जल

बिहार की जल जीवन हरियाली योजना पर 24 हजार करोड़ खर्च, लेकिन नतीजा सिफर

बिहार सरकार की महत्वाकांक्षी जलवायु परिवर्तन परियोजना भूमिगत जल, सिंचाई जल स्रोत में वृद्धि और वृक्षारोपण के जरिए प्रदूषण कम करने में अब तक असमर्थ रही है

Rahul Kumar Gaurav

भागलपुर के कजरैली गांव में बिहार के पर्यावरण विभाग ने 2021-22 में लगभग 4,000 पौधे लगाए लेकिन ग्रामीण इस बात से चिंतित हैं कि यहां हुआ वृक्षारोपण कहीं असफल न हो जाए। ग्रामीणों की चिंता की वजह यह है कि जिस जगह यह काम हुआ है, वहां दो साल पहले तक चंपा नदी बहती थी।

भागलपुर शहर से लगभग 15 किलोमीटर दूर कजरैली गांव के रहने वाले वाले 47 वर्षीय हरिशंकर महतो बताते हैं, “जब भी अधिक बरसात होगी, नदी के पानी में कई पौधे डूब जाएंगे। पिछले साल इलाके में सुखाड़ रहा। इस बार भी बारिश सामान्य ही रही है, इसलिए नदी में अब तक पानी नहीं आया। लगाए गए आधे से ज्यादा पौधों को मवेशी चर चुके हैं। पौधे लगाने के बाद न उनकी घेराबंदी की गई, न ही पटवन (सिंचाई)।”

बिहार सरकार जल, जीवन, हरियाली स्कीम के तहत 11 मुद्दों पर काम कर रही है जिसमें से 7 का मकसद जल संचयन और संग्रहण है। बाकी चार वृक्षारोपण, वैकल्पिक या जैविक कृषि, सौर ऊर्जा और अभियान के प्रति लोगों को जागरूक करने से संबंधित है। चंपा नदी का जीर्णोद्धार भी मिशन का हिस्सा है।

विक्रमशिला डॉल्फिन अभयारण्य में काम कर रहे पर्यावरणविद दीपक कुमार बताते हैं, “एक तरफ चंपा नदी के जीर्णोद्धार में करोड़ों रुपया खर्च किया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ चंपा नदी में ही वृक्षारोपण हो रहा है। इसका मतलब है कि प्रशासन भी मान चुका है कि चंपा नदी में पुनः पानी नहीं आएगा। पूरे बिहार में वृक्षारोपण की यही स्थिति है।”

बिहार सरकार की जल जीवन हरियाली योजना पर 2019-22 तक 24 हजार 524 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। वहीं वित्तीय वर्ष 2022-2025 तक कुल 12,568.97 करोड़ रुपए के आवंटन को मंजूरी दी गई। इस अभियान के तहत सरकार के 15 विभाग एक साथ काम कर रहे हैं।

नीति आयोग की एसडीजी इंडिया इंडेक्स 2020-21 की रिपोर्ट में बिहार सरकार के इन प्रयासों को क्लाइमेट एक्शन के संदर्भ में विफल बताया गया। सूचकांक में बिहार आखिरी स्थान पर है। उसे 100 में सिर्फ 16 अंक मिले हैं। वहीं ओडिशा को 100 में 70 अंक देकर पहले स्थान पर रखा है। राष्ट्रीय जलवायु भेद्यता आकलन रिपोर्ट ने आठ पूर्वी राज्यों को जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील माना गया है। इसमें बिहार भी शामिल है।

बिहार में जल संचयन और संग्रहण पर काम कर रहें मेघ पाइन अभियान के संस्थापक एकलव्य प्रसाद बताते हैं, “सरकार द्वारा कुओं का जीर्णोद्धार कराया जा रहा है, लेकिन बिहार में कितने लोग कुएं का पानी पीते हैं? कुओं के जीर्णोद्धार के बाद अगर इसका उपयोग नहीं होगा तो वे पुन: उसी हालत में पहुंच जाएंगे।” प्रसाद का मानना है कि गांव, जहां जलवायु परिवर्तन का असर सबसे ज्यादा है, वहां लोगों को इसके बारे में पता भी नहीं है। सरकार को पहले इन लोगों को जागरुक करना चाहिए।”

प्रसाद आगे कहते हैं, “सवाल यह भी है कि सरकार की योजना से जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान को हम कितना कम कर पा रहे हैं? इसका कोई भी आंकड़ा सरकार के पास नहीं है।” पटना में कार्यरत पर्यावरण विभाग के एक अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, “इस अभियान में 15 विभाग एक साथ काम कर रहे हैं। इसलिए सामंजस्य की कमी है। योजना को कम विभागों तक सीमित रखा जाता तो ज्यादा काम होता।”

