गांवों में फसलों की अच्छी उपज के लिए खेतों में यूरिया और डीएपी की खपत बढ़ती जा रही है। इस होड़ ने भूजल को जहरीला और जानलेवा बना दिया है
“मीठा पानी तो भाग्य वालों को मिलता है, कभी हमारे पुरखों ने मीठा पानी पिया था लेकिन हमारी और आने वाली पीढ़ियों को यह नसीब नहीं होगा। हमारे गांव में बरसों पहले जमीन का पानी समुद्र जैसा खारा हो चुका है। सरकारी सप्लाई का पानी इतना खराब होता है कि उसे पिया ही नहीं जा सकता। देखने में हरा-हरा होता है। यह भी नहीं पता होता कि किस वक्त आपूर्ति होगी। सात-आठ किलोमीटर दूर से हमारे गांव में रोजाना चार से पांच गाड़ियां पानी लेकर आती हैं। ज्यादातर गांव वाले इन्हीं गाड़ियों से 10 रुपए में 10 लीटर का एक केन खरीदते हैं। मजबूरी में हम अब सभी इसी पर निर्भर होते जा रहे हैं।”
करीब 38 वर्षीय संदीप कुमार डाउन टू अर्थ से यह बात साझा करते हुए कहते हैं कि उन्हें पानी के बारे में इससे ज्यादा कुछ नहीं पता। हरियाणा के चरखी दादरी जिले में गोठड़ा के रहने वाले संदीप थोड़ा ठिठककर कहते हैं, “अब हमारा भूजल कभी मीठा नहीं हो सकता।” वह इस बात से अनजान हैं कि उनका इलाका भूजल दोहन के मामले में अतिदोहित श्रेणी में दर्ज किया जा चुका है। उनके गांव में भी साफ और मीठे पानी की चाह के लिए किसान अपना सब कुछ दांव पर लगा रहे हैं।
डाउन टू अर्थ ने गोठड़ा गांव से सात किलोमीटर दूर खानपुर खुर्द गांव में एक ऐसे ही किसान से मुलाकात की जिन्होंने वर्ष 2003 में ही 1,020 फुट बोरिंग के लिए छह लाख रुपए खर्च कर दिए थे। झज्जर जिले के खानपुर खुर्द गांव के ओमप्रकाश बताते हैं कि मैंने इस बोरिंग में अपनी सारी जमा-पूंजी गंवा दी थी। मेरे पास 19 किल्ला (एक एकड़ से अधिक) खेत एक ही जगह पर थे।
मैंने सोचा कि बोरिंग से मीठा पानी आएगा तो फसल अच्छी पैदा होगी लेकिन 1,020 फुट की बोरिंग के बाद भी पानी खारा ही मिला। मैंने उसी पानी से दो साल तक सिंचाई की लेकिन खेतों से कुछ हासिल नहीं हुआ। मैंने वहीं खेती छोड़ दी। 2008 में इस इलाके में थर्मल पावर प्लांट के लिए चीन की कंपनी आई तो उसने मेरी जमीन अधिग्रहित कर ली। इससे मेरा जो नुकसान था वह कुछ कम हो गया।
हालांकि, ओमप्रकाश के इस खारे अनुभव के बाद आसपास के गांवों में सबक के तौर पर बोरिंग 250 से 300 फुट तक ही अधिकतम की जा रही है।
मानवजनित प्रदूषण का नया खतरा
गोठड़ा गांव में हर तरफ भूजल के मीठे और खारे पानी की कहानियां लोगों के अनुभवों और स्मृतियों में हैं। हालांकि, इन गांवों में ज्यादातर ग्रामीण इस बात से अनजान हैं कि उनकी जमीन के नीचे पानी सिर्फ खारा भर नहीं है बल्कि उनके इलाके के भूजल में ऐसा प्रदूषण हो चुका है जो शायद ही कभी साफ किया जा सके। भूजल गुणवत्ता के खराब होने में सबसे बड़ी चुनौती मानवजनित नाइट्रेट (एनओ3) प्रदूषण की है। भूजल में नाइट्रेट प्रदूषण की पुष्टि न ही स्वाद, न ही गंध और न ही देखकर हो सकती है।
