क्षारीय जल के प्रचार में विज्ञान से अधिक बाजार की भूमिका है।
यह जल कुछ हद तक अम्लता और पाचन में मदद कर सकता है
लेकिन इसके दीर्घकालिक लाभों के पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं।
अत्यधिक क्षारीय जल के सेवन से स्वास्थ्य जोखिम हो सकते हैं।
शुद्ध और प्राकृतिक जल ही स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम है।
स्वास्थ्य-जागरूकता के इस दौर में पानी भी अपने मूल स्वरूप से आगे निकलकर ‘विशेष’, ‘हीलिंग’, ‘डिटॉक्सिफाइंग’ और ‘एंटी-एजिंग’ जैसे विशेषणों से जोड़ा जाने लगा है। इसी परिघटना का सबसे चर्चित उत्पाद है—क्षारीय जल (अल्काइन वाटर ।
दावा है कि यह हमारे शरीर को अम्लता से बचाता है, हाइड्रेशन बढ़ाता है, उम्र के प्रभाव को कम करता है और अनेक रोगों से मुक्ति दिलाता है। बाज़ार इस जल को चमत्कारिक अमृत की तरह प्रस्तुत कर रहा है, पर क्या इस दावे में वह दम है जो विज्ञापन जगत बताता है? सच की खोज के लिए इतिहास, चिकित्सा परंपरा और आधुनिक विज्ञान तीनों की संयुक्त पड़ताल आवश्यक है।सबसे पहले मूल विज्ञान को समझना ज़रूरी है। पानी का पीएच (अम्लता या क्षारीयता) उसकी गुणवत्ता का सूचक माना जाता है।
सामान्य पेयजल का पीएच लगभग 7 होता है, जिसे तटस्थ कहा जाता है। यदि पीएच 7 से अधिक है, तो वह क्षारीय माना जाता है। आमतौर पर 8 से 9.5 तक। क्षारीय जल में कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटैशियम और सोडियम जैसे खनिज घुले रहते हैं, जो उसे क्षारीयता प्रदान करते हैं। परंतु मानव शरीर का रक्त पीएच अत्यंत संकरे दायरे 7.35 से 7.45 के बीच रहता है।
यह संतुलन शरीर स्वयं श्वसन, गुर्दा और बफर प्रणालियों की मदद से बनाए रखता है। साधारण पेयजल या भोजन इसका संतुलन आसानी से नहीं बिगाड़ पाते, जब तक कि गंभीर रोग न हों। इसलिए शरीर की पीएच सुधारने के नाम पर क्षारीय जल के प्रचार की वैज्ञानिक बुनियाद बहुत मजबूत नहीं मानी जाती।
इतिहास में झांकें तो क्षारीय जल नई खोज नहीं। वैदिक चिकित्सा में ‘क्षार जल’ का उल्लेख मिलता है, जिसमें विशिष्ट वनस्पतियों और राख से बने क्षारीय तत्व मिलाए जाते थे। यह अम्लता, पाचन और दोष संतुलन के उपचार का परखा हुआ साधन था। रोम और यूनान में खनिज-समृद्ध स्पा जल को शरीर शुद्धि और रोग निवारण हेतु उपयोग किया जाता था, जिनका पीएच स्वभाव से थोड़ा क्षारीय था।
जापान में 20वीं सदी में औषधीय झरनों से प्रेरित होकर इलेक्ट्रोलिसिस तकनीक द्वारा आयनित क्षारीय जल बनाया जाने लगा। यही तकनीक आज दुनिया भर में अल्कलाइन वॉटर मशीनों और बोतलबंद पानी के रूप में व्यापार का बड़ा आधार बन चुकी है।
इलेक्ट्रोलिसिस में पानी को विद्युत धारा से दो भागों में विभाजित किया जाता है। एक भाग में हाइड्रोजन आयन कम होकर पीएच बढ़ जाता है और वह क्षारीय बन जाता है। दावा है कि इस प्रक्रिया से जल में एंटीऑक्सीडेंट गुण विकसित होते हैं और इसके जल-कण छोटे हो जाते हैं, जिससे शरीर में हाइड्रेशन बेहतर होता है।
लेकिन वैज्ञानिक समुदाय इस “छोटे जल-क्लस्टर सिद्धांत” को अभी पूरी तरह प्रमाणित नहीं मानता। इसी तरह नकारात्मक ओआरपी (ऑक्सीडेशन रिडक्शन पोटेंशियल) के दावे पर भी गहन शोध की आवश्यकता बनी हुई है।
अब प्रश्न है- क्या यह वास्तव में लाभ पहुंचाता है? कुछ अध्ययन बताते हैं कि अम्लता या एसिड रिफ्लक्स से पीड़ित व्यक्तियों को इस जल से राहत मिल सकती है। कारण स्पष्ट है—उच्च pH वाला जल पेट की अम्लता को कुछ हद तक संतुलित करता है।
मैग्नीशियम और कैल्शियम जैसे खनिज हड्डियों के लिए उपयोगी हो सकते हैं। परंतु यह कहना कि क्षारीय जल उम्र कम करेगा, कैंसर रोकेगा या भारी-भरकम बीमारियों को ठीक कर देगा—वैज्ञानिक रूप से सिद्ध नहीं है।