मौसम की मार

कृषि विभाग के मुताबिक, 2022 में बिहार के 11 जिलों के 96 प्रखंड के 937 पंचायत में शामिल 7,841 राजस्व गांवों को सूखाग्रस्त घोषित किया गया था। मौसम विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल धान रोपनी के मुख्य समय यानी 1 जून से लेकर 31 जुलाई के दौरान बिहार में सामान्य से 48 प्रतिशत बारिश कम हुई। लगभग 7 से 8 जिलों में इतनी कम बारिश हुई थी कि चापाकल सूख चुका था।

जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर बिहार के सीमांत किसानों पर पड़ रहा है। बिहार में कुल 104.32 लाख किसानों के पास कृषि भूमि है, जिनमें से 84.46 लाख यानी 82.9 प्रतिशत सीमांत हैं। 9.6 प्रतिशत छोटे किसान हैं। राज्य में केवल 7.5 फीसदी बड़े किसानों के पास ही दो हेक्टेयर से ज्यादा की जमीन है। बदली जलवायु परिस्थितियों के चलते कई बड़े किसानों ने नई फसलों की ओर रुख किया। इसके लिए सरकार और विभिन्न एनजीओ से मदद भी मिल रही है। लेकिन सीमांत एवं छोटे किसानों के लिए यह संभव नहीं है क्योंकि इसमें काफी निवेश और जमीन की आवश्यकता होती है।

उनके लिए पलायन के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है। दाल का कटोरा कहे जाने वाले मोकामा टाल क्षेत्र के किसान प्रणव शेखर शाही बताते हैं, “मौसम की अनिश्चितता की वजह से काफी नुकसान हो रहा है। कभी समय पर बारिश नहीं होती तो कभी इतनी हो जाती है कि खेत से पानी निकालना मुश्किल हो जाता है। पिछले साल मोकामा टाल में लगभग 5,000 बीघा जमीन में पानी लगा हुआ था। पानी भरने से एक बीघा में ₹8,000 वार्षिक नुकसान होता है।”

राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक शंकर झा बताते हैं , “जलवायु परिवर्तन ने मॉनसून को बहुत प्रभावित किया है। 5 साल पहले की तुलना में अब लगभग 15 दिन कम बारिश होती है। इस बदलाव के कारण राज्य का एक जिला बाढ़ तो दूसरा सूखे से प्रभावित रहता है। बिहार की बहुसंख्यक आबादी खेती, मछलीपालन और पशुपालन से जुड़ी हुई है जो जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रही है।”



हरियाली बढ़ाने के दावे

ग्रामीण कार्य विभाग के तहत सड़क के किनारे वर्ष 2020-21 में 120.46 लाख पौधे लगाए गए। इसी के तहत सुपौल जिले के एकमा पंचायत से वीणा पंचायत के बीच लगभग 500 पौधे लगाए गए थे। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, इनमें से 50 भी सुरक्षित नहीं हैं। पौधे लगाने में वीणा पंचायत के सुरेंद्र मंडल भी शामिल थे। वह बताते हैं, “पौधे जहां लगे हैं, वहां बस्ती नहीं है। इस वजह से कई पौधे को मवेशियों ने तो कई लापरवाही की वजह से बर्बाद हो गए। पौधा लगाना बड़ी बात नहीं है, पौधे को सहेजना बड़ी बात है।” बिहार कृषि विभाग में प्रखंड कृषि अधिकारी के पद पर रह चुके अरुण कुमार झा के मुताबिक, सरकार द्वारा जितने पौधे लगाए जाते हैं, उसके 20 प्रतिशत पौधे भी सुरक्षित नहीं बच पाते। पर्यावरण विभाग के मुताबिक, जल जीवन हरियाली मिशन के तहत 2020-21 में लगभग 3.92 करोड़ पौधे वितरित किए गए, जबकि लक्ष्य सिर्फ 2.51 करोड़ पौधे लगाने का था।

इसके अलावा राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम, नमामि गंगे परियोजना के तहत पौधे लगाए जा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ पर्यावरण विभाग के मुताबिक, 2020-2021 में 432.78 हेक्टेयर वन क्षेत्र को विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए गैर वन क्षेत्र में तब्दील कर दिया गया था। अगर 5 साल के आंकड़ों को देखा जाए तो 1,603.8 हेक्टेयर में फैले वनक्षेत्र को विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए गैर वन क्षेत्र में तब्दील कर दिया गया। जंगल में आग लगने की संख्या में भी बढ़ोतरी हो रही है।

2019-20 में 425.3 हेक्टेयर भूमि में जबकि 2020-21 में 572.4 हेक्टेयर जंगल में आग लगी थी। आग और जंगल कटने से पुराने जंगल बर्बाद हो रहे हैं। सरकार नए वृक्षारोपण करके इसकी भरपाई का दावा कर रही है। इन दोनों आंकड़ों को देखने के बाद लगता है कि सरकार एक तरफ वृक्षारोपण पर जोर दे रही है तो वहीं दूसरी तरफ सरकारी योजनाओं के लिए वन क्षेत्र को खत्म कर रही है। भारतीय वन स्थिति रिपोर्ट 2021 के अनुसार, बिहार में 2019 के मुकाबले 2021 में अति सघन वन में 0.1 प्रतिशत की गिरावट आई। मध्यम सघन वन में 0.4 प्रतिशत की गिरावट आई। वहीं खुले वन में 1.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शोधार्थी सुधीर कुमार कहते हैं, “विकास के दौर में बिहार में जंगली वृक्षों को अंधाधुंध काटा गया है। अति सघन वन और मध्यम सघन वन को बर्बाद करके हम खुले वन लगने की मदद से इसकी भरपाई नहीं कर सकते।”


