जल

घरों में भू-जल निकासी पर लग सकती है रोक

पानी आपूर्ति करने वाले स्थानीय निकायों की यह जिम्मेदारी होगी कि वह जिन घरों में पाइप के जरिए जलापूर्ति कर रहे हैं उनमें मशीनों के जरिए भू-जल दोहन पर रोक लगाएं।

Vivek Mishra

देश में भू-जल निकासी की निगरानी और उसके संरक्षण को लेकर संभव है कि जल्द ही कोई ठोस गाइडलाइन को अंतिम रूप दे दिया जाए। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेश के बाद केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने एक्सपर्ट पैनल के सुझावों और प्रस्तावों वाली रिपोर्ट को करीब एक महीने की देरी के साथ ट्रिब्यूनल में दाखिल कर दिया है। इस रिपोर्ट में प्रमुखता से कृषि क्षेत्र और घरों में इस्तेमाल किए जाने वाले भू-जल को नियंत्रित करने का सुझाव है। पर्यावरण मंत्रालय की ओर से गठित एक्सपर्ट पैनल ने रिपोर्ट में कहा है कि देश में अकेले कृषि क्षेत्र ही सबसे ज्यादा (करीब 90 फीसदी) भू-जल का इस्तेमाल करता है, ऐसे में निगरानी के लिए इस्तेमाल होने वाले प्रत्येक बोरवेल का रजिस्ट्रेशन जरूरी है। यदि सिंचित क्षेत्र काफी बड़ा है तो इसकी निगरानी खुद केंद्रीय भू-जल प्राधिकरण करे। सुझाव में कहा गया है कि केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की अनुमति से बोरवेल के पंजीकरण और निगरानी के लिए कृषि विज्ञान केंद्रों (केवीके) का इस्तेमाल किया जा सकता है। साथ ही निगरानी के लिए मोबाइल एप या जीआईएस प्रणाली का इस्तेमाल किया जा सकता है। नए प्रस्ताव में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड या प्रदूषण नियंत्रण समितियों को कृषि विज्ञान केंद्रों से जोड़ने की भी बात कही गई है।

गाइडलनाइन के सुझाव में कहा गया है कि घरों में होने वाले भू-जल दोहन को रोकने के प्रयास होने चाहिए। स्थानीय निकाय जैसे नगर निगम या नगर पालिका यदि किसी घर में पाइप से जलापूर्ति को सुनिश्चित करती हैं तो वे संबंधित घर में मशीन से भू-जल दोहन की निकासी पर पूरी तरह रोक लगाएं। इससे पानी की बर्बादी भी कम होगी। वहीं, ऐसे घर जिनका काम भू-जल दोहन के बगैर नहीं चल सकता या उनके घरों में स्थानीय निकायों के जरिए पानी की आपूर्ति नहीं की जा रही, उन्हें भी स्थानीय निकाय से भू-जल दोहन के लिए प्रमाणपत्र हासिल करना होगा।

रिपोर्ट के मुताबिक भू-जल निकासी के लिए अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी) देने और आवेदन को जांचने के लिए एक बड़े तंत्र की जरूरत है। केंद्रीय भू-जल प्राधिकरण के पास देशभर के क्षेत्रीय कार्यालयों में काम करने के लिए सिर्फ 6 अधिकारी मौजूद हैं। वहीं भू-जल प्राधिकरण के चेयरमैन ही केंद्रीय भू-जल बोर्ड का भी काम देख रहे हैं। ऐसे में केंद्रीय भू-जल प्राधिकरण (सीजीडब्ल्यूए) को मानव संसाधन बढ़ाने और खुद को मजबूत करने व वित्त की जरूरत पर काम करके एनबीएल से एप्रूवल लेना चाहिए। वहीं, इस वक्त भू-जल निकासी के लिए सीजीडब्ल्यूए की ओर से जो भी एनओसी जारी की जाती है यदि एनओसी धारक किसी तरह के शर्तों का उल्लंघन करता है तो संबंधित जिले के डीएम या अन्य अधिकारी उस बोरवेल को सील कर देते हैं लेकिन जुर्माने का कोई प्रावधान नहीं है। ऐसे में प्रत्येक एनओसी के साथ शर्तों के उल्लंघन पर जुर्माने का भी प्रावधान किया जाना चाहिए।

