उŸत्तर-पश्चिम महाराष्ट्र में प्रचलित फड सिंचाई की सामुदायिक व्यवस्था शायद 300-400 साल पहले अस्तित्व में आई। यह व्यवस्था धुले और नासिक जिलों में टापी घाटी में तीन नदियों-पनझरा, मोसम और अराम-के सहरे चलती है। इन नदियों का पानी खेतों की ओर मोड़ने के लिए बंधारों की शृंखला बनाई गई है। इन बंधारों के बारे में गजेटियर आॅफ बांबे प्रेसिडेंसीः खानदेश में विस्तार से चर्चा की गई है। खानदेश के कलक्टर कार्यालय से 1880 में प्रकाशित हुआ यह गजेटियर बंधारों की बनावट के ब्यौरे देने वाला पहला दस्तावेज है। गजेटियर बताता है-
“निश्चित रूप से कभी बड़े पैमाने पर बंधारे रहे होंगे। पश्चिम में तो शायद ही कोई छोटी-बड़ी धारा बची हो, जिस पर बंधारे न बंधे हों।” मान्यता यह है कि इनका निर्माण मुसलमान बादशाहों ने करवाया था। अब तो कई जगह चट्टानें काटकर बनाई गई नींव के गड्ढे ही इनके होने का प्रणाम देते हैं। लेकिन कुछ बंधारे आज भी काम कर रहे हैं और कुछ पानी की कमी, गाद जम जाने या अन्य कारणों से बेकार हो गए हैं। गई जगह बंधारों के टूटे हुए टुकड़े नदी-नालों के इर्द-गिर्द बिखरे हुए मिलते हैं। इनसे बाढ़ के कहर का अंदाज तो होता ही है, चिनाई के काम आने वाले गारे की उत्तम गुणवत्ता का भी पता चलता है। यह भी स्पष्ट है कि बंधारा बनाने के स्थान के चयन में भी काफी सतर्कता बरती जाती थी।
धाराओं के आर-पार सीधे बने कुछेक बंधारों को छोड़ देें तो बाकी बंधारे तिरछे या वक्राकार हैं और जल द्वार निचले हिस्से में हैं। जहां नीचे जमीन मेें चट्टान एक जैसी नहीं है, वहां उनका रुख मुड़ जाता है। बंधारे बनाते समय दीवार की सीध को ध्यान में रखकर चट्टान काटकर छेद बनाए जाते थे। इन छेदों को बंद करने के लिए पत्थर की शिलाओं या कभी-कभी मंदिरों के छोटे स्तंभों को भी प्रयोग में लाया जाता था। बंधारों की दीवार मजबूत होती है और नीचे मोटी तथा सिरा पतला होता है। इसके निर्माण में काले पत्थरों और ईंट की रोड़ी के साथ बने बेहतरीन गारे का इस्तेमाल होता था। दीवार के बाहरी हिस्से में तो बड़ी-बड़ी शिलाएं लगाई जाती थीं। लेकिन भीतर छोटी शिलाओं का इस्तेमाल होता था। बीच में कुछ छोटे-छोटे द्वारों के अलावा बांध में तलछट को रोकने का कोई तरीका नहीं अपनाया जाता था। बांध बनाने में छोटी-छोटी सावधानियां भी बरती जाती थीं, लेकिन नहर-नालियों के मामले में किफायत बरती जाती थी।“
इन बंधारों और नहरों के तंत्र का निर्माण किसके जरिए हुआ, यह जानने के लिए यूं तो कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन रायावत बंधारा क्षेत्र के प्रमुख किसान के पास मौजूद दस्तावेजों में एक से पता चलता है कि यह व्यवस्था उसके पूर्वजों ने बनाई और बाद में स्थानीय राजा से संपर्क करके गांव के मुखिया का वंशानुगत पद हासिल कर लिया। ये मुखिया पाटिल्की कहलाते हैं। बंधारों का रखरखाव और किसानों की मदद से पानी के बंटवारे की जिम्मेदारी पाटिल्की की होती है।
पनझरा नदी पर बने बंधारों की सही-सही संख्या की तो जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन 1964 में पनझरा परियोजना के एक अध्ययन में इनकी संख्या 45 बताई गई है। अब नदी के प्रारंभिक हिस्से में 14 बंधारे कारगर हैं। आखिरी हिस्से में भी कुछेक काम लायक हैं। इन सभी का रखरखाव गांव की परंपरा से लोग तय करते हैं। हालांकि यह व्यवस्था भी गांव के पदाधिकारियों के वंशानुगत अधिकार छिन जाने से टूट रही है। ऐसे हर तंत्र में एक बंधारे से निकली छोटी नहर और नालियों का जाल है।
