जल

आवरण कथा: भूजल में नाइट्रेट सेहत का दुश्मन

जैविक खाद का अधिक मात्रा में उपयोग नाइट्रोजन प्रदूषण को कम करने में मददगार हो सकता है

DTE Staff

प्रभात के तंवर और संगीता बंसल

भारत में रासायनिक खाद तथा कीटनाशकों के उपयोग से भूजल प्रदूषित हो रहा है। भूजल प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों के चलते देश में हर साल कई लाख लोगों की मृत्यु होती है, लेकिन ये समस्या कम होने की बजाए और बढ़ती जा रही है। भारत में कई स्थानों पर तो मनुष्य को शुद्ध पानी की बूंद-बूंद के लिए मोहताज होना पड़ रहा है। देश की जनसंख्या के भरण-पोषण के लिए अधिक फसल उत्पादन हेतु रासायनिक खाद का अधिकतम उपयोग हो रहा है। पिछले कई वर्षों में देश में नाइट्रोजन युक्त खाद की खपत भी बहुत बढ़ी है।

देश के कई स्थानों के वैज्ञानिकों ने भूजल में बढ़ती हुई नाइट्रेट अधिकता का प्रमुख प्रभावी कारण नाइट्रोजन खाद को ही माना है। यह भी देखा गया है कि कृषि के क्षेत्रों में संतुलित खाद की अपेक्षा अधिक मात्रा में नाइट्रोजन खाद का उपयोग हो रहा है जिससे ऐसी स्थिति पैदा हो गई है। एक शोध में जापान इंटरनेशनल रिसर्च सेंटर फॉर एग्रीकल्चरल साइंसेज, इंटरनेशनल कॉर्न एंड व्हीट इम्प्रूवमेंट सेंटर, बास्क कंट्री यूनिवर्सिटी और निहोन यूनिवर्सिटी ने ये पाया कि गेहूं की खेती दुनिया भर में नाइट्रोजन प्रदूषण का एक प्रमुख स्रोत है।

मिट्टी में नाइट्रेट के तेजी से बनने से नाइट्रोजन का रिसाव होता है जो पारिस्थितिक तंत्र को बाधित और मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। इंडियन नाइट्रोजन असेसमेंट (2017) के मुताबिक, हरियाणा में सबसे खराब स्थिति देखी गई है, जहां कुएं के पानी में औसत नाइट्रेट की मात्रा 99.5 मिलीग्राम/लीटर थी, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की सीमा 50 मिलीग्राम/लीटर है। वहीं देखा जाए तो पंजाब के कुछ जिलों में भी नाइट्रेट की मात्रा 94.3 मिलीग्राम प्रति लीटर तक पाई गई है। वहीं बिहार राज्य मक्का का केंद्र बनता जा रहा है। बिहार में मक्का की फसल की गुणवत्ता के स्तर की तुलना अमेरिका से हो रही है। इस कारण फसल उत्पादन में नाइट्रोजन की मात्रा अपने निर्धारित स्तर से अधिक पहुंच रही है जिसके कारण फसल क्षेत्रों के भूजल में अधिक मात्रा में नाइट्रोजन युक्त पानी पहुंच रहा है।

नाइट्रेट, जल या भोजन के माध्यम से शरीर मे प्रवेश करता है एवं मुंह और आंतों में स्थित जीवाणुओं द्वारा नाइट्राइट में परिवर्तित कर दिया जाता है जो पूर्ण ऑक्सीकारक होता है। यह रक्त में उपस्थित हीमोग्लोबिन में उपलब्ध लौह के फैरस को फैरिक में बदल देता है। इस प्रकार हीमोग्लोबिन मैथेमोग्लोबिन में बदल जाता है, जिस कारण से हीमोग्लोबिन अपनी ऑक्सीजन परिवहन की क्षमता खो देता है और अधिक रूपांतरण की स्थिति में आंतरिक सांस (श्वास) अवरोध हो सकता है जिसके लक्षण त्वचा तथा म्यूकस झिल्ली के हरे-नीले रंग से पहचाने जा सकते हैं। इसे ब्लू बेबी सिंड्रोम (साइनोसिस) भी कहते हैं।

इसी प्रकार से पंजाब में भी नाइट्रेट से दूषित भूजल के उपयोग से पाचन तंत्र, गैर-हॉजकिन का लिंफोमा, मूत्राशय और डिम्बग्रंथि कैंसर के मामले देखे जा रहे हैं। इसी प्रकार पशुओं जैसे गाय, भैंस, बकरी आदि में नाइट्रेट का जहरीलापन देखा गया है। यदि पशुओं के चारे को किसी ऐसी भूमि में उगाया जाए जिसमें कार्बनिक तथा नाइट्रोजन पदार्थ अधिक हैं और नाइट्रोजन खाद अधिक मात्रा में उपयोग की गई है अथवा जल्दी में यूरिया जैसे खाद का चारे में छिड़काव किया गया हो तो ऐसी स्थिति में चारे में नाइट्रेट का जहरीलापन अधिक हो जाता है। इससे पशुओं का स्वास्थ्य खराब होता है। अतः भूजल में नाइट्रोजन प्रदूषण को कम करने के लिए उपयुक्त कदम उठाना अति आवश्यक है।

जैविक खाद का अधिक मात्रा में उपयोग इसमें मददगार हो सकता है। नाइट्रेट युक्त जल का रिसाव कम करना और खेती में फसल चक्र को उपयोग में लाना चाहिए।· साथ ही तिलहन और दलहन फसलों को उपजाना चाहिए जिससे वायुमंडलीय नाइट्रोजन का उपयोग अधिक मात्रा में हो और रासायनिक खाद का उपयोग फसल में आंशिक रूप से किया जाए।· इतना ही नहीं, कम पानी वाली नई तकनीकी की खेती प्रोत्साहित करके नाइट्रोजन प्रदूषण को कम किया जा सकता है।

(लेखक नई दिल्ली स्थित सस्टेनबल इंडिया ट्रस्ट में कार्यरत हैं)