एक नए अध्ययन में पाया गया है कि मनुष्य के चेहरे पर पाए जाने वाले बेहद सूक्ष्म परजीवी घुन में आनुवांशिक बदलाव हो रहे हैं। यह बदलाव मनुष्य के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।
माॅलीक्युलर बाॅयोलाॅजी एंड इवोल्युशन, नाम के जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, अंतःप्रजनन और जीनों के नुकसान होने के चलते 0.3 मिलीमीटर लंबाई के इन परजीवियों को विलुप्त होने के खतरे का सामना करना पड़ सकता है।
इस परजीवी घुन का वैज्ञानिक नाम डेमोडेक्स फाॅलीकुलोरम है और यह इंसान की पलकों, भौंहों और नाक के करीब पाया जाता है। चेहरे पर पाए जाने वाले इस परजीवी की दूसरी ज्ञात प्रजाति का नाम डेमोडेक्स ब्रेविस है, हालांकि उसे इस अध्ययन में शामिल नहीं किया गया था।
बांगोर विश्वविद्यालय और सैन जुआन के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के अध्ययन के सह-लेखक ने हेंक ब्रेग ने डाउन टू अर्थ को बताया,- ‘डेमोडेक्स फाॅलीकुलोरम निश्चित रूप से यूरोप में इंसान के चेहरे पर पाई जाने वाली मुख्य परजीवी प्रजाति है। डेमोडेक्स ब्रेविस का नंबर इसके बाद आता है।’
अन्य अध्ययनों के आकलन के मुताबिक, पचास से लेकर सौ फीसदी तक वयस्क मनुष्यों में ये परजीवी पाए जा सकते हैं।
उनकी सघनता के अलावा उनके बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। उदाहरण के लिए अध्ययन करने वाले ये नहीं जानते कि ये परजीवी रात्रिचर क्यों हैं और इतने सालों में ये कैसे विकसित हुए हैं।
ब्रेग और उनके सहयोगी डेमोडेक्स फाॅलीकुलोरम के डीएनए को जुटाकर और उसका विश्लेषण करके इन जानकारियों की कमी को पूरा करना चाहते थे।
यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग में अकशेरुकी जीव विज्ञान की एसोसिएट प्रोफेसर और इस अध्ययन का सह-नेतृत्व करने वाली अलेजांद्रा पेरोटी ने एक बयान में कहा कि इन परजीवियों ने मनुष्य की त्वचा के छिद्रों के अंदर एक आश्रययुक्त जीवन जीने के लिए अपने को अनुकूलित किया है।
उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है। शोधकर्ताओं ने उनके डीएनए में बदलाव रिकॉर्ड किया, जिसके चलते उनमें असामान्य शारीरिक विशेषताएं और व्यवहार देखा गया।
अध्ययन दर्शाता है कि यह प्रजाति बेहद सरल हो चुकी है। शोधकर्ताओं ने इस बात को प्रमुखता से पाया कि ये परजीवी प्रोटीन की बहुत कम आपूर्ति में भी जिंदा रह लेते हैं, इतनी कम में, जो उनसे जुड़ी अन्य प्रजातियों की तुलना में सबसे कम है।
उन्होंने स्पष्ट तौर पर बताया कि अंतःप्रजनन के चलते इस प्रजाति का कोई नया जीन सामने नहीं आ रहा है।
विशेषज्ञों ने अपने अध्ययन में कहा कि ये सूक्ष्म परजीवी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुचते हैं यानी अभिभावकों से उनकी संतानों में। वंश बढ़ाने के इस तरीके के चलते वे इंसानों के शरीर पर पाए जाने वाली अन्य परजीवी प्रजातियों के साथ घुलमिल नहीं पाते। इसके चलते वे जीनों की नई-नई प्रजातियों को पाने का मौका गंवा देते है।
बे्रग कहते हैं कि डेमोडेक्स लगातार पहले से कम और कम संक्रामक बनता जा रहा है।
अध्ययन में एक और महत्वपूर्ण चीज जो बाहर आई, वह है - इनकी कोशिकाओं की संख्या में कमी आना। शोधकर्ताओं ने पाया कि युवा परजीवियों में वयस्कांें की तुलना में ज्यादा कोशिकाएं हो सकती हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि इससे पता चलता है कि वे मनुष्यों में ये घुन परजीवियों से सहजीवी के रूप में विकसित हो रहे हैं, और इसके चलते उनके मनुष्यों के साथ पारस्परिक रूप से लाभकारी संबंध बन रहे हैं।
ब्रेग ने कहा: वे बहुत कम लोगों में परजीवी के रूप में हैं और कम से कम एक मामले में, ऐसा इन लोगों के मानव-जीनोम में उत्परिवर्तन के कारण है। ऐसे बहुत मामलों में, जिनमें लोगों को डेमोडेक्स के चलते दिक्कतें हैं, वे दूसरी दिक्कतों की वजह से हैं, इस वजह के चलते नहीं।’
उन्होंने आगे कहा कि डेमोडेक्स, मनुष्यों के लिए लाभकारी काम करता है क्योंकि यह त्वचा के छिद्रों को साफ रखता है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक, मनुष्य के शरीर में पाया जाने वाला तैलीय, मोम जैसा पदार्थ सीबम, इस परजीवी का भोजन होता है।
ब्रेग के मुताबिक, यह परजीवी उन कुछ जीनों को खो रहा है, जो रिपेयर करने वाले एंजाइमों का उत्पादन करते है। अगर ऐसा होना जारी रहा तो यह जीन-समूह लगातार नष्ट होता जाएगा और इसके विलुप्त होने का खतरा बढ़ जाएगा।
इन परजीवियों के रात में ही सक्रिय होने की वजह भी उनके जीनों के गुम होने में खोजी जा सकती है। अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि दिन में उन्हें सक्रिय रखने वाले जीन गायब हो रहे हैं।
अध्ययन में पाया गया कि जीन-प्रबंधन में बदलाव से उनके साथी के साथ संबंध बनाने में भी बदलाव आया है।