जल

मनरेगा में ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने की क्षमता: नारायण

Anil Ashwani Sharma

ग्रामीण भारत के लिए पिछले 15 सालों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) ने एक जीवन रेखा का काम किया है। इसके चलते पिछले डेढ़ दशक में ग्रामीण ने अपने-अपने गांव में जल संरक्षण संबंधित 3 करोड़ से अधिक पर्यावरणीय ढांचे तैयार कर चुके हैं। यदि इसे प्रति गांव में बांटा जाए तो हर गांव में 50 जल संरक्षण संबंधी ढांचे तैयार हुए हैं।  

आकलन बताता है कि इन ढांचों के जरिए इस अवधि में मोटे तौर पर 29,000 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी का संरक्षण किया गया और इनकी क्षमता 19 मिलियन हेक्टेयर खेतों की सिंचाई करने की गई। इस उपलब्धि पर टिप्पणी करते हुए सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की डायरेक्टर जनरल और डाउन टू अर्थ पत्रिका की संपादक सुनीता नारायण ने कहा, हमारे नए राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण में पता चला है कि जल संरक्षण को अगर केंद्र में रखा जाए, तो मनरेगा में भारत की ग्रामीण तस्वीर के कायाकल्प और देश के गरीबों के जीवन को बदल देने की क्षमता है। ऐसे में विश्व जल दिवस के मौके पर ग्रामीण भारत के जलयोद्धाओं की इस अनपेक्षित कामयाबी का जश्न मनाने से बेहतर भला क्या हो सकता है?, 

सुनीता नारायण विश्व जल दिवस के मौके पर आयोजित वेबिनार को संबोधित कर रही थीं। वेबिनार में उन गांवों के जलयोद्धा शामिल हुए, जिन्होंने अपने गांवों को सूखे से ऊबार कर समृद्ध बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। डाउन टू अर्थ व सीएसई ने वेबिनार का आयोजन कर मनरेगा के 15 वर्ष बीत जाने के बाद इसके प्रभावों को लेकर किए गए राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी की।

इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए डाउन टू अर्थ के पत्रकारों ने अलग-अलग राज्यों के सुदूर गांवों का दौरा कर जमीनी हकीकत का जायजा लिया। डाउन टू अर्थ के मैनेजिंग एडिटर रिचर्ड महापात्रा ने कहा, “डाउन टू अर्थ के 14 पत्रकार कोविड-19 महामारी के बीच देश के दूरदराज के इलाकों में गये। उन्होंने 15 राज्यों के 15 जिलों के 16 गांवों का दौरा किया तथा सीधे ग्राउंड से प्रामाणिक कहानियां लेकर आये।”

उन्होंने कहा, “जहां मनरेगा का सफल उपयोग कर ढांचा खड़ा किया गया हो, ऐसे गांवों की शिनाख्त करना मुश्किल काम था क्योंकि इस कार्यक्रम के तहत जो भी काम होते है, उनकी मौजूदा स्थिति का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है। सरकार केवल काम की संख्या और काम पूरा हुआ कि नहीं, इसका रिकार्ड रखती है। लेकिन इससे ये पता नहीं चलता है कि मनरेगा के तहत जो ढांचा विकसित किया गया है, उससे गांव में जल सुरक्षा में सुधार हुआ कि नहीं, अथवा आजीविका में सुधार की जितनी अपेक्षा थी, उतनी हो पा रही है या नहीं। डाउन टू अर्थ के पत्रकार इसी की पड़ताल करना चाहते थे।

सुनीता नारायण ने कहा, “लेकिन इनकी क्षमता के व्यवस्थित इस्तेमाल के लिए जरूरी है कि ये ढांचा सुव्यवस्थित और टिकाऊ हो। अतः कह सकते हैं कि ये सुखाड़ के संकटकालीन समय में इस्तेमाल से नहीं, बल्कि सुखाड़ से राहत से संबंधित है।” 

डाउन टू अर्थ के पत्रकारों ने रिपोर्ट के सिलसिले में अनंतपुरमु (आंध्रप्रदेश), जालौन (उत्तर प्रदेश), टिकमगढ़ और सीधी (मध्यप्रदेश), बालांगीर (ओडिशा), पाकुड़ (झारखंड), बांकुड़ा (पश्चिम बंगाल), कैमूर (बिहार), जालना (महाराष्ट्र), पलक्कड़ (केरल), नागापट्टिनम (तमिलनाडु), डुंगरपुर (राजस्थान), सिरसा (हरियाणा), चित्रदुर्गा (कर्नाटक), रांगारेड्डी (तेलंगाना) और साबरकांठा (गुजरात) का दौरा किया। 

