जल

दिल्ली-एनसीआर के 100 किलोमीटर के दायरे में भूजल के बढ़ते दोहन के कारण धंस सकती है जमीन

पता चला है कि भूजल का बढ़ता दोहन दिल्ली-एनसीआर के कई इलाकों में जमीन धंसने की वजह बन रहा है, जिसकी दर बढ़ते दोहन के साथ और बढ़ रही है

Lalit Maurya

उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों से पता चला है कि जिस तरह से दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में भूजल को निचोड़ा जा रहा है उसके चलते 100 किलोमीटर के दायरे में जमीन धंसने का खतरे कहीं ज्यादा बढ़ गया है। शोध में सामने आया है कि भूजल का बढ़ता दोहन शहर के कई इलाकों में जमीन धंसने की वजह बन रहा है। ऐसा ही एक मामला दिल्ली अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से सिर्फ 800 मीटर की दूरी पर सामने आया था। 

आईआईटी बॉम्बे, जर्मन रिसर्च सेंटर फॉर जियोसाइंसेज, यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज और सदर्न मेथोडिस्ट यूनिवर्सिटी यूएस के शोधकर्ताओं द्वारा किया यह अध्ययन "ट्रैकिंग हिडन क्राइसिस इन इंडियाज कैपिटल फ्रॉम स्पेस: इंप्लीकेशंस ऑफ अनसस्टेनेबल ग्राउंडवाटर यूज" जर्नल साइंटिफिक रिपोर्टस में प्रकाशित हुआ है। जिसके  अनुसार दिल्ली-एनसीआर के कई इलाकों जमीन धंसने की दर में तेजी आई है। 

शोधकर्ताओं के मुताबिक दिल्ली-एनसीआर में जो जमीन धंसने की प्रमुख घटनाएं सामने आई हैं उनमें से पहली घटना दिल्ली के दक्षिण पश्चिम में कापसहेड़ा में दिल्ली गुड़गांव बॉर्डर में दर्ज की गई थी, जोकि दिल्ली अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से सिर्फ 800 मीटर की दूरी पर थी। यह दिल्ली में जमीन धंसने की सामने आई सबसे बड़ी घटना थी। इसकी जद साढ़े बारह वर्ग किलोमीटर थी।

वैज्ञानिकों ने इसके अध्ययन के लिए उपग्रह सेंटिनल- से प्राप्त आंकड़ों की मदद ली थी। इसमें फेज-1 में 2014 से 2016, फेज-2 में 2016 से 2018 और फेज-3 में 2018 से 2019 के बीच विश्लेषण किया गया था। पता चला है कि 2014 से 2016 के बीच जमीन धंसने की दर 11 सेमी प्रति वर्ष थी जो 2016 से 2018 के बीच 50 फीसदी की वृद्धि के साथ 17 सेमी प्रति वर्ष पर पहुंच गई थी। वहीं 2018 से 2019 के बीच इसकी दर में कोई बदलाव दर्ज नहीं किया गया था।

जमीन धंसने की दूसरी घटना महिपालपुर में हवाई अड्डे से सिर्फ 500 मीटर की दूरी पर दर्ज की गई थी, जहां 2014 से 16 के बीच प्रति वर्ष 15 मिलीमीटर, 2016 से 17 में 30 मिलीमीटर प्रति वर्ष और 2018 से 19 के बीच 50 मिमी प्रति वर्ष की विकृति देखी गई थी।

इसी तरह एक अन्य घटना दिल्ली के द्वारका में दर्ज की गई थी। जहां 2014 से 16 के बीच जमीन धंसने की दर 3.5 सेंटीमीटर प्रति वर्ष थी जो 2016 से 2018 के बीच घटकर 0.5 सेंटीमीटर और 2018-2019 के बीच वापस बढ़कर 1.2 सेंटीमीटर प्रति वर्ष पर पहुंच गई थी। शोधकर्ताओं ने स्थिति में सुधार के लिए वर्षा जल संचयन को लेकर की गई कार्रवाई को जिम्मेवार माना है। 

ऐसी ही एक घटना हरियाणा के फरीदाबाद में दर्ज की गई थी, जोकि दुनिया का तेजी से विकसित होता एक शहर है।  गौरतलब है कि 2014 से 16 के बीच जमीन धंसने की जो रफ्तार 2.15 सेमी/वर्ष थी वो 2018 के अंत तक 5.3 सेमी / वर्ष और 2018-19 के बीच बढ़कर 7.83 सेंटीमीटर प्रति वर्ष पर पहुंच गई थी। जो स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि समय के साथ इसकी दर में वृद्धि हुई है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने तेजी से गिरते भूजल स्तर को जिम्मेवार माना है।  

इस बारे में शोध से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता शगुन गर्ग ने जानकारी दी है कि जमीन धंसने की सभी घटनाओं में सबसे ज्यादा खतरा कापसहेड़ा में हवाई अड्डे के पास सबसे ज्यादा था, जहां लैंड सबसिडेंस दर बहुत ज्यादा थी। उनके अनुसार चूंकि हवाई अड्डों को स्थिर जमीन की आवश्यकता होती है, क्योंकि जहाजों की गतिविधियों के कारण बहुत ज्यादा दोलन होता है।

जमीन धंसने का ऐसा ही एक उदाहरण कुआलालंपुर हवाई अड्डे में सामने आया था जहां इसकी वजह से इंफ्रास्ट्रक्चर को नुकसान पहुंचा था और जलभराव की समस्या पैदा हो गई थी। ऐसे में दिल्ली हवाई अड्डे और उसे जोड़ने वाली सड़कों की निरंतर निगरानी अत्यंत जरुरी है।