हालांकि, चरखी दादरी के संबंध में केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) की भूजल गुणवत्ता रिपोर्ट बताती है कि यह जिला देश के सर्वाधिक खारे पानी वाले क्षेत्र के साथ सर्वाधिक नाइट्रेट प्रदूषण वाले इलाकों में से भी एक बन चुका है। और कई इलाके 10 गुना अधिक नाइट्रेट प्रदूषण वाले हैं। सीजीडब्ल्यूबी के मुताबिक, भूजल नमूने में यदि नाइट्रेट की मात्रा 45 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक होने की पुष्टि होती है तो वह पानी जहरीला माना जाएगा। ऐसा पानी पीने से बच्चों और वयस्कों की सेहत पर गंभीर असर हो सकते हैं।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एनवायरमेंटल हेल्थ साइंस के मासिक जर्नल एनवायरमेंटल हेल्थ प्रस्पेक्टिव (ईएचपी) के मुताबिक 1945 में पहली बार अमेरिका में नवजात में ब्लू बेबी सिंड्रोम या मैथेमोग्लोबिनीमिया को शरीर में नाइट्रेट के अधिकता से जोड़ा गया था। ब्लू बेबी सिंड्रोम ऐसी अवस्था है जब रक्त में ऑक्सीजन की अधिकता हो जाती है और शरीर नीला पड़ने लगता है। बच्चों में इसके होने का खतरा ज्यादा है। सीजीडब्ल्यूबी के 2018 के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, चरखी दादरी जिले के भूजल में नाइट्रेट की उपलब्धता 570 मिलीग्राम प्रति लीटर है।
यानी सामान्य मानक से 10 गुणा से भी अधिक है, और यह हाल सिर्फ चरखी दादरी का ही नहीं बल्कि देश के कई शुष्क और अर्धशुष्क अत्यधिक घनी आबादी वाले क्षेत्रों का है। सीजीडब्ल्यूबी के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2000 में देश के कुल 17 राज्यों के 267 जिलों में 1,549 साइटों पर नाइट्रेट प्रदूषण था। हालांकि करीब दो दशक बाद वर्ष 2018 में देश के कुल 19 राज्यों में 298 जिलों की 2,352 साइटों पर नाइट्रेट प्रदूषण अपने सामान्य मानक 45 एमजी प्रति लीटर से अधिक पाया गया है। सीजीडब्ल्यूबी के आंकड़ों के आधार पर देश में वर्ष 2000 से 2018 के नाइट्रेट प्रदूषण की स्थिति का आकलन करें तो दो दशकों में नाइट्रेट प्रदूषण में करीब 52 फीसदी की बढ़ोतरी हुई(देखें, दो दशक में 52 फीसदी बढ़ा नाइट्रेट प्रदूषण,) है।
खेती के विनाशक अभ्यास
डाउन टू अर्थ ने पाया कि चरखी दादरी के गोठड़ा गांव में किसानों को नाइट्रेट के अधिकतम और न्यूनतम मानकों की कोई जानकारी नहीं है लेकिन वह भूजल में मानवजनित प्रदूषण को जाने-अनजाने स्वीकार कर लेते हैं। सुरेंद्र कुमार पानी की एक खाली बोतल लेकर अपने सरसों की ठूंठ वाले खेतों में खड़े हैं। वह कभी बोरवेल तो कभी अपने खेतों को निहारते हैं। सुरेंद्र बताते हैं कि 1995 में हमारे गांव में अच्छी फसल के लिए एक एकड़ में आधा बैग डाई अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) और आधा बैग यूरिया डाला जाता था। वहीं, दो दशक बाद अब फसलों की उतनी ही पैदावार के लिए एक एकड़ में करीब दोगुना रसायन डालना पड़ता है।
सुरेंद्र कहते हैं कि प्रति एकड़ में खेत में अब 3 बैग यूरिया और 3 बैग डीएपी तक की जरूरत लगती है। एक बैग में 45 किलो डीएपी या यूरिया होता है। यदि इससे कम डीएपी और यूरिया का इस्तेमाल करेंगे तो फसल की पैदावार गिरकर आधी हो जाती है। फिलहाल गोठड़ा गांव के खेतों में एक एकड़ में 5 से 6 कुंतल (15 से 16 मन) सरसों और करीब 14 कुंतल (30 से 35 मन) गेहूं की पैदावार हो रही है। सुरेंद्र ने यूरिया के बढ़ने की बात भले बताई लेकिन वह इस बात से अनजान रहे कि खेतों में इस्तेमाल हो रहा अंधाधुंध यूरिया उनकी जमीन के नीचे मौजूद पानी को भी बर्बाद कर देगा।
नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक के सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) के इंडस्ट्रियल पॉल्यूशन विशेषज्ञ देबदत्ता बसु बताते हैं कि भूजल में एक बार नाइट्रेट प्रदूषण हुआ तो उसका साफ होना लगभग नामुमिकन है। आखिर भूजल में नाइट्रेट पहुंचता कैसे है? डॉ बसु बताते हैं कि यह प्रदूषण मानवजनित है। इसके दो प्रमुख स्रोत हैं, पहला कूड़े-कचरे के डंपिंग साइट से जमीन के भीतर गंदे-प्रदूषित पानी का रिसाव और दूसरा कृषि अभ्यास में रसायन का अत्यधिक इस्तेमाल किया जाना।
नाइट्रेट की जद में 38 करोड़
मार्च, 2022 में भारत के भूजल में नाइट्रेट प्रदूषण की स्थिति को अमेरिकन केमिकल सोसाइटी के जर्नल एसीएस पब्लिकेशंस में प्रकाशित शोधपत्र “प्रिडिक्टिंग रीजनल स्केल एलिवेटेड ग्राउंड वाटर नाइट्रेट कंटेमिनेशन रिस्क यूजिंग मशीन लर्निंग ऑन नैचुरल एंड ह्यमून इंडयूस्ड फैक्टर्स” में बताया गया है कि भूजल में नाइट्रेट कई स्रोतों से पहुंच सकता है। इसमें वातावरणीय, शहरी सीवेज का कुप्रबंधन, गंदे पानी का उपचार करने वाले प्लांट की खराब देखरेख व खराब सेप्टिक सिस्टम भी वजह हो सकते हैं। हालांकि, प्रमुखता से पर्यावरण में नाइट्रेट की उपलब्धता कृषि में इस्तेमाल किए जा रहे रासायनिक खाद, जानवरों के खाद और फसलों को लगाने के दौरान होती है। इस शोध पत्र को आईआईटी खड़गपुर के सौम्यजीत सरकार, अभिजीत मुखर्जी, श्रीमंती दत्ता गुप्ता, सौमेंद्र नाथ भांजा और अनिमेष भट्टाचार्य ने संयुक्त तौर पर तैयार किया है। भारत में नाइट्रेट प्रदूषण की भयावह होती स्थिति और अधिक जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्रों पर मंडराते नाइट्रेट के स्वास्थ्य खतरे को जाहिर करने वाले इस शोधपत्र के मुताबिक, देश के शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में पश्चिम, दक्षिण और केंद्रीय भाग सर्वाधिक जोखिम वाले क्षेत्रों की हिस्सेदारी करते हैं। शोध पत्र के मशीन लर्निंग डाटा सेट का अनुमान बताता है कि भारत के 37 फीसदी एरिएल एक्सटेंट और 38 करोड़ लोग नाइट्रेट प्रदूषण के जद में है।
न पीने योग्य पानी का बढ़ता दायरा
सीजीडब्ल्यूबी के नाइट्रेट प्रदूषण के दशकीय आंकड़े (2000-2018) ज्यादातर उन शुष्क और अर्धशुष्क राज्यों की ओर ध्यान खींचते हैं जो प्रमुख कृषि उत्पादक राज्य हैं और जहां खेती में रसायनों का अंधाधुंध या अत्यधिक प्रयोग किया जा रहा है। आंकड़ों के मुताबिक सर्वाधिक नाइट्रेट प्रदूषित राज्यों में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश शीर्ष पर हैं। यही राज्य कृषि क्षेत्र में करीब 70 फीसदी रसायनों का इस्तेमाल करते हैं। स्थिति यह है कि इन राज्यों में अधिकांश क्षेत्र का भूजल अब नॉन पोटेबल कैटिगरी में जा रहा है, मसलन आंध्र प्रदेश में सर्वाधिक नाइट्रेट प्रदूषण वाला जिला गुंटूर और चित्तूर है। सीजीडब्ल्यूबी की गुंटूर जिला सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक यहां नाइट्रेट प्रदूषण का प्रमुख कारण कृषि और मानवीय गतिविधियां हैं। वहीं, चित्तूर जिला सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि यह गौर किया गया है कि नाइट्रेट प्रदूषण और टोटल हार्डनेस के कारण जिले में करीब 10 फीसदी क्षेत्र का भूजल इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। वह नॉन पोटेबल कैटिगरी यानी पीने योग्य नहीं रहा है।
