“जलाशय पूरे गांव के लोगों का होगा, यहां के हर परिवार की उसमें हिस्सेदारी होगी। चाहे वे जमीन के मालिक हों या बेजमीन। हर परिवार का बराबर जलाधिकार होगा। जिन परिवारों को सिंचाई के पानी की जरूरत नहीं है वे अपने जलाधिकार को अपने पड़ोसी जमीन मालिकों को बेच सकते हैं।” पानी की ऐसी अनूठी हिस्सेदारी की कहानी शुरू होती है हरियाणा के पंचकुला जिले के सुक्खो माजरी गांव से।
परशु राम मिश्रा (पीआर मिश्रा) ने इस गांव में सामुदायिकता के तहत सिंचाई के लिए दो जलाशयों का निर्माण करवाया। इस गांव के 83 परिवारों में से आठ के पास खेती की जमीन नहीं थी तो उनके जलाधिकार की रक्षा के लिए उन्हें इसे पड़ोसी जरूरतमंद को बेचने की व्यवस्था की गई।
“साइक्लिक सिस्टम आॅफ डेवलपमेंट: ए जर्नी विद परशु राम मिश्रा” एक ऐसी किताब है जिसे शोधविज्ञानी गोपाल के कादेकोदी ने उस अगली पीढ़ी के लिए लिखी और संपादित की है जो उस व्यवस्था को असंभव मानने की गलती न करें, जिसे उनके पुरखे संभव कर चुके हैं। आत्म्निर्भर गांव का जो सपना पूरा हो चुका है उसे मिटने से कैसे बचाया जा सकता है।
सुक्खो माजरी पंचकूला जिले में हरियाणा के नक्शे पर एक ऐसा गांव है जहां अर्थशास्त्र का अभिनव प्रयोग किया गया। ऐसा प्रयोग जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन वहां के स्थानीय लोगों ने किया। इसी गांव में चक्रीय विकास प्रणाली का जन्म हुआ। यह प्रणाली मानती है कि प्राकृतिक संसाधनों का हक जनता के पास है।
आगे चल कर इस प्रणाली का प्रयोग दक्षिण बिहार के तीस गांवों में किया गया जो वर्तमान में झारखंड का हिस्सा हैं। इसी चक्रीय विकास प्रणाली को समझने के लिए सबसे पहले चंडीगढ़ के “सेंट्रल सॉयल एंड वाटर कंजरवेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट” पहुंचते हैं गोपाल के कादेकोडी। इस केंद्र का जिम्मा संभाल रहे थे पीआर मिश्रा।
“आत्मसमर्पण से बेहतर है आत्मनिर्भरता”। गोपाल के कादेकोदी जब पीआर मिश्रा से मिलने उनके चंडीगढ़ के दफ्तर में पहुंचे तो दीवार पर लिखे इस वाक्य पर नजर पड़ी। उस वक्त कादेकोदी को अंदाजा नहीं था कि इस एक वाक्य को समझने में वे न सिर्फ अपने जीवन का अहम हिस्सा गुजार देंगे बल्कि इस पर किताब भी लिखेंगे ताकि आने वाली पीढ़ी संपदा प्रबंधन के इस सहज और सरल अर्थशास्त्र को समझ ले। यह अर्थशास्त्र है शून्य के गणित का। जो, जितना और जिनके पास है उसे अपनी जरूरतों के हिसाब से प्रबंधन करने दो। पानी की मिल्कियत जलाशय का निर्माण करने वाले की हो तो पेड़ के फल का मालिकाना हक उन्हें मिले जिन्होंने बीज बोए और पेड़ों की देखभाल की।
“अगर लोग पानी की अपनी जरूरतों का खुद ही प्रबंधन कर लेंगे तो आपको इसमें कोई आपत्ति है?” पीआर मिश्रा के इस सवाल का कादेकोदी के पास सिर्फ किताबी जवाब था कि जल जैसे खुले संसाधन का प्रबंधन राज्य के पास हो तो यही व्यवस्था सबसे फायदेमंद हो सकती है।
इस पर पीआर मिश्रा ने कहा, “आप लोगों ने भारत के लोगों के बजाय सिर्फ विदेशी उपदेशकों से सीखा है। अपने गांव जाइए और वहां के लोगों से सीख-समझ कर वापस आइए।” कादेकोदी उस व्यवस्था के संस्थापक के पास खड़े थे जिसका संदेश था-प्राकृतिक संसाधनों के मालिक लोग हैं न कि सरकार। जल, जंगल हो या जानवरों के चरने की जमीन, सरकारों को सिर्फ अभिभावक होना चाहिए न कि मालिक। आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान और आत्मपूर्णता के तीन स्तरों से चक्रीय विकास प्रणाली द्वारा किस तरह लोग भूमि व जल-प्रबंधन कर गरिमामय जीवन जी सकते हैं इसके जीवंत किरदार इस किताब में हैं।
“पीआर मिश्रा को श्रद्धांजलि” अध्याय में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) के संस्थापक अगुआ अनिल अग्रवाल को उद्धृत किया गया है। अनिल अग्रवाल अपना संस्मरण साझा करते हुए कहते हैं कि मैं पीआर मिश्रा के काम को समझने के लिए गांव गया था। वहां जेठू राम (पीआर मिश्रा की प्रणाली के पहले कार्यकर्ता) ने अनिल अग्रवाल से पूछा “आपने इस जलाशय में क्या देखा?”
