरे वो क्षेत्र हैं जहां मौजूद जल संसाधन चाहे वो सतही हो या भूमिगत, सिंचाई के लिए पर्याप्त नहीं हैं।

यदि उन क्षेत्रों को देखें जहां भूजल और नदियों, झीलों आदि का जल सिंचाई के लिए पर्याप्त नहीं है, वहां यदि सिंचाई के बुनियादी ढांचे का विस्तार किया जाता है तो वहां भूजल और नदियों आदि के जल में गिरावट आ सकती है। इसी तरह उन क्षेत्रों में जहां बारिश सिंचाई के लिए पर्याप्त नहीं है, वहां सिंचाई के बुनियादी ढांचे का विस्तार वर्षा में बदलाव से निपटने में मददगार साबित हो सकता है। बशर्ते वहां उपयोग के लिए पर्याप्त पानी मौजूद हो।

यदि 2015 से जुड़े आंकड़ों को देखें तो भारत और पाकिस्तान में सिंचाई का सबसे अधिक अस्थिर विस्तार देखा गया है। भारत में जहां सिंचाई का कुल 86 फीसदी (1.21 करोड़ हेक्टेयर) विस्तार उन क्षेत्रों में हुआ है, जो पहले ही भूजल और सतह पर मौजूद पानी की कमी से त्रस्त हैं। इसी तरह पाकिस्तान में यह आंकड़ा 87 फीसदी (करीब 15.3 लाख हेक्टेयर) दर्ज किया गया है। 

रिसर्च में यह भी सामने आया है कि सिंचाई में जो साढ़े छह करोड़ हेक्टेयर का जो कुल विस्तार हुआ है। उसमें से 11 लाख हेक्टेयर उन क्षेत्रों में हुआ है जहां भूजल और सतही जल सिंचाई के लिए पर्याप्त नहीं है। वहीं 1.9 करोड़ हेक्टेयर का विस्तार उन क्षेत्रों में हुआ है जहां बारिश का पानी सिंचाई के लिए काफी नहीं है। वहीं 3.12 करोड़ हेक्टेयर सिंचाई क्षेत्र का विस्तार उन क्षेत्रों में हुआ है जहां सिंचाई के लिए बारिश के साथ-साथ भूजल और नदियों आदि का जल पर्याप्त नहीं है। वहीं 1.39 करोड़ हेक्टेयर सिंचित क्षेत्र का विस्तार उन क्षेत्रों में दर्ज किया गया जहां पानी पर्याप्त रूप में उपलब्ध है।

वहीं दूसरी ओर कुछ देशों के सिंचित क्षेत्र में हुआ विस्तार जल संसाधनों को ध्यान में रखते हुए हुआ है। यदि ब्राजील को देखें तो वहां सिंचाई में हुआ 96 फीसदी का विस्तार जो 34 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में हुआ है वो पर्यावरण अनुकूल था। इसी तरह इंडोनेशिया में नौ लाख हेक्टेयर यानी 76 फीसदी, पेरू में आठ लाख हेक्टेयर  यानी 94 फीसदी, इटली में तीन लाख हेक्टेयर (85 फीसदी), और फ्रांस में 88 फीसदी यानी दो लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई व्यवस्था में हुआ विस्तार जल संसाधनों के लिहाज से अनुकूल था।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने अंतरराष्ट्रीय डेटाबेस, राष्ट्रीय कृषि जनगणना और सरकारी रिपोर्टों की मदद ली है। इनकी मदद से उन्होंने 243 देशों के सिंचाई संबंधी नवीनतम आंकड़ों का उपयोग किया है।

देश अपनी सिंचाई व्यवस्था का विस्तार कैसे करते हैं, उसका राष्ट्रों की खाद्य आत्मनिर्भरता के साथ-साथ वैश्विक खाद्य सुरक्षा पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। यह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि कई देश अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए खाद्य आयात पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं। देखा जाए तो यदि देश सिंचाई में अस्थिर विस्तार की मदद से फसल उत्पादन में वृद्धि करते हैं, तो इससे देशों के लिए पर्याप्त खाद्य उत्पादन कठिन हो जाएगा।

शोधकर्ताओं के मुताबिक जो देश ऐसे क्षेत्रों में सिंचाई का विस्तार कर रहे हैं जहां पहले ही पानी की कमी है। वहां सिंचाई से बढ़ता दबाव भूजल में गिरावट के साथ-साथ नदियों, झीलों जैसे जल स्रोतों में पानी की कमी की वजह बन सकता है। नतीजन इन क्षेत्रों में सिंचाई की मदद से कृषि उत्पादन में गिरावट आ सकती है।

सऊदी अरब और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश जो अपनी खाद्य आवश्यकता को पूरा करने के लिए आयात पर निर्भर करते हैं। उन्हें स्थानीय तौर पर पर्याप्त फसल उत्पादन के लिए संघर्ष करना पड़ सकता है। ऐसे में उनकी दूसरे देशों पर निर्भरता और बढ़ जाएगी। वहीं दूसरी तरफ ऐसे देश जो आम तौर पर कृषि उत्पादन को निर्यात करते हैं, जैसे अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया, अगर वे संसाधनों की स्थिति को अनदेखा करके सिंचाई में वृद्धि जारी रखते हैं, तो उन्हें अपनी घरेलु मांग को पूरा करने के लिए खाद्य निर्यात में मजबूरन गिरावट करनी पड़ सकती है।