ऐसे इलाके जहां पानी पीने योग्य नहीं रहा है वहां सरकारें अब 2024 तक साफ पानी की आपूर्ति करना चाहती हैं। खासतौर से ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार 2024 तक जल जीवन मिशन-हर घर जल के तहत नलकों (टैप वाटर) के माध्यम से पानी पहुंचाने की योजना चला रही है। लेकिन इन नलकों में साफ पानी भी भूजल से ही पहुंचाया जाएगा। ऐसे में इसकी शुद्धता और आपूर्ति दोनों पर संशय के बादल मंडरा रहे हैं। डॉ बसु बताते हैं कि जब तक सीवेज और कचरा भंडारण के लिए सुरक्षा कवच वाले गड्ढे नहीं बनाए जाएंगे, तब तक भूजल में प्रदूषकों के रिसाव को रोकना बहुत ही मुश्किल है। प्रदूषक यदि भूजल में पहुंच गए तो उन्हें निकाला नहीं जा सकेगा। ऐसे में पहले से ही बचाव के उपाय ही एकमात्र रास्ता हैं।
केंद्रीय भूजल बोर्ड की 2020-21 वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक हरियाणा में भिवाड़ी (अब चरखी दादरी), फरीदाबाद, हिसार, झज्जर, महेंद्रगढ़, पलवल, रोहतक, सिरसा जिलों में अब 50 फीसदी से भी कम भूजल इस्तेमाल लायक बचा है। भारत की खेती-किसानी के लिए 90 फीसदी सिंचाई का पानी भूजल से आता है। जबकि तेजी से खराब हो रही भूजल गुणवत्ता न सिर्फ फसलों की पैदावार को धक्का पहुंचा रही है बल्कि फसल चक्र को ही तोड़ दे रही है।
जलवायु परिवर्तन से बढ़ी समस्या
देश के सर्वाधिक नाइट्रेट भूजल प्रदूषण वाले क्षेत्रों में शामिल हरियाणा के कई गांवों का दौरा डाउन टू अर्थ ने किया। इन गांवों में खारे पानी की गंभीर समस्या के बीच जलवायु परिवर्तन के कारण लगातार कम होती वर्षा ने पहले से ही लोगों को मुसीबत में डाल रखा है। ऐसे ही चरखी दादरी के गोठड़ा गांव में किसान सुरेंद्र कुमार के मुताबिक उनके गांव में खारे पानी की शुरुआत 1995 से हुई थी। इस बात की पुष्टि शुष्क क्षेत्र में वर्षा के आंकड़ों के अध्ययन से भी होती है। वर्ष 2002 में चौधरी चरण सिंह, हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार के एग्रीकल्चर मेट्रोलॉजी डिपार्टमेंट के वैज्ञानिकों ने शुष्क क्षेत्र में 1946 से 1996 तक के दक्षिण-पश्चिम मानसून वर्षा स्वरूप का अध्ययन किया।
इसके मुताबिक हरियाणा के दक्षिणी-पश्चिमी हिस्से में मानसून आगमन में देरी के साथ 31 से 40 फीसदी तक वर्षा में कमी आई। इसके अलावा पुणे के भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने 30 वर्षों के वर्षा आंकड़ों (1989-2021) के आधार पर बताया कि अंबाला, पंचकुला, कैथल, पानीपत, भिवाड़ी और चरखी दादरी जिले में दक्षिणी-पश्चिमी मानसून में बड़ी गिरावट की प्रवृत्ति जारी है। यानी खेती के लिए भूजल का अत्यधिक दोहन और जलवायु परिवर्तन के दौरान वर्षा का अनिश्चित, अनियमित और क्षेत्रवार कम-ज्यादा वर्षा का होना नाइट्रेट संकट को और अधिक बढ़ावा दे रहा है।
गोठड़ा गांव के सुरेंद्र कुमार बताते हैं कि उनके पास कुल 10 एकड़ खेत है जिसमें वह रबी सीजन में गेहूं- सरसों व खरीफ सीजन में अगर बरसात हुई तो बाजरा और ग्वार ही पैदा कर पाते हैं। कई बरस ऐसे रहे जब बारिश नहीं हुई तो खेतों को खाली छोड़ा गया है। वह बताते हैं कि उनके गांव में कभी चने की अच्छी पैदावार थी, लेकिन वह लगभग खत्म हो गई। वहीं, गोठड़ा के ही 70 वर्षीय शेर सिंह बताते हैं कि उनके खेत में बोरवेल से पानी इतना खारा और प्रदूषित निलकता है कि चने और गेहूं की फसलो में फंगस लग जाता है। वह खेती से नाउम्मीद हो चुके हैं। वहीं, तेजी से खराब हो रहे भूजल की उपलब्धता पर भी लगातार संकट के बादल मंडरा रहे हैं जो खाद्य असुरक्षा को भी बढ़ावा दे सकते हैं।
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