अनिल अग्रवाल ने जवाब दिया-“पानी” । जेठू राम ने कहा- “नहीं, मैं इसमें दूध देखता हूं। यह पानी हमें शहद और दूध देता है।” जेठू राम किसी पैगंबर की तरह भविष्यवाणी कर रहे थे जो आगे चल कर सच साबित हुई। सुक्खो माजरी गांव में पेड़ों का घनत्व जो 1976 में 13 प्रति हेक्टेयर था, 1992 में 1,272 प्रति हेक्टेयर हो गया। दूध का उत्पादन बढ़ा, अतिरिक्त घास को गांववालों ने बेचना शुरू किया। वहां अब भूख नहीं संपन्नता थी। 1989 में सुक्खो माजरी भारत का पहला आयकर देनेवाला गांव बन गया।
इसी किताब के सातवें अध्याय में रिचर्ड महापात्रा का वह लेख है जिसमें वे सुक्खो माजरी गांव की सफलता का मूल्यांकन करने पहुंचते हैं। गांव के 1,500 गुर्जर परिवार जेठू राम और मिश्रा जी की चक्रीय प्रणाली के महत्व को समझ चुके थे। रिचर्ड बताते हैं कि कैसे दो दशक के प्रयोग के दौरान सुक्खो मारजी एक आत्मनिर्भर गांव बन चुका है। इसके साथ ही रिचर्ड सरकार के उन कदमों का भी उल्लेख करते हैं जो इस तरह की जनपरियोजना को खत्म करने पर उतारू हैं।
25 मार्च 2001 को पीआर मिश्रा का निधन हो गया था। मिश्रा जी हमेशा इसी सोच में रहते थे कि ऊर्जा का संरक्षण किस तरह करना चाहिए? पीआर मिश्रा शून्य के गणित में यकीन रखते थे। उपेक्षित परती जमीनों के अधिकतम इस्तेमाल से उस भूगोल का जनकल्याण करना।
“साइक्लिक सिस्टम आफ डेवलपमेंट: ए जर्नी विद परशु राम मिश्रा” के लेखक व संपादक गोपाल के कादेकोदी को पीआर मिश्रा के साथ 25 सालों तक काम करने का अनुभव हासिल हुआ। यह किताब मिश्रा की जीवनकथा नहीं कर्मकथा है। पीआर मिश्रा का निजी व्यक्तित्व और समाज को लेकर उनकी मिशनरी सोच मिलकर एक ऐसी जिम्मेदार व्यवस्था तैयारी करती है जहां लोग प्रकृति के जरिए प्राकृतिक रूप से ही आत्मनिर्भर हो सकें। इस किताब के जरिए आनेवाली पीढ़ी के लिए “चक्रीय विकास प्रणाली” का दस्तावेजीकरण कर दिया गया है।
आने वाली कल की पीढ़ी समझ सके कि बीते हुए कल में ऐसी प्रणाली का सफल प्रयोग कर लिया गया था जो जमीन और जन के बीच सरकारों की सिर्फ संरक्षक की ही भूमिका मानती है। यह जमीन को लेकर ऐसा प्रयोग था जिसमें कोई मालिक-मजदूर नहीं बल्कि शिष्य और शिक्षक का रिश्ता तैयार किया गया था। पहले आप एक विद्यार्थी की तरह इस प्रणाली को समझें और फिर एक शिक्षक बन कर आगे के विद्यार्थियों की समझ विकसित करें।
महात्मा गांधी के आत्मनिर्भर गांवों का “हिंद स्वराज” आज भी दूर का सपना है। लेखक ने पीआर मिश्रा के कामों का इस तरह संपादन किया है कि लोग क्रमानुसार समझ सकें कि आत्मनिर्भर गांवों का सपना पूरा हो चुका है और इसे आगे बढ़ाया जा सकता है।
भारत के गांवों के भरण-पोषण का ढांचा किस तरह गांव खुद तैयार कर सकते हैं, इस संदेश को यह किताब सफलतापूर्वक देती है। पर्यावण विज्ञान से लेकर समाज व अर्थशास्त्र की सभी शाखाओं के विद्यार्थियों के लिए यह एक जरूरी सी किताब है जो कहती है भारत के गांव सीखने की किताब व विद्यालय हैं। गांवों पर बाहरी विद्वानों की बनाई व्यवस्था थोपने के बजाए अपने विकास का पाठ्यक्रम उन्हें खुद तैयार करने दीजिए।