जमीनी रिपोर्टों से पता चलता है कि जल संरक्षण ने किस तरह गांव और यहां के विकास की तस्वीर बदल दी है। डाउन टू अर्थ ने तेलंगाना के अनंतपुरमु जिले के बांदलापल्ली का दौरा किया। साल 2006 के फरवरी महीने में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन ने इसी गांव से मनरेगा योजना की शुरुआत की थी। इस गांव से विस्थापन रुक गया है और अब गांव सुखाड़ से बचाव कर लेता है। मध्यप्रदेश के सीधी जिले के बरमानी गांव का दौरान हमने 15 साल पहले किया था। उस वक्त मनरेगा शुरू ही हो रहा था। जल संरक्षण कार्यक्रमों के चलते वहां प्रवासी मजदूर खेती-बारी दोबारा शुरू करने के लिए वापस लौट आए हैं। केरल के पुक्कोत्तुकावु गांव में मनरेगा ने कुआं खोदने में प्रशिक्षित महिलाओं का सबसे बड़ा समूह तैयार कर दिया है। जल संरक्षण का जूनून ऐसा है कि मनरेगा स्कीम के तहत लोगों ने एक पूरी नदी का ही पुनरोद्धार कर दिया। इसके साथ-साथ गांव के गांव में खाद्यान्न उत्पादन में इजाफा हुआ है, जिसके परिणाम स्वरूप आर्थिक लाभ भी बढ़ा है। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के सालभर सूखे की चपेट में रहने वाले बुंदेलखंड क्षेत्र में ऐसे गांव हैं, जो इस कार्यक्रम के जरिए पानीदार बन गये हैं।”

सुनीता नारायण ने बताया: “पानी हमारे वर्तमान और भविष्य को निर्धारित करता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से ज्यादा बारिश और ज्यादा गर्मी पड़ेगी। ऐसे में जल प्रबंधन ही हमारी सफलता या विफलता होगी। आजीविका सुरक्षा के लिए भी जल संरक्षण बहुत अहम है। ये प्रतिकूल मौसम से सामना करने में सक्षम बनाता है। मनरेगा दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक सुरक्षा और जलवायु जोखिम प्रबंधन कार्यक्रम है।” 

महापात्रा ने बताया, “रिपोर्ट में सबसे खास बात ये निकल कर आई है कि गांवों ने तमाम कठिनाइयों को पार कर जल संरक्षण से आर्थिक व पर्यावरणीय लाभ उठाया है और ये भारत के गांवों के जल योद्धाओं की दृढ़ता और मेहनत से ही संभव हो सका है। मनरेगा लागू करने के लिए हर पंचायत को पंचवर्षीय योजना तैयार करना अनिवार्य है। हमारी पड़ताल में पता चला है कि इस योजना पर जोश के साथ काम किया जाता है। ढांचा का निर्माण स्थानीय स्तर पर नियंत्रित रहता है, इससे लोगों में मालिकाना हक का एहसास होता है।”

डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट कहती है, “हर तालाब और टैंक विकास का माध्यम है। मनरेगा ने ऐसे लाखों माध्यम तैयार किया है। किसी भी कसौटी के आधार पर कहा जा सकता है कि मनरेगा देश का सबसे बड़ा जल संरक्षण कार्यक्रम है। लेकिन, 15 सालों के बाद अब वक्त आ गया है कि हम काम को गिनना बंद कर दें। सरकार को अब ये मूल्यांकन करना चाहिए कि इन ढांचों से कितनी क्षमता का दोहन किया गया है। इसके लिए स्थापित किये गये वाटर हार्वेस्टिंग ढांचों से स्थानीय जमीन और जल स्रोतों पर पड़े प्रभावों पर फोकस करना चाहिए। हमारी रिपोर्ट्स में जल संरक्षण से जुड़े ढांचों की समुदायों द्वारा लगातार निगरानी और रखरखाव करने की जरूरत बताई गई है ताकि ये ढांचा काम करता रहे।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि आधे जल संरक्षण ढांचे या तो अधूरे हैं या रखरखाव के अभाव में कुछ साल बाद निष्क्रिय हो गये।” अंत में सुनीता नारायण कहती हैं कि हम लोग पानी को बदलाव का वाहक मानते हुए विश्व पानी दिवस मनाएं। हमारी रिपोर्ट बताती है कि बदलाव संभव है और इन गांवों में फल-फूल रहा है। इन्हें दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत के रूप प्रचारिक करना चाहिए।