रायावत बंधारा व्यवस्था में भडाने गांव के पास पनझरा नदी में एक बंधारा है। इससे कुछ सौ हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती है। ज्यादातर जमीन गांव की सीमा के भीतर ही है। सो, इसकी देखरेख में लगाए गए आदमी अगर लापरवाही बरतते हैं तो फौरन कार्यवाही होती है। ज्यादातर किसान एक ही गांव के होते हैं। यहां बुजुर्गों की बात का आदर होता है।
पानी के उचित प्रबंध के लिए सिंचाई की जरूरतों की जरूरतों के अनुसार जल की उपलब्धता महत्वपूर्ण है। फड व्यवस्था हर साल की जरूरतों के मुताबिक दो कोटियां बनाकर चलती है। सिंचाई पर निर्भरता इतनी सीमित है कि अधिकांश वर्षों में बिना दिक्कत के पानी मिलता रहता है। लेकिन जिस साल पानी की कमी हो, उस साल खरीफ के मौसम में भी बारी बांध दी जाती है। जिस साल बारिश अच्छी हो और जो खेत इस व्यवस्था पर निर्भर नहीं होते, उनमें भी पानी पहुंचाया जाता है। जिन खेतों को इस व्यवस्था से सिंचाई का पानी कम मिल पाता है, वे आखिरी छोर पर होते हैं और उनमें महत्वपूर्ण फसलें नहीं उगाई जातीं। इस तरह सिंचाई का घाटा कम कर दिया जाता है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात सिंचाई की जरूरतों के मुताबिक बड़े पैमाने पर नहरों-नालियों का तंत्र है। बंधारा से शुरू होकर खेतों में जाने वाली नालियों तक नहर की जल क्षमता लगभग बराबर होती है। मतलब यह कि नहर के सिरे से लेकर आखिर तक उसकी आवश्यक क्षमता (यानी हर फसल की पानी की जरूरत और नहर में पानी ढोने की वास्तविक क्षमता का अनुपात) साथ-साथ बढ़ती है। इस डिजाइन से फड तक पानी के पहुंचने में एक बेहतर तालमेल बना रहता है।
हर फड में एक फसल लगाने और सिंचाई की उपयुक्त बारी तय करने से सिंचाई व्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाना भी आसान हो जाता है। हर फड के लिए पानी की जरूरत एक समान होती है और फड के समूचे क्षेत्र में एक समान पानी पहुंचाया जाता है। एक फड से दूसरे में पानी का आदान प्रदान भी हर फसल की जरूरत के अनुसार किया जा सकता है। इस तरह ज्वार की फसल के मुकाबले गेहूं की फसल को अधिक पानी मिल सकता है। फड व्यवस्था में पहले के खेतों को पहले पानी मिलता है। जब ऊंचे खेतों की सिंचाई पूरी हो जाती है तो पानी निचले खेतों की ओर ढल जाता है और आखिरी हिस्से के खेतों को पानी पहुंचाने के बाद ही पहले हिस्से के खेतों को दुबारा पानी दिया जाता हे।
एक फड में एक ही फसल उगाई जा सकती है। बरसात शुरू होने के पहले ही किसान अलग-अलग फड में क्या-क्या फसल बोएंगे, यह तय कर लिया जाता है। अदल-बदलकर ऐसी फसल बोई जाती है कि हर फड में दो-तीन साल बाद गन्ने की फसल लगाई जा सके। गन्ना ही एक इलाके की नगदी फसल है। बंधारे के रखरखाव और मरम्मत की जिम्मेदारी तो सरकार की है, लेकिन नहरों का रखरखाव का जिम्मा किसान ही उठा लेते हैं। बंधारों को अमूमन 15-20 साल में मरम्मत की जरूरत पड़ती है। चूंकि यह काम किसानों की क्षमता के बाहर है, इसलिए इसे सरकार के जिम्मे डाल दिया गया है।
वैसे, किसानों का यह संगठन पहले तो बड़े कारगर ढंग से काम करता आया है, पर भविष्य में इस पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। एक वजह तो यह है कि नदियों के मुहाने पर सरकार ने बड़े जलाशय बना दिए हैं जिससे नीचे नदियों में बरसात के बाद धारा कम हो जाती है। इसमें बंधारों तक पानी कम होने लगा है। दूसरी वजह इस इलाके में बड़ी चीनी मिलों का खुल जाना है। इससे गन्ने की मांग बढ़ गई है जो अधिक सिंचाई की भी मांग करता है।