क्या है इस समस्या की जड़

देश में गंगा के मैदानी इलाकों में बसे कई शहरों में जमीन धंसने का खतरा है। इनमें दिल्ली भी एक है, जोकि दुनिया के सबसे तेजी से फैलते महानगरों में से एक है। दिल्ली में जनसंख्या घनत्व 30,000 प्रति वर्ग मील है। अनुमान है कि 2028 तक 3.7 करोड़ की आबादी के साथ यह दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला शहर बन जाएगा।

इस बढ़ती आबादी के लिए कहीं हद तक शहर की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था जिम्मेवार है जो ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। ऐसे में बढ़ती आबादी के साथ जरूरतें भी बढ़ती जाएंगी। अनुमान है कि आने वाले समय में दिल्ली एनसीआर को पानी की भारी मांग और किल्लत का सामना करना पड़ सकता है।  यदि 2017 में जारी आर्थिक सर्वेक्षण द्वारा जारी आंकड़ों को देखें तो लगभग 6.25 लाख घर (18 फीसदी) पाइप वाटर से वंचित थे। जो कहीं न कहीं अपनी जल सम्बन्धी जरूरतों के लिए भूजल या निजी टैंकरों पर निर्भर थे। 

देखा जाए तो पानी की मांग और आपूर्ति का यह अंतर 75 करोड़ लीटर प्रतिदिन से ज्यादा है। यही वजह है कि इस खाई को पाटने के लिए भविष्य के परिणामों की चिंता किए बिना भूजल का बड़ी तेजी से दोहन किया जा रहा है। हालत यह है कि दक्षिण-पश्चिम दिल्ली में कई स्थानों पर भूजल का स्तर जमीन से 80 मीटर नीचे पहुंच गया है और यह  3 से 4 मीटर प्रति वर्ष की दर से और नीचे जा रहा है।

हालांकि इससे बचने के लिए सेंट्रल ग्राउंड वाटर अथॉरिटी ने दिसंबर 2018 में वाटर कन्ज़र्वेशन फीस लगाई थी लेकिन इसमें केवल औद्योगिक और घरेलु उपयोग के लिए भूजल निष्कर्षण को शामिल किया गया था, जबकि व्यक्तिगत उपयोग और कृषि सम्बन्धी दोहन को इससे मुक्त रखा गया था। इसके साथ ही भूजल को लेकर जो ज्यादातर नीतियां बनाई गई हैं उनमें दिल्ली एनसीआर में केवल पानी की समस्या को कम करने के लिए ध्यान दिया गया है जबकि इनमें भूमि धंसने जैसी समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया गया है। 

क्या है समाधान

देखा जाए तो जमीन का धंसना एक गंभीर भूवैज्ञानिक घटना है। अकेले भारत ही नहीं दुनिया के कई अन्य देश भी इस खतरे का सामना कर रहे हैं। यदि अमेरिकन जियोलाजिकल सर्वे (यूएसजीएस) की मानें तो दुनिया भर में इस तरह की 80 फीसदी घटनाओं के लिए भूमिगत जल का तेजी से किया जा रहा निष्कर्षण ही जिम्मेवार है। हालांकि इसके लिए खनिज, तेल और गैस का बढ़ता निष्कर्षण भी जिम्मेवार है।

वैज्ञानिकों की मानें तो जब जमीन से पानी बाहर खींच लिया जाता है तो जमीन में खाली जगह बन जाती है जिस वजह से ऊपर की मिट्टी धीरे-धीरे ढह जाती है, जो भू क्षरण का कारण बनती है। साथ ही इसकी वजह से महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे रोड, ब्रिज, घरों आदि को भी नुकसान पहुंचता है। अकेले 2012 में इसकी वजह से करोड़ों डॉलर का नुकसान हुआ था।  

इस बारे में हाल ही में किए एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि आने वाले समय में दुनिया की 19 फीसदी आबादी इस संकट का सामना करने को मजबूर होगी, जिनमें भारत भी प्रमुख है। शोधकर्ताओं के मुताबिक दिल्ली में बढ़ते अनियंत्रित शहरीकरण से भूजल की समस्या और भी जटिल हो गई है। बढ़ते कंक्रीट और अन्य बुनियादी ढांचे ने शहर को पूरी तरह ढंक दिया है, जिससे बारिश का पानी जमीन में नहीं समा पा रहा।

देखा जाए तो रेन वाटर हार्वेस्टिंग इस समस्या का एक समाधान हो सकता है। दिल्ली में औसतन हर साल 611 मिमी वर्षा होती है, जिसका ज्यादातर हिस्सा जुलाई, अगस्त और सितंबर में होता है।  इस वर्षा जल संचयन से न केवल पानी की मांग और आपूर्ति की खाई को पाटा जा सकता है साथ ही भूजल के गिरते स्तर में भी सुधार किया जा सकता है। इसकी मदद से जमीन धंसने की घटनाओं को भी कम किया जा सकता है।

साथ ही क्या इन प्रभावों को पलटा जा सकता है इस बारे में सरकार को और जांच किए जाने की जरुरत है। इतना ही नहीं भूजल के अवैध दोहन पर भी लगाम कसने की जरुरत है। वहीं ऐसे इलाकों में जहां जमीन धंसने की सबसे ज्यादा सम्भावना है वहां निर्माण से पहले व्यापक जांच करने की भी जरुरत है।