बदहाल नदियां

जल जीवन हरियाली अभियान के तहत सरकार जल संचयन और संग्रहण का भी जिम्मा उठाती है। इन तमाम योजनाओं के बावजूद राज्य की अधिकांश नदियां और नहरें विलुप्ति की कगार पर हैं। जैसे भागलपुर की चंपा नदी पर निर्भर किसान बुरे हाल में हैं, वैसे ही पश्चिम चंपारण के माधोपुर मन प्रखंड के उत्तरी और दक्षिणी श्रीपुर गांव के किसान सिंचाई के लिए धनौती नदी पर निर्भर हैं। लेकिन नदी की स्थिति दिनों-दिन बदतर हो रही है।

नदी की वर्तमान स्थिति पर चिंतित सामाजिक कार्यकर्ता चांद अली बताते हैं, “चंपारण की पहचान धनौती सिर्फ 40 साल पहले 200 से 250 फीट की हुआ करती थी। आज यह नदी सिर्फ 40-45 फीट में तब्दील हो गई है। नदी को लोगों के द्वारा हड़पा जा रहा है।” पूर्वी चंपारण स्थित आपदा प्रबंधन विभाग के अपर समाहर्ता अनिल कुमार बताते हैं, “गाद नदियों की बड़ी समस्या है। हमारी टीम नदी से मिट्टी व गाद हटाने के साथ अतिक्रमण हटाने पर भी काम कर रही है।”

भागलपुर स्थित पर्यावरणविद ज्ञान चंद ज्ञानी बताते हैं, “राज्य में जलाशय तेजी से सूख रहे हैं। गजना, अंधरा, महमूदा, दरधा और फल्गू जैसी छोटी नदियां गाद और अतिक्रमण की शिकार हो रही हैं। जल संसाधन विभाग छोटी-छोटी नहरों पर काम कर रहा है, लेकिन जब नदी ही खत्म हो जाए तो नहर को बचाने से क्या फायदा।”



भूजल में गिरावट

जल जीवन हरियाली अभियान के 11 घटकों में से 7 जल संरक्षण से जुड़े हैं। इनके अंतर्गत तालाबों, कुओं का जीर्णोद्धार व चेकडैम और सोख्ता का भी निर्माण किया जा रहा है। इसका मुख्य मकसद है भूजल स्तर में सुधार। जल संसाधन विभाग के आंकड़ों के अनुसार, राज्य के 23 जलाशयों में से सिर्फ तीन में जल स्तर 40 प्रतिशत से अधिक है जबकि कुछ लगभग सूखे हैं या 10 प्रतिशत से कम जलस्तर है।

वहीं लघु जल संसाधन विभाग के अनुसार, नहरों और लघु सिंचाई स्रोत से सिंचित क्षेत्रफल विगत वर्षों के दौरान लगातार घटता गया है। 2016-17 में यह 1,27,300 हेक्टेयर था, जबकि 2020-21 में 1,17,760 क्षेत्रफल हेक्टेयर था। इसका अर्थ है कि कुओं और सोख्ता निर्माण के बावजूद भी भूजल स्तर में कमी आ रही है।

जल संरक्षण के उद्देश्य से जल जीवन हरियाली अभियान के तहत वन विभाग द्वारा दिए गए आंकड़ों के मुताबिक, 2020-21 में 6,097 तालाबों को पूर्ण जीवित किया गया, जबकि 85,233 सोख्ता और 1,701 चेकडैम का निर्माण किया गया। इतने बड़े-बड़े दावों के बावजूद बिहार के अलग-अलग इलाकों में बीते 10 साल में भूजल स्तर में 10 फीट से 200 फीट तक गिरावट आई है। भूजल बोर्ड द्वारा 2020 में जारी आंकड़ों में 63 प्रखंडों में जलस्तर में कमी देखी गई।

कोसी बैराज पर काम कर चुके रिटायर्ड इंजीनियर अमोद कुमार झा बताते हैं, “आपदा से परेशान किसी व्यक्ति को अंत तक ध्यान में रखकर अगर सरकारी अधिकारी काम करेंगे तो क्लाइमेट एक्शन सुधार ला सकता है। जब तक जलवायु संकट के मसले को सामाजिक न्याय से जोड़कर नहीं देखा जाएगा इसका समाधान सही तरीके से नहीं हो सकता।”

(राहुल कुमार गौरव बिहार में स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं। इस लेख को लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच, जो भारत में भूमि संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधन संचालन का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं का एक स्वतंत्र नेटवर्क है, की मदद से किया गया है)