विज्ञान

पर्यावरण इतिहास: गधे कैसे बने ‘गधे’?

DTE Staff

मिस्र में एक शाही कब्रिस्तान की खुदाई कर रहे अमेरिकी पुरातत्वविदों के एक दल को गधों के कंकाल मिलने की उम्मीद कतई नहीं थी। इससे पहले मिस्र के किसी कब्रिस्तान में ऐसा कोई जानवर नहीं मिला था। काहिरा से 500 किलोमीटर दक्षिण में नील नदी के किनारे प्राचीन अबिदोस शहर के कब्रिस्तान में 10 गधों के कंकाल मिलना एक विचित्र बात थी। इन गधों को ऐसे दफनाया गया था, मानो ये कोई आला अधिकारी हों। इन कंकालों से पांच हजार साल पहले गधों को पालतू बनाए जाने के प्रमाण मिलते हैं। यह खुदाई वर्ष 2002 में हुई थी। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर फियोना मार्शल और उनके साथी इस खोज से आश्चर्यचकित रह गए थे। साल 2008 में उन्होंने इस बारे में ‘द प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज’ नामक जर्नल में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की।

मार्शल लिखती हैं, “हम हैरान थे कि कब्रों की खुदाई में कोई नर कंकाल नहीं मिला, लेकिन दस गधे मिल गए। इनके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था। अबिदोस में मिली मुहरों और कब्रि‍स्तान की वास्तुकला से अनुमान लगाया गया है कि यह कब्रि‍स्तान ईसा से करीब तीन हजार साल पहले का है। उस समय गधों का डील-डौल जंगली गधों से मिलता-जुलता रहा होगा और उनकी उम्र 8 से 13 साल के बीच होती होगी। खुदाई में मिले गधों की हड्डियों में बारीक फ्रैक्चर पाये गए हैं जो अत्यधिक बोझ और मोच का संकेत हैं। इनके कंधों और कूल्हों जैसे बड़े जोड़ों की हड्डि‍यां खुरदरी और नरम हड्डि‍यां घिस चुकी थीं। प्रोफेसर मार्शल मानती हैं कि ढुलाई में गधों के इस्तेमाल के ये पहले पुख्ता प्रमाण हैं।

अनुवांशिक अनुसंधानों में गधे को अफ्रीकी मूल का जानवर माना गया है, लेकिन इन्हें पालतू बनाये जाने के समय और स्थान के बारे में निश्चित तौर पर कुछ कहना मुश्किल था। पुरातत्वविदों को यकीन है कि मिस्र में हुई यह खुदाई इतिहास की इस प्राचीनतम पहेली का हल सुझा देगी। प्रोफेसर मार्शल कहती हैं, “संभवत: गधों की वजह से ही मिस्र और सुमेर के बीच लंबी दूरी के व्यापारिक मार्गों को तय करना संभव हो पाया होगा।” इन्हें ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती और ये थोड़े-बहुत चारे पर गुजारा कर सकते थे। यह पहली बार था, जब ढुलाई के लिए किसी जानवर का इस्तेमाल किया गया।

मार्शल और उनके साथियों ने अबिदोस में मिले गधों के कंकालों की तुलना आधुनिक काल के 50 से ज्यादा गधों और अफ्रीकी जंगली गधों के कंकालों के साथ की है। इस आधार पर माना जा सकता है  कि अबिदोस के गधे सोमाली जंगली गधों के समान दिखते होंगे। अफ्रीकी जंगली गधों की यह प्रजाति आज भी जीवित है। इसका मतलब यह है कि अबिदोस में मिले गधों का वजन करीब 270 किलोग्राम था, जो आजकल के गधों के मुकाबले बहुत अधिक है। 

ये नतीजे जानवरों को पालतू बनाये जाने की उस परंपरागत अवधारणा से उलट है, जिसके अनुसार मानव द्वारा खेती, भोजन और परिवहन के लिए पालतू बनाये जाने की वजह से जंगली जानवरों की शारीरिक बनावट छोटी होती चली गई। स्वच्छंद रूप से विचरण करने वाले जंगली गधों के मुकाबले पालतू गधों के छोटे आकार को भीड़-भाड़ और कड़ी मेहनत वाले माहौल से जोड़कर देखा जाता था।

स्मिथसोनिअन नेशनल म्यूजि‍यम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री की कार्यक्रम निदेशक मेलिंडा ए. जीडर कहती हैं, “पालतू बनाये जाने की वजह से पशुओं का डील-डौल घट जाने के विचार में खास दम नहीं है।” बकरियों को पालतू बनाये जाने पर अध्ययन कर चुकी जीडर के मुताबिक, पालतू बनाये जाने की वजह से गधे छोटे नहीं हुए बल्कि यह परिवर्तन कई सदियों में हुआ है।

न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ फाइन आर्ट्स में मिस्र की कलाओं के प्रवक्ता और पुरातत्वविद मैथ्यू डी. एडम्स कब्रों की खुदाई करने वाली उस टीम में शामिल थे। वह बताते हैं कि जिस जगह इन गधों को दफनाया गया था, वह दरबारियों के लिए आरक्षित रखी जाती थी। लेकिन शरीर का आकार घटने के साथ-साथ गधा गरीब का जानवर बनता गया। जबकि प्राचीन मिस्र में गधों को बहुत श्रेष्ठ समझा जाता था। माना जा सकता है कि गधों में बदलाव का सिलसिला इनके पालतू बनाये जाने से कहीं ज्यादा पुराना है।

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पर्यावरण इतिहास पर सीएसई द्वारा वर्ष 2014 में प्रकाशित पुस्तक “Environmental History Reader ” के अनुवादित अंश