2021 के स्थापित मेडिकल विश्लेषणों में निष्कर्ष साफ है—क्षारीय जल के दीर्घकालिक लाभों को लेकर पर्याप्त और मजबूत प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए इसे चमत्कार कहना विज्ञान से अधिक बाज़ार की रणनीति है।इसके विपरीत, वास्तविक जोखिम भी अनदेखे नहीं किए जा सकते।
अत्यधिक क्षारीय जल लगातार पीने पर पेट का अम्ल अस्वाभाविक रूप से घट सकता है, जिससे भोजन के पाचन और हानिकारक रोगाणुओं के नष्ट होने की प्रक्रिया प्रभावित होती है। गुर्दों पर भी अनावश्यक बोझ बढ़ सकता है, जिससे मैटाबॉलिक अल्कलोसिस जैसा गंभीर असंतुलन संभव है। चक्कर, उलझन, मांसपेशियों में खिंचाव, मतली इसके सामान्य लक्षण माने जाते हैं।
विषय विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी चेतावनी दी है कि पेयजल का पीएच बहुत बढ़ाना स्वास्थ्य जोखिम का कारण बन सकता है। यानी संतुलन बिगड़े तो लाभ की जगह नुकसान सम्भावित है।भारत के संदर्भ में समस्या और स्पष्ट होती है। यहां के बड़े हिस्से में आज भी पेयजल की मूल समस्या—दूषण, रासायनिक प्रदूषण, फ्लोराइड, आर्सेनिक और स्वच्छ जल आपूर्ति की कमी—अत्यंत गंभीर हैं।
इन वास्तविक समस्याओं को नजरअंदाज कर केवल ‘क्षारीय जल’ को स्वास्थ्य समाधान की तरह प्रस्तुत करना आमजन को भ्रमित करना है। एक लीटर पानी पर 100–300 रुपए खर्च करने वाला यह चलन मध्यम वर्ग और गरीब तबके की पहुंच से बाहर है, और उन मूल जमीनी चुनौतियों पर पर्दा डालता है जिन पर ध्यान होना चाहिए।
साधारण शब्दों में, शरीर को उस पानी की जरूरत है जो शुद्ध, सुरक्षित और प्राकृतिक खनिजों से युक्त हो—न कि अधिक pH के चमत्कारी दावों वाला। प्रकृति का जल स्वयं जीवन के लिए डिजाइन किया गया है; इसलिए उसको कृत्रिम रूप से ‘अधिक बेहतर’ बनाने की कोशिश कई बार विपरीत परिणाम दे सकती है।
आयुर्वेद का भी मूल विचार है—संतुलन। न अधिक अम्लीय, न अधिक क्षारीय—बल्कि शरीर की प्रकृति के अनुरूप जल ही हितकर है।तो क्या क्षारीय जल पूरी तरह निरर्थक? ऐसा कहना भी अतिशयोक्ति होगी। यदि कोई व्यक्ति गैस, एसिडिटी या पाचन संबंधित परेशानियों से पीड़ित है, तो सीमित मात्रा में हल्का क्षारीय जल उसे आराम दे सकता है।
यदि प्राकृतिक स्रोत का पानी क्षारीय है और उसमें खनिज स्वाभाविक रूप से मौजूद हैं, तो वह निश्चित रूप से लाभप्रद है। परंतु व्यक्ति स्वस्थ है और केवल विज्ञापनों के प्रभाव में नियमित रूप से अत्यधिक क्षारीय जल पी रहा है—ऐसे में सावधानी आवश्यक है।
सच यही है कि हर चमकती बोतल के पीछे विज्ञान की रोशनी नहीं होती। कई बार वह केवल बाज़ार की चमक होती है। इसीलिए स्वास्थ्य से जुड़े निर्णय केवल प्रचार और भ्रम के आधार पर नहीं, बल्कि प्रमाण और विवेक के आधार पर होने चाहिए।
वैज्ञानिक दृष्टि स्पष्ट कहती है—क्षारीय जल का उपयोग आवश्यकता और संयम के साथ हो सकता है, पर इसे जीवन-रक्षक या चमत्कारिक पेय के रूप में प्रस्तुत करना तथ्य के साथ अन्याय है।अंततः पानी का मूल्य उसके पीएच में कम, उसकी पवित्रता और विश्वसनीयता में अधिक है। यह जीवनदायी तत्व अपनी सरलता में ही महान है।
उसे जादुई बनाने की कोशिश अक्सर हमें मूल स्वास्थ्य सत्य से दूर ले जाती है। इसलिए यदि स्वास्थ्य चाहिए—तो सबसे पहले शुद्ध और सुरक्षित जल का अधिकार सुनिश्चित करना होगा। क्षारीय जल का सच यही है: यह विकल्प हो सकता है, पर समाधान नहीं। सत्य यह है कि जीवन की प्यास वह पानी बुझाता है, जो प्रकृति ने सरल रूप में हमें दिया है—बिना किसी प्रचार के।