एनजीटी ने यह गौर किया था कि ऐसे क्षेत्र (ओसीएस एरिया) जहां अत्यधिक भू-जल का दोहन होता है, वहां रीचार्ज बिल्कुल नहीं किया जाता। खासतौर से भू-जल की निकासी करने वालों को पेयजल गुणवत्ता युक्त रीचार्ज करने की जरूरत है। इसलिए जो भी गाइडलाइन तैयार हो उसमें इसका ध्यान रखा जाए। पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट पर 23 अगस्त, 2019 को सुनवाई होगी। इसके बाद संभव है कि इसे अंतिम रूप दिया जाए। वहीं, मामले में याची इस नए प्रस्ताव पर भी आपत्ति कर रहे हैं। याचियों का कहना है कि एक्सपर्ट पैनल के सुझाव और पचास वर्षीय प्रस्तावित गाइडलाइन काफी कमजोर है। रिपोर्ट में यह भी सुझाव दिया गया है कि केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय उन परियोजनाओं को मंजूरी न दे जो अत्यधिक जल दोहन वाले क्षेत्र (ओसीएस) में भू-जल दोहन की मांग रखते हों। साथ ही ऐसे कृषि क्षेत्र जो शहर से नजदीक है उन्हें सीवेज का शोधित जल सिंचाई के लिए अनिवार्य बनाया जाए। वहीं, शहरी निकाय इसके वितरण को लेकर एक तंत्र भी विकसित करें। इसके अलावा शहरों में जलाशयों के रीचार्ज करने व रेन वाटर हार्वेस्टिंग आदि पर ध्यान देने की बात भी कही गई है। खासतौर से व्यावसायिक जरूरतों के लिए भू-जल के इस्तेमाल पर फीस वसूलने का भी प्रावधान बनाया गया है। 

 एनजीटी ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को 03 जनवरी और 07 मई, 2019 को विस्तृत आदेश देकर कहा था कि मंत्रालय अपने प्रतिनिधि के साथ भू-जल निगरानी और संरक्षण नीति तैयार करने के लिए एक एक्सपर्ट पैनल का गठन करे। जो कि यह सुनिश्चत करे कि भू-जल संरक्षण की जिम्मेदारी किसकी होगी? पीठ ने एक्सपर्ट पैनल में केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय, केंद्रीय पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय, आईआईटी दिल्ली, आईआईटी रूडकी, आईआईएम अहमदाबाद, सीपीसीबी, नीति आयोग व अन्य जरूरी एजेंसियों को शामिल करने का आदेश दिया था। वहीं, सीपीसीबी को जांच, अवैध निकासी, जुर्माना व दंड और व्यक्तिगत मामलों के निपटारे का भी तंत्र विकसित करने का भी आदेश दिया था।

रिपोर्ट के मुताबिक सालाना 230 घन किलोमीटर भू-जल का इस्तेमाल होता है। यह वैश्विक भू-जल इस्तेमाल का एक-तिहाई से ज्यादा है। सरकार के मुताबिक भू-जल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल कृषि क्षेत्र के लिए किया जाता है। अकेले यूपी, बिहार और राजस्थान मिलाकर 20 से 30 फीसदी कृषि उत्पादन के लिए सिंचाई में 63 फीसदी की हिस्सेदारी करते हैं। वहीं, भारत पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा भू-जल का इस्तेमाल करने वाला देश है।

पर्यावरण मंत्रालय को इस गाइडलाइन को एनजीटी में 30 जून तक पेश किया जाना था, हालांकि करीब एक महीने की देरी के बाद जुलाई के आखिरी सप्ताह में गाइडलाइन का प्रस्ताव एनजीटी में दाखिल किया गया है। इस रिपोर्ट के समय से न दाखिल किए जाने के कारण एनजीटी ने इस पर दो बार सुनवाई टाली। अब 23 अगस्त को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से दाखिल किए गए इस प्रस्ताव पर एनजीटी विचार करेगा। याचीकर्ताओं ने इस प्रस्ताव पर सवाल उठाया है। केंद्रीय भू-जल प्राधिकरण की ओर से 2018, दिसंबर में पहली बार भू-जल संरक्षण की नीति का प्रारूप तैयार किया गया था हालांकि, इसमें संरक्षण की बात नहीं थी औ्रर कई खामियां थी। इसलिए एनजीटी ने इस नामंजूर कर दिया था। अब पर्यावरण मंत्रालय के इस प्रस्ताव को कमजोर गाइडलाइन कहकर याची इस पर आपत्ति भी जता रहे हैं।