1952 में पनझरा नदी पर सैयदनगर के पास एक नया बंधारा और नहरों का तंत्र बनाया गया। 1970 के दशक में दो जलाशय बनाए गए हैं। ये हैं पनझरा नदी पर पनझरा जलाशय और इसकी सहायक नदी कान पर मालनगांव जलाशय। इन परियोजनाओं के साथ नहरों का व्यापक तंत्र भी जुड़ा है और अपना सिंचाई क्षेत्र है। समूची नदी पर सरकारी अधिसूचना जारी की गई और बंधारों को सिंचाई की पहले दर्जे की व्यवस्था घोषित किया गया है। अधिसूचना जारी होने के बाद नदी से पानी के इस्तेमाल के खातिर किसी व्यक्ति या समूह के लिए सरकारी अनुमति आवश्यक हो जाती है। इसके अलावा सिंचाई की व्यवस्था में बड़ी और मध्यम कोटि की व्यवस्थाएं आती हैं और उनकी देखरेख और संस्थान का जिम्मा सरकारी सिंचाई विभाग का हो जाता है। दूसरे दर्जे की सिंचाई व्यवस्था में छोटी व्यवस्थाएं (सिंचित क्षेत्र 100 हेक्टेयर से कम) होती हैं, जिनमें जलापूर्ति को नियमित बनाने के लिए कोई जलाशय नहीं होता। छोटी व्यवस्थाओं के लिए अलग से कर्मचारी रखना महंगा माना जाता है। सो, दूसरे दर्जे की व्यवस्थाओं के संचालन, रखरखाव और मरम्मत का काम लाभार्थियों के हिस्से छोड़ दिया जाता है। साथ ही, पहले दर्जे की व्यवस्था के मुकाबले इनमें सिंचाई शुल्क भी काफी कम लगता है।
बंधारों में पानी के बंटवारे के तौर-तरीकों और संचालन के नियमों का कभी अधिग्रहण नहीं किया गया। बंधारों की नहरों में पानी की व्यवस्था अभी भी अनियमित है। अब किसान जलाशय से आपूर्ति को अपर्याप्त मानने लगे हैं। उन्हें लगता है कि पहले की तुलना में नदी की धारा अनियमित हो गई है, इसलिए फड व्यवस्था में जलापूर्ति में अधिक संतुलन कायम करने की जरूरत है। जलापूर्ति के मामले में स्थितियां बदलने से सामूहिक व्यवस्था भी खतरे में पड़ गई है।
यह जानना दिलचस्प है कि बंधारों से पानी निकालने पर रोक लगाने के लिए सिंचाई विभाग को अक्सर पुलिस की मदद लेनी पड़ती है। बंधारों के बाद पड़ने वाले धुले शहर में नदी जल ही पीने के काम आता है। सो, इसे पहली प्राथमिकता माना जाता है। जलापूर्ति का संचालन तो जलाशय से ही होता है, मगर सिंचाई के लिए प्यासे खेतों की फड व्यवस्था के लिए पानी ले लेना आसान है। इसीलिए पुलिस की गश्त की जरूरत पड़ती है। बंधारों को सिंचाई की पहले दर्जे की व्यवस्था की घोषणा से सरकार की सिंचाई शुल्क की दरें भी काफी बढ़ गई हैं। पहले शुल्क की दर काफी कम हुआ करती थी और जमीन के लगान में ही जुड़ी होती थीं। सो, उपयुक्त सेवाओं के बिना यह अतिरिक्त बोझ आने और रखरखाव के बढ़ते खर्च के चलते सिंचाई का लाभ भी काफी खर्चीला हो गया। ये समूह अभी भी काम कर रहे हैं, पर सरकारी समर्थन मिले इसकी आवाज उठती ही रही है। फड प्रणाली को प्रभावित करने वाली दूसरी प्रमुख चीज है सत्तर के दशक में गन्ने की खेती का जोर पकड़ना। इसके चलते गन्ने के खेतों की सिंचाई के लिए नहर के पानी की मांग बढ़ गई है। इसका असर फड़ों के लिए अच्छा नहीं हुआ है। नदी का पानी आने के चलते फडों के खेतों में ज्यादा से ज्यादा गन्ना लगाने का चलन बढ़ता जा रहा है और इस सबके लायक पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं है। पहले पानी की कमी होती थी तो किसान इंद्र देवता या नदी की धारा में ऊपर बने बंधारा वाले गांवों को कोसते थे। अब सारा दोष सरकार को दिया जाता है।
यह साफ लगता है कि बदला सामाजिक आर्थिक माहौल इस पारंपरिक प्रबंध व्यवस्था के लिए खतरा पैदा कर रहा है। अगर इस पूरी प्रणाली को आधुनिक नहीं बनाया गया, पानी मापने वाले उपकरण नहीं लगाए गए, किसानों को नई फसलों के बारे में प्रशिक्षित नहीं किया गया और पानी की बचत वाली सिंचाई व्यवस्था नहीं लगाई गई तो कम-से-कम पनझरा नदी से जुड़ी फड प्रणाली तो समाप्त हो ही जाएगी। बांधों-जलाशयों का कितना पानी शहरों को भेजा जाए और कितना नहरों-फडों को, इस बारे में भी साफ मानदंड बनने चाहिए और स्थिति पर नजर रखने के लिए प्रभावी व्यवस्था का गठन भी होना चाहिए।
(“बूंदों की संस्कृति” पुस